Monday, March 25, 2019

मार्क्सवाद 169 (सामाजिक सुरक्षा)

फेसबुक मित्र राजेश सचान ने राहुल गांधी की न्यूनतम आय गारंटी के संसाधन के स्रोत के बारे में सवाल किया कि वे कॉरपोरेट पर अतिरिक्त कर से जुटाएंगे या पहले से जारी जनकल्याण कार्यक्रमों में कटौती से? उस पर -- ये कैसे करेंगे पता नहीं, इसका पहला व्यवहारिक कदम होगा विनिवेशित (बिके) सार्वजनिक उपक्रमों का पुनःसार्वजनिककरण (राष्ट्रीयकरण) तथा बैंकों एवं वित्तीय संसाधनों का राष्ट्रीयकरण, कॉरपोरेट सब्सिडी का अंत, कॉरपोरेटों से 'बुरे ऋण' की वसूली; उद्योगों के लिए अधग्रहित खाली जमीनों की किसानों को वापसी तथा कृषि एवं लघु उद्योगों की समाप्त कर दी गया सब्सिडी को फिर से चालू करना। नौकरियों में ठेकेदारी प्रथा का अंत तथा अन्य जनपक्षीय कदमों से सामाजिक सुरक्षा (न्यूनतम आय) की नीति लागू की जा सकती है। लेकिन उसके लिए पूंजी की दलाल नहीं जनपक्षीय सोच की सरकार चाहिए जो सोच मौजूदा कॉरपोरेटी चुनावी पार्टियों में अनुपस्थित है। सभी पार्टियां साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की प्रतिस्पर्धी दलाल हैं। नीरा राडिया टेप इसका ज्वलंत उदाहरण है जिसमें धनपशु दावा करते हैं कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही उन्ही की दुकाने हैं।

Sunday, March 24, 2019

शिक्षाऔर ज्ञान 179 (ब्रूनो)

Pankaj Srivastava दार्शनिक तथा वैज्ञानिक ब्रूनो ने कॉपनिकस के सूर्य-केंद्रित ब्रह्मांड के सिद्धांत को आगे बढ़ते हुए ब्रह्मांडों की बहुलता की बात की थी। स्थापित धार्मिक नैतिकता की जगह आधुनिक शब्दावली में मानवाधिकारीय नैतिकता की बात की थी। 1593 से 1600 तक उस पर रोमन कैथलिक चर्च में मुकदमा चला और जिंदा जलाने की सजा दी गयी। रोम के चौराहे पर जब उसे जिंदा जलाया जा रहा था तो धर्मोंमादी भीड़ मजे लेकर तमाशा देख रही थी, वैसे ही जैसे आज मॉब लिंचिंग के तमाशबीन।

मार्क्सवाद 168 (चुनाव)

Rajkishore Prasad Singh जी। अवश्य, पहले भी लिखता रहा हूं, आगे भी लिखूंगा। टाइपराइटर वाले जमाने में पार्टी औरवर्ग संघर्ष पर एक लंबा लेख लिखा था, कंप्यूटर पर टाइप करने को दिया हूं, शेयर करूंगा। संसदीय राजनीति के लिए भी कम्युनिस्ट पार्टियों के पास धनबल-बाहुबल के अभाव में जनबल ही एकमात्र संबल है, जिसे जनसंघर्षों से ही तैयार किया जा सकता है। कम्युनिस्ट पार्टी जनसंघर्षों से तैयार जनबल के चलते प्रमुख विपक्षी पार्टी थी मगर संसदीय विचलन में चुनावी आधार के संख्याबल को क्रांतिकारी सामाजिक चेतना से लैस जनबल में बदलने में नाकाम रही और इसका संख्याबल भाजपा का संख्याबल बन गया। यहां ही नहीं इसी कारण दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियां हाशिए पर खिसक गयीं। मुझे याद नहीं आ रहा है कि पिछले 4 दशकों में सीपीआई-सीपीयम ने कोई बड़ा जनांदोलन खड़ा किया हो। लिबरेसन भी उसी दिशा में अग्रसर है।

मार्क्सवाद 167 (चुनाव)

Ravindra Patwal हमने तो काजल की कोठरी में जाने कीबात ही नहीं की। निश्चित ही संघर्ष सभी स्तर पर होना चाहिए क्योंकि दमन के हर स्तर पर हो रहा है -- सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक...। लेकिन इन पार्टियों में चुनावी जोड़-तोड़ और कॉरपोरेटी पार्टियों के पिछलग्गूपन के अलावा संघर्ष की संस्कृति ही गायब हो गयी है। संघर्षों की पीठ पर चढ़कर ही पहले संसदीय उपस्थिति भी थी। बताइए सीपीआई-सीपीयम के नेतृत्व में पिछले 40 सालों में कौन जनांदोलन हुआ है? एसईजेड जैसे साम्राज्यवादी विधेयक बिना बहस के पारित हो गए जबकि वाम के 60 के करीब सांसद थे। मैं संसद में जाने का विरोध नहीं कर रहा लेकिन संसदीय मंचों का इस्तेमाल क्रांतिकारी विचारों के प्रसार यानि सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के लिए होना चाहिए जिस तर्क पर चुनाव की रणनीति को मंजूर किया गया था। पॉलिटिक्स से और कितना समझौता करेंगे?

आरयसयस और बहुजन चिंतन


पुस्तक-समीक्षा
आरयसयस और बहुजन चिंतन
लेखक: कँवल भारती
प्रकाशक: फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2019
हिंदुत्व: ब्राह्मणवाद का राजनैतिक संस्करण
ईश मिश्र
प्राचीन काल में बौद्ध क्रांति के विरुद्ध ब्राह्मणवादी प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए, कालक्रम के अनुसार तथ्यपरक इतिहास की बजाय मिथकीय पुराण लिखे गए। आमजन को सुलभ आमजन की भाषा (पाली) में, विचार-विमर्श; वाद-विवाद पर आधारित बौद्ध जनतांत्रिक शिक्षा पद्धति और संस्थानों को नष्ट कर अभिजन के लिए, अभिजन की भाषा (संस्कृत) में अधिनायकवादी गुरुकुल शिक्षा प्रणाली को संस्थापित किया गया। “गुरुर्देवो भव” के सिद्धांत पर आधारित गुरुकुल प्रणाली में, सवाल-जवाब यानि विचार-विमर्श का प्रचलन नहीं था। इसमें महिलाओं तथा बहुजन का प्रवेश-निषेध था। शिक्षा में एकाधिकार के चलते ज्ञान को स्वहित में परिभाषित कर तथा उस पर वर्चस्व के जरिए समाज में ब्राह्मणवाद की विचारधारा का वर्चस्व स्थापित किया गया जो  लंबे समय तक बरकरार रहा। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता की औपनिवेशिक शिक्षा नीति के चलते शिक्षा तथा बौद्धिक संसाधनों पर शासक वर्गों का एकाधिकार समाप्त हो गया। पारंपरिक रूप से भारत में आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण के चलते शासक वर्ण (जातियां) ही शासक वर्ग भी रहे हैं, लेकिन यह एक अलग चर्चा का विषय है।
शिक्षा पर शासक जातियों का एकाधिकार खत्म होने से उनकी वैचारिक-सांस्कृतिक वर्चस्व की विचारधारा ब्राह्मणवाद पर खतरा मड़राने लगा। वर्ग समाजों में शासकवर्ग हमेशा अल्पसंख्यक अभिजन रहा है। बहुमत सदा कामगरों का रहा है।  वर्णाश्रमी (ब्राह्मणवादी) मूल्यों की रक्षा के लिए बहुजन की ताकत की जरूरत आ पड़ी। आरयसयस ने विचारधारा के रूप में ब्राह्मणवाद को परिमार्जित कर, पिरामिडाकार हिंदू जातिव्यवस्था की तथाकथित समरसता के नाम पर उसे हिंदुत्व बना दिया। दलितों में आरयसयस का संगठित प्रचार ब्राह्मणवाद की सुरक्षा में बहुजन की लामबंदी के प्रयास में ही आरयसयस का एक उपक्रम है। प्रचीनकाल के ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद की रक्षा में मिथक लिखे, उसके हिंदुत्व संस्करण के संरक्षक आरयसयस ने अफवाहजन्य इतिहासबोध से झूठ और गल्पकथाओं पर आधारित प्रचार साहित्य लिखा। जैसा कि समीक्षार्थ पुस्तक, आरयसयस और बहुजन चिंतन में जाने-माने चिंतक, कँवल भारती ने आरयसयस के प्रचार साहित्य की आठ किताबों के विश्लेषण से दर्शाया है कि किस तरह से यह अपने प्रचार में लगातार “अर्धसत्य, असत्य या सफेद झूठ का सहारा” लेता है। पुस्तक की भूमिका में वर्तमान सरकार की आंखों की किरकिरी बने क्रांतिकारी बुद्धिजीवी आनंद तेलतुम्बड़े बहुजनों को आगाह किया है कि “यह भी समझने की जरूरत है कि झूठ का सहारा लेने का यह तरीका फासीवादियों का बनाया तथा आजमाया हुआ तरीका है।”(पृ. 15)
हिंदू राष्ट्र की फासीवादी परियोजना के लिए बहुजनों में आरयसयस के सुव्यवस्थित, संगठित प्रचार के मौजूदा संदर्भ में, मोहनदास नैमिशराय के शब्दों में, यह “आरयसयस के सच को बहुजन नजरिए से उजागर करने वाली पहली किताब है”[1]। वैसे तो अन्याय के विरुद्ध होने के नाते बहुजन की पक्षधरता का नजरिया जाति आधारित हिंदू समाज के विशिष्ट संदर्भ में मानव-मुक्ति का भी नजरिया है। मार्क्स ने सर्वहारा की मुक्ति को मानव-मुक्ति कहा है। यूरोप के प्रबोधन (एंलाइटेनमेंट) काल के एक विद्रोही दार्शनिक रूसो का मानना था कि पराधीन व्यवस्था में कोई भी स्वतंत्र नहीं होता। यहां पराधीनता और स्वतंत्रता के अंतर्संबंधों पर चर्चा से विषयांतर की गुंजाइश नहीं है, लेकिन रूसो की इस बात से सहमति में कोई हर्ज नहीं है कि खुद को मालिक समझने वाला और भी बड़ा गुलाम होता है। जाति के विनाश में ही हिंदू समाज की मुक्ति निहित है। जैसा कि इनके प्रचार साहित्य की समीक्षा से प्रदर्शित किया है, आरयसयस अपने विभिन्न अनुषांगिक संगठनों के माध्यम से दलित आदिवासियों के सांप्रदायिककरण (हिंदूकरण) के प्रयास में दशकों से संगठित प्रयास में लगा हुआ है। अंबेडकर को इसने अपने आराध्यों की श्रेणी में भरती कर लिया। बुद्ध से वैचारिक रूप से निपटने में अक्षम ब्राह्मणवाद ने भगवान की अवधारणा को नकारने वाले बुद्ध को विष्णु का अवतार बना दिया था। अंबेडकर के विचारों के व्यापक प्रभाव से आक्रांत आरयसयस अंबेडकर को आराध्य के रूप में अपनाने का आडंबर कर रहा है। जैसा कि पुस्तक की भूमिका में, आनंद तेलतुंबड़े ने बताया है, “आरयसयस ने अपने ठेठ गोपनीय तरीके से बाबा सहब अंबेडकर को अपने प्रातःस्मरणीय महापुरुषों के बीच शामिल किया और 14 अप्रैल 1983 को पुणे में गसामाजिक समरसता मंच (सोसल हॉर्मनी प्लेटफॉर्म) नामक संगठन की स्थापना की। इस संगठन के उद्घाटन का संचालन करने वाले दत्तोपंत ठेंगड़ी ने  कहा था, ‘समरसता के बिना समता असंभव है’। यह अंबेडकरके विचारों के ठीक उलट था; वे समता की बात करते थे न कि समरसता की। बल्कि उन्होंने तो जाति व्यवस्था की झूठी समरसता के खिलाफ विद्रोह किया।” (पृ.14-15) गौरतलब है कि अपनी कालजयी कृति जाति का विनाश में अंबेडकर सवर्णों के लिए ही हिंदू शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वंचित जातियों के लिए नहीं।
 यह पुस्तक  दलितों में दशकों से वितरित किए जा रहे आरयसयस के प्रचार साहित्य की आठ किताबों की विश्लेषणात्मक समीक्षा है। इसमें लेखक ने उन्ही के तर्कों के विश्लेषण से प्रामाणिकता से प्रमाणित किया है कि आरयसयस द्वारा प्रतिपादित सांस्कृतिक हिंदुत्व और कुछ नहीं बल्कि ब्राह्मणवादी संस्कृति  का ही राजनैतिक संस्करण है। भारती जी गर्व से कहो हम हिंदू हैं: हिंदुत्व एक दृष्टि और जीवन पद्धति पुस्तिका से शुरू करते हैं। हिंदू हित की बात करने वालों से पूछा जाना चाहिए, हिंदू कौन पैदा होता है? क्योंकि पिरामिडाकार जातीय सामाजिक ढांचे में हिंदू कोई नहीं पैदा होता; कोई ब्राह्मण पैदा होता है कोई शूद्र। वर्णाश्रमी असमानता में समरसता एक भ्रम मात्र है।
गर्व से कहो हम हिंदू हैं” में वेद, पुराण और मनगढ़ंत गल्पकथाओं से “हिंदू विचार की श्रेष्ठता”  पर जोर दिया गया है। इस “संबंध में आरयसयस ने 4 विभाग किए हैं -- ..... । ये 4 विभाग वैसे ही हैं जैसे चार वर्ण। पर यहां मैं इस सवाल पर विचार नहीं करूंगा कि हिंदू कौन है? और वेदों से लेकर उपनिषद तक और पुराणों से लेकर महाभारत तक किसी भी ग्रंथ में हिंदू शब्द क्यों नहीं मिलता है? .....”।(पृ. 37) भारती जी अत्यंत तार्किक तरीके उनकी प्रस्थापनाओं का खंडन करते हुए आरयसयस द्वारा प्रतिपादित हिंदुत्व की दृष्टि और जीवन पद्धति को मिथ्या साबित करते हैं।
“इसलिए हिंदुत्व धर्म है, दर्शन है या जीवन पद्धति है? इसका निर्धारण अगर आरयसयस करता है; तो निश्चित रूप से वह ब्राह्मण धर्म, ब्राह्मण दर्शन और ब्राह्मण जीवन पद्धति है। और हां जीवन पद्धति का अर्थ वे नैतिक मूल्य हैं जो ब्राह्मण विधि निर्माता मनु ने बनाए हैं।” गौरतलब है कि आरयसयस के दो प्रमुख विचारक, आरयसस सर्किल में गुरुजी नाम से मशहूर यमयस गोलवल्कर और दीनदयाल उपाध्याय मनुस्मृति को मानव इतिहास का श्रेष्ठतम विधि निर्माता तथा मनुस्मृति को श्रेष्तम न्यायिक आचार संहिता[2]। यह भी गौरतलब है कि डॉ. अंबेडकर ने मनस्मृति जलाकर ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अपना विरोध जताया था। 
कुछ हिंदुत्ववादी मनीषियों के हवाले से हिंदू राष्ट्र की अवधारणा के सांप्रदायिक तथा संविधान-विरोधी होने के आरोपों के जवाब में यह तिलक तथा एनीबीसेंट जैसे मनीषियों के वक्तव्यों का हवाला देता है। इस पर भारती जी पूछते हैं, “एकपक्षीय विचार के इन मनीषियों का मत पूरे राष्ट्र का मत कैसे हो सकता है? आरयसयस ने महात्मा गांधी का विचार ऱखा; पर  महात्मा फुले के विचार क्यों नहीं रखा जिन्होंने हिंदुत्व को ब्राह्मणवाद का नाम दिया था। ...... उसने लोक मान्य तिलक का विचारदिया है, जिन्होंने दलित जातियों की शिक्षा का विरोध किया था, पर बाबा साहबवअंबेडकरल का विचार क्यों नहीं दिया जिन्होंने हिंदुत्व के दर्शन को असभ्य दर्शन कहा था?” (पृ.51-52) दलितों में आरयसयस के प्रचार-प्रसार के कार्यक्रमों का मकसद, “जाति प्रथा का विनाश करके हिंदू समाज की एकात्मकता में वृद्धि करना नहीं बल्कि हिंदू संस्कृति के अंतर्गत दलित जातियों को यथास्थिति में बनाए रखना है। दूसरे शब्दों मे कोई दलित अगर जातीय नर्क से अपनी मुक्ति चाहता है तो उसे उसी नर्क में वापस धकेलना है।” (पृ. 57)
एकात्म मानवतावाद में दीनदयाल उपाध्याय “समरस” जाति व्यवस्था को, जो “परोक्ष रूप से वर्ण व्यवस्था का ही दूसरा नाम है” बुरी बात नहीं मानते बल्कि इसकी समरसता भंग करने वाली विकृति को बुरा मानते हैं; “और समरसता भंग होने से दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं। लेकिन आरयसयस के इन अंधे चिंतकों से यह पूछा जाना चाहिए कि वर्ण व्यवस्था में विकृति आ जाने से दलितों पर ही क्यों अत्याचार हो रहे हैं? ब्राह्मण, ठाकुर और बनियों पर अत्याचार क्यों नहीं हो रहे हैं? जब पूरी व्यवस्था में विकृति आ गयी है तो उसका असर सभी वर्णों और जातियों पर पड़ना चाहिए, केवल दलितों पर ही क्यों पड़ रहा है?” और यह विकृति क्या है? इन्ही पुस्तिकाओं के कुतर्कों के विश्लेषण से भारती जी खुलासा करते हैं, “नौकरियों और शासन में दलित-पिछड़ों के प्रतिनिधित्व का सवाल ही आरयसयस के लिए वर्ण व्यवस्था में आई वह विकृति है, जिससे समरसता भंग हुई है। वह चाहता है  कि शिक्षा, नौकरियों और शासन में दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व समाप्त हो और समरसता कायम हो।” (पृ.64-65) कई आरक्षण विरोधी जब मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने से देश में जातिवाद पैदा होने या बढ़ने का राग अलापते हैं तो वे आरयसयस के इस विचारक को ही प्रतिध्वनित कर रहे होते हैं। जैसे उसके पहले जातिवाद था ही नहीं? हां बहुजन चेतना के जारी उफान के पहले जातिवादी वर्चस्व के सम्मुख ऐसी चुनौती नहीं थी। 
     
यह दलितों में वितरित होने वाले आरयसयस के प्रचार साहित्य में वर्णित समरसतापूर्ण (समतापूर्ण नहीं) हिंदुत्व की आरयसयस की प्रतिस्थापनाओं के मिथ्याचार का खंडन करती यह पुस्तक ब्राह्मणवादी धर्म-कर्म के कर्मकांडों में फंसे बहुजनों को सांप्रदायिक हिंदुत्व की असलियत बताती है।  मुसलमानों से नफरत पर आधारित हिंदुत्व की तरफ आरयसयस द्वारा “दलितों को लुभाने की रणनीति” के विशिष्ट संदर्भ में उसके मिथ्या-प्रचार एवं आडंबर के विभिन्न आयामों की हकीकत के ऐसे बेबाक बयान की ऐतिहासिक प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। आरयसयस अपने सारे अनुषांगिक संगठनों और अपनी संसदीय शाखा भाजपा की सरकार द्वारा दलितों का येन प्रकारेण सांप्रदायिककरण समेत मुल्क को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने की सारी तिकड़में कर रहा है, यह पुस्तक बहुजन परिप्रेक्ष्य से, उसकी तिकड़मों तथा फासीवादी मंसूबों का पर्दाफाश करते हुए उसके बहुजन विरोधी चरित्र का विवेकसम्मत तरीके से बयान करती है। दलितों के हिंदूकरण का आरयसयस का मतलब उन्हें समानता के आधार पर हिंदू बनाना नहीं बल्कि उन पर ब्राह्मणवादी (वर्णाश्रमी) वर्चस्व थोपना है। आरयसयस समानता को विदेशी विचार मानता है तथा गौरवशाली हिंदू संस्कृति के विरुद्ध। मनुस्मृति को दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कानूनी आचारसंहिता मानने वाले आरयसयस के विचारक गोलवल्कर और दीनदयाल उपाध्याय समानता नहीं असमानताओं में, जैसा कि भारती जी ने दीन दयाल के हवाले से इंगित किया है, “समरसता” चाहते हैं।(पृ. 65) असमानता के सारे ग्रंथों की ही तरह दीन दयाल का एकात्म मानवतावाद भी भिन्नताओं को असमानता के रूप में परिभाषित करता है और गोल-मटोल तर्क का इस्तेमाल करते हुए उसी परिभाषा से असमानता प्रमाणित करता है। असमानता में समरसता के पक्ष में दीनदयाल पाध्याय भी वही पांच उंगलियों के घिसे-पिटे मिशाल का तर्क देते हैं। पांचों उंगलियों में असमानता आकार का होता है, महत्व का नहीं। द्रोणाचार्य को एकलव्य की सबसे छोटी उंगली, अंगूठा ही सर्वाधिक खतरनाक लगा था। “परोक्ष रूप से यह वर्ण व्यवस्था का ही दूसरा रूप है”। (पृ.65) ब्राह्मणवाद के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती है, दलित प्रज्ञा और दावेदारी का मौजूदा सघन अभियान। बहुजनों में शिक्षा के प्रसार ने सवाल करने की प्रवृत्ति पैदा कर दी है, वे प्रचलित ब्राह्मणवादी मूल्यों और रीति-रिवाजों पर पर सवाल करने लगे हैं। ब्राह्मणवाद सरीखी, आस्था पर आधारित, अधिनायकवादी विचारधाराएं सवालों से डरती हैं। भारती जी अपनी समीक्षा में इस बात को बहुत स्पष्टता से प्रदर्शित करते हैं कि इन सवालों से बचना तथा बहुजन आंदोलनों की शान से तेज होती दलित चेतना की धार कुंद करना ही दलितों के सांप्रदायिककरण के  अभियान का प्रमुख उद्देश्य है।
 जिस तरह वर्णाश्रम की दार्शनिक पुष्टि में ब्रह्मणों द्वारा लिखे गए महाकाव्य और पौराणिक ग्रंथ, तथ्यपरक की बजाय, मिथकीय इतिहासबोध पर आधारित हैं, उसी तरह आरयसयस के वैचारिक ग्रंथ और प्रचार सामग्री ऐतिहासिक या तथ्यपरक न होकर अफवाहजन्य इतिहासबोध पर आधारित, झूठ के पिटारे  हैं।  यह पुस्तक आरयसयस के अफवाहजन्य इतिहासबोध को बहुत ही तार्किक ढंग से बेनकाब करती है क्योंकि जैसा कि बाबासाहब अंबेडकर ने आगाह किया है, “हिंदू राज की स्थापना .....  देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। ... हिंदुत्व समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है।” 
इस समीक्षा का उपसंहार प्रेमकुमार मणि के पुस्तक के जिल्द-परिचय के एक प्रासंगिक उद्धरण से करना अनुचित न होगा। “ दलित-पिछड़े तबकों से आए सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए यह किताब और भी जरूरी है क्योंकि इन तबकों से आ अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी अंबेडकर को दलित घेरे में आरक्षण की अवधारणा तक सीमित रखना चाहते हैं। संघ को आरक्षण और सीमित विशेषाधिकारों को स्वीकार लेने में कोई असुविधा नहीं है, बशर्ते विशाल बहुजन समुदाय उनके वर्टस्ववादी-ब्राह्मणवादी सांस्कृतिक-राजनैतिक मिशन का हिस्सा बन जाए। इस किताब से गुजरते हुए ऐसे ही कुछ जरूरी सवालों और खास खयालों से हम रूबरू होते हैं।”
(23.03.2019)



[1] किताब का एक जिल्द परिचय
[2] यमयस गोलवल्कर, बंच ऑफ थॉट तथा दीनदयाल उपाध्याय इंटेग्रल ह्यूमनिज्म quoted Ish N. Mishra, Women’s Question in Communal Ideologies, Centre for Women’s Development Studies, New Delhi, 1987.