Sunday, April 26, 2020

फुटनोट 284 (मजरूह)

मजरूह एक क्रांतिकारी शायर थे, 1950 में टेक्सटाइल मजदूरों ने काम की अमानवीय हालात में सुधार व जीने लायक मजदूरी के लिये हड़ताल की।प्रगतिशील फिल्मी कलाकारों, लेखको और कवियों ने हड़ताल का खुलकर समर्थन किया। मजरूह ने हड़ताली मजदूरों की सभा में नारेबाजी के तौर पर एक कविता पढ़ी। बंबई के तत्कालीन गवर्नर मोरारजी देसाई ने कम्युनिस्ट हव्वे से आतंकित हो बलराज शाहनी और मजरूह समेत कई लेखक-कलाकारों को जेल में बंद कर दिया। सबके सामने माफी मांगर कर छूटने की शर्त रखी गयी थी। किसी ने माफी नहीं मांगी, मजरूह ने कहा कि कोई भी जवाहर उनके कलम से बड़ा नहीं है। नेहरू को इसका पता बहुत बाद में चला जो उनके बड़प्पन में कमी की एक मिशाल बन गयी। मजरूह के कलम की आजादी के जज्बे को सलाम। क्रांतिकारी न झुकता है, न टूटता है, जीतने के जज्बे के साथ लड़ता है। हार-जीत तमाम कारकों पर निर्भर करती है, महत्वपूर्ण है लड़ाई की गुणवत्ता।

मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा.
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए.
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए.
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए.

मजरूह सुल्तानपुरी को विनम्र श्रद्धांजलि।

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