Friday, March 29, 2013

तराशना है अगर समतावादी एक विकल्प


तराशना है अगर समतावादी  एक विकल्प
लेना होगा नियंत्रण की वर्जानाएं तोड़ने संकल्प
तोडनी होगी रश्म-ओ-रिवाज़ की दीवारें
ध्वस्त करनी होंगी वैचारिक वर्चस्व की प्राचीन प्राचीरें
आयेगी ही कभी-न-कभी  तो जनवाद के आंधी
उड़ जायेंगे जिसमें सारे नकली गांधी

विकल्पहीनता मुर्दा कौमों की निशानी है

विकल्पहीनता मुर्दा कौमों की निशानी है
ईश मिश्र

किसी ने कहा
माना कि बुरा है ज़र का निजाम
मगर और रास्ता क्या है?
एक ही रास्ता है निजाम-ए-आवाम
होती नहीं कभी ज़िंदा कौमें विकल्पहीन
विकल्पहीनता मुर्दा कौमों की निशानी है
डालना है विप्लवी जान इन ज़िंदा लाशों में
हाथ लहराते हुए हर लाश तब आगे बढ़ेगी
तरासेंगी की नया विकल्प आगामी पीढिया
इतिहास की गाड़ी में बैक गियर नहीं होता
खत्म तो होगा ही ज़र का निजाम भी
इतिहास में कुछ भी अजर-अमर नहीं होता
[ईमि/३०.०३.२०१३]

टूट जाते हैं सभी हाथ हमारे गिरेबान तक आते आते


टूट जाते हैं सभी हाथ हमारे गिरेबान तक आते आते
माफ कर कमजर्फ हाथों को हैं हम खुदा से बड़े हो जाते .
[ईमि/२९.०३२०१३]

Thursday, March 21, 2013

क्यों खुश है इतनी यह लड़की


क्यों खुश है इतनी यह लड़की
लिये आँखों में जज्बात अंतरिक्ष के उड़ान की
कामयाबी की उम्मीद है राज इस मुसकान की
चाहती है लांघना सीमाएं आसमान की
लगते हैं इरादे इसके असदंदिग्ध पक्के
रोक नहीं सकते अब रास्ता चोर ओर उचक्के
[ईमि/२२.०३.२०१३]

Wednesday, March 20, 2013

लल्ला पुराण ७८


. On one post of Sharad Yadav's apprehension of the misuse of  anti-rape law, many people agreed with Yadavji with the argument that the girls themselves want and invite stalking by direct/indirect hints. I am pasting here my comment:

   Fear on this thread has already sounded by Sharad Yadav in the Parliament. The root cause of sexual harassment is set of patriarchal values orchestrated and perpetuated by myths, idioms, phrases rituals and practices. No word or proverb is value free but value loaded. You statement "value teji se ghat jayega..". Knowingly/inadvertently your statement is objectifying the female personality. This simply implies that in the process of your learning you have not been able to unlearn the the "acquired moralities" and replace them by rational ones. Education is not only about learning but also unlearning many attributes that we have inherited/acquired in the process of  growing up without our conscious will. We carry them on because we do not question them; seek their proof and intellectually stagnate. If the "harassment" is "invited and consensual', why do you fear this this law. If one has invited you to stalk her why would she complain?

Monday, March 18, 2013

किसका लोकतंत्र


कौन सा लोकतंत्र किसका लोकतंत्र

लोकतंत्र पूँजीवाद का है लूटतंत्र
यह जो कहता कभी न करता
जो करता वह कभी नहीं कहता
अमरीका ने दुनिया लूटा
राष्ट्रभक्ति का राग अलापा
कार्पोरेट के चरण पखारता
लाल रंग पे खोया आपा
मजलूमो पर कहर बरपाता
जो न माने उसका आदेश
आ जाता है उसको तैश
भेजता बेड़े हथियारों से लैश
लोकतंत्र का धरता भेष
जिसकी लाठी उसकी भैंस
जो भी उसको दे ना तेल
कर देता वह उसका खेल
गुअंतोनमो है ऐसी जेल
करती सबकी रेलमपेल
जो नहीं है उसका साथी
वह तो पक्का आतंकवादी
दिखलाता का साम्यवाद का डर
बनवाता कठमुल्ला कैडर
मार दिए लाखों इंशान
कहे इसे अमरीका की शान
[ईमि/ ३.०५.२०१२]

Sunday, March 17, 2013

मयनोशी

छोड़ चुका था मयनोशी/
ज़िंदगी से कोई शिकायत न थी/
बरसा के चंद कतरे मय के/
तुमने दिल की प्यास बढ़ा दी,
[ईमि/१७.०३.२०१३]

Tuesday, March 12, 2013

लल्ला पुराण ७७

आधुनिक(पूंजीवादी) सभ्यता व्यक्ति में दोगलेपन का संचार करती है, हर कोई वह दिखना चाहता/ती है जो होता/ती नहीं. सार और स्वरूप का यह अंतर्विरोध स्वस्थ विमर्श, मुक्त आत्मचिंतन एवं आत्मालोचना और परिणामस्वरूप समाज के समुचित, बौद्धिक विकास में बाधक है. कोशिस होनी चाहिए वैसा बनने की जैसा हम दिखना चाहते हैं.

पहले प्यार के सिवा

हर प्यार होता है इतना अनोखा
लगता है अनदेखा पहले सा
 जब भी हो जाता है
देता है अनुभूति
 सघनतम पारस्परिकता की
लगता है कुछ भी नहीं रहा है ऐसा
 पहले प्यार के सिवा.
 [ईमि/१३.०३.२०१३]

Friday, March 8, 2013

International Proletariat 29

When the hell shall American mindset be free from the ideology of race that is not an attribute  of biology and genetics but s created and perpetuated in our everyday life experiences, like the one being done on this thread. One's consciousnesses is not shaped by color of the skin but by material conditions,i.e. the socialization. Men and women are equal human beings endowed with intellectual faculty irrespective of sex and color. Race kind of prejudices prevail even about the sex. The cunning ideologues of inequality define differences in terms of inequality and using circular logic, prove the inequalities with the same definition. The ideology affects not only the perpetrator but also the victim. Let us apply Reason that distinguishes humans from other creatures,  while making opinions.

As I said consciousness is product of socialization that includes the ideological indoctrination through media education and practice of irrational prejudices. Ideology is a false consciousness that presents a particular construct as the final truth, the natural. But the naturalism of this natural is questionable. 

Thursday, March 7, 2013

बीते लम्हों की मधुर यादें


बीते लम्हों की आती हैं जब मधुर यादें
गम-ए-जुदाई की भूल जाती हैं सब बातें


है हर लम्हे का बीत जाना कुदरती फितरत
 देता है जीने वाला उन लम्हों को सोहरत
कसक छोड़ जाते हैं वे बीते लम्हे
बला की खूबसूरती होती है जिनमें
मिलता है जब कभी फिर ऐसा साथ
बहुत याद आती है उन लम्हों की बात
[ईमि/०८.०३.२०१३]

Wednesday, March 6, 2013

International Proletariat 28

The vertical rise of American economy emerged during the first half of the 18th century with Virginia boom not based on slave labour but indentured labour from uprooted Europeans, particularly the expropriated peasantry and ruined artisans and craftsmen and not on the slave labor. The Africans had not yet conditioned to new environs and did not live longer and hence the slave labor would prove costlier. The indentured workers were not treated in any better way than slaves. Much has been written about that. It is only by 1950s when the slaves begun living longer and the news ill-treatment of workers of same color created scarcity of supply of labor from the mother countries, the  slave-labor became the basis of American economy and Race was constructed as an ideology to justify the most inhuman institution of slavery by Euro-American intellectuals.The ideological  indoctrination was and tragically is to a large extent, so strong that both, the opponents and the  supporters of slavery concurred on one point that they were slaves due to their own racial deficiencies. These racist prejudices are still found in many Americans.

Monday, March 4, 2013

लल्ला पुराण ७६

अंकिता,  हालात बदलने होंगे, सत्ता बदलने से नहीं काम चलेगा, व्यवस्था बदलनी पड़ेगी जिसकी पूर्व-शर्त है जनचेतना जिसमें हम सुविधासंपन्न मध्य-वर्ग की आपराधिक तटस्थता और निष्क्रियता सर्वाधिक बाधक है. क्रांतिकारी जनचेतना के अभियान की धार कुंद करने के लिये गौड़ और जाति-धर्म जैसे सतही अंतर्विरोधों को बढ़ा-चढ़ा कर प्रसारित किया जाता है जिससे मुख्य अंतर्विरोध की धार कुंद की जा सके. तथाकथित जनतंत्र हमें नाग्नाथ-सांपनाथ के विकल्पों में चुनाव का अधिकार देता है. यह जनता का शासन नहीं, उसका भ्रम प्रदान करता है. वास्तविक जनतंत्र के लिये जनचेतना से लैस जन-क्रान्ति की आवश्यकता है. जनचेतना का निर्माण रात-ओ-रात नहीं होता और परम्परागत चिंतन सिर पर पूर्वजों की लाशों के भार सा होता है उसे फेंकने में मोह-माया वाधक होती है, लेकिन बोझ से जितनी जल्दी मुक्ति मिले उतना ही अच्छा. यदि हम चाहते हैं कि यह स्थिति खत्म हो कि हम हर ५ साल में यह चुनने को 'स्वतंत्र' रूप से वाध्य हों कि अगले ५ साल तक पूंजी के दलाल शासक वर्गों कौन धडा हमारा शोषण-दमन करेगा तो आइये हमलोग अपने हर शब्द और कर्म से जनचेतना के निर्माण-प्रसार में अपना योगदान देने का संकल्प लें. अविश्वसनीय लगता है कि दुनिया के सबसे बड़े जनतन्त्र में पुलिस दल के साथ ड्यूटी पर तैनात एक पुलिस अधिकारी की चंद सामंती गुंडे खुलेआम बर्बरतापूर्ण ह्त्या कर देते हैं और कोई जन-शैलाब नहीं उमडता प्रतिरोध में? पिछले २-३ दशकों में न सिर्फ राजनीति का खतरनाक साम्प्रदायीकर्ण हुआ है जिसकी चुनावी फसल काटने में दोनों प्रमुख शासक दलों मे होड लगी है बल्कि न्याय-व्यवस्था और सुरक्षाबलों का भी खतरनाक संप्रदायीकरण हुआ है. दंगों में पीएसी की भूमिका सर्वविदित है. आइये हालात बदलने में साथ हों. जिया को श्रद्धांजलि.

International Proletariat 27

Would the US military soldiers would fire on American citizens? They certainly will. This is true of soldiers of any country/monarchy across the time and the space.  They are trained to fire on orders from those who think on their behalf on enemy, who the enemy is they do not know, nor is their concern. The identity of the enemy is determined by the people sitting in Secure palaces/fortresses or white houses. They have been told just to act and not think/question. Whenever they think/question there are revolts.As yet the history of civilization has been that of poor killing the poor. American poor is paying for and killing Iraqi/Afgani/... poor. Indian army does that in its "disturbed area" under a draconian Act giving special powers to armed forces.

लल्ला पुराण ७५

मुझे नहीं लगता मैंने ऐसा क्या कह दिया कि इतनी बौखलाहट मच गयी तमीज के एक ठेकेदार ने मुझे औघड़ के ओहदे से नवाजा है जिसके बारे में मुझे ज्यादा मालुम नहीं तो यह प्रशंसा है कि निंदा नहीं कह सका, जिनकी मैं चिंता नहीं करता. अमिताभ  जी आप यहाँ ज्योतिष का गूगल क्लास लेने लगे. ग्रहों की गणनाओं से ही सब तय होता तो क्या कहना था. अब आपको गणनाओं के आधार पर भूत-भविष्य-वर्तमान के प्रामाणिक विज्ञान के ज्ञानी ज्योतिषी के राय पर पुखराज पहनने की बावजूद आई.ए.एस. नहीं बन सके और यह सिक्षा जगत  का सौभाग्य है कि लोक सेवा आयोग/संघ लोक सेवा आयोग आदि के दुर्भाग्य से ये लोग प्रोफ़ेसर बन जाते हैं और भविष्य की पीढ़ियों के लिये मिसाल बनते हैं. मेरे दादा जी इलाके में पंचांग के बहुत बड़े ज्ञाता माने जाते थे. और नक्षत्रों की गणना के इतने कट्टर मानाने वाले थे कि परीक्षा छूट जाय लेकिन प्रस्थान गणना के मुहूर्त पर ही होगा. इस अंध-विश्वास (ताब मैं एस्सा नहीं सोचता था) की पराकाष्टा का अनुभव मैं इलाहाबाद के किसी मंच पर शेयर कर चुका हूँ. यह कमेन्ट लंबा हो जा रहा है, पुष्पा की आपत्ति के पहले ही समेत दूं, अपना अनुभव अगले कमेन्ट में. और मैं सिर तथ्यों तर्कों के आधार पर बात कारता हूँ लफ्फाजी नहीं करता, कभी विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ. मेरे पास अपनी बात कहने के आभासी और वास्तविक दुनिया में कमी नहीं है, अगर मेरी बातें बहुमत को कष्टदायक  लग रही हों तो कुटुंब की तरह इस ग्रुप को भी छोड़कर मुझे खास तकलीफ नहीं होगी. हाँ अंतिम वाक्य, धर्म और ईश्वर पर ज़रा सी बातों से लोग इतने अआहत क्यों हो जाते हैं? क्या सर्वशक्तिमान इतना कमजोर है कि मेरे जैसे साधारण इंसान की आलोचना से उसके अस्तित्व को खतर पैदा हो जाता है? मैं एक नास्तिक हूँ जो धर्मों को जनता के खिलाफ कह्तार्नाक साज़िश मानता है; जो हर ज्योतिषी को मेरे जीवन की निकट अतीत (पुष्पा जी के गुरू को चुनौती में तारीख भी लिखा हूँ) की एक आजीवन महत्व की घटना के बारे में बता दे तो ज्योतिष जैसे फरेब को मैं विज्ञान मान लूंगा.

ProfAmitabh Pandey  मैं किसी को सर्वशक्तिमान मानता ही नहीं तो एक-दो झटके में निपटाने का सावाल ही नहीं उठता. मनुष्य अपनी आवश्यकतानुसार अपने शब्द; मुहावरे, देवी-देवता और धर्म निर्मित करता रहा है इसीलिये देश-काल के अनुसार इनके स्वरूप बदलते रहे हैं. वैदिक काल में प्राकृतिक शक्तियों के अलावा और कोई देवी-देवता नहीं थे. पहले ईश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था. सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट के जमाने में जो खुद अपनी सहायता कर सकते हैं उन्ही का मददगार हो गया. ब्रहमो समाज आर्यसमाज जैसे वैद्क पुनुरुद्धार के आन्दोलन मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे. बाकी यदि कोई सर्वशक्तिमान है/हैं तो उसे/उन्हें भी चुनौती देता हूँ कि वे यदि वाकई सर्वशक्तिमान हैं तो ओबामा को जनसंहार से रोक दे/दें.

पाण्डेय जी, आपने मेरी बातों को अन्यथा ले लिया, जो लोग कोचिंग के बल पर आईएएस/पीसीएस  बन जाने वालों को कोई बहुत प्रज्ञावान नहीं मानता और आप जिस क्षेत्र में हैं उसे मैं भाग्यशाली मानता हूँ, यद्यपि ऐसे अभागे शिक्षकों की कमी नहीं जो शिक्षक होने के महत्व को नहीं समझते. मेरी धार्मिकता से कोई दुश्मनी नहीं है क्योंकि चेतना का विकास भौतिक परिस्थितियों (समाजीकरण जिसका महत्वपूर्ण अवयव है)का परिणाम है और बदली हुई चेतना बदली हुई परिस्थितयों का. लेकिन ये परिस्थियाँ मनुष्य के चेतन प्रयास से बदलती हैं. चेतना में बदलाव इतनी मंद और अदृश्य गति से होता है कि कई बार हम महसूस नहीं कर पाते. आप वैसे तो दावा कर रहे हैं कि आप भी वही करते हैं जो आप की पीढियां करती आयी हैं. मेरे और अपने बाप-दादाओं की तरह जाट-पांत/ खान-पान की शुद्धता का पालन करते हैं? कुछ बदलाव कभी चिंतन-मंथन में पकते पकते-पकते-पकते एक झटके से आते हैं, जो आत्मसात हो जाते हैं कि इंसान  इसकी खलूस से सघन नुभूति करता है, जैसे नवी क्लास में ऊबकर एक झटके में जनेऊ तोड़ दिया था और उसी झटके से पीढ़ियों के कर्मकांडी संस्कारों को पूर्वजों की लाशों के बोझ की तरह उतार फेंका था.संस्कारगत नैतिकताओं पर सावाल से शुरू प्रक्रिया ईश्वर पर सावाल तक पहुँची और जैसा कि सावाल-दर-सवाल में नास्तिकता का ख़तरा रहता है, उससे बच नहीं पाया. संस्कारगत आधारहीन नैतिकता को विवेकसम्मत नैतिकता से विस्थापित करने की आत्म-संघर्षों की यात्रा कठिन तो है लेकिन सुख-शक्ति दायक. किशोरावस्था समाप्त होते होते मैं पूर्णतः संस्कारहीन और प्रामाणिक नास्तिक बन गया और भूतो-भगवानों के भय से मुक्त हो गया. मैं न सिर्फ पूर्वजों के संस्कार से मुक्त हुआ बल्कि विरासत के संस्कारों का आलोचक भी हूँ. 

Sunday, March 3, 2013

लल्ला पुराण ७४

ProfAmitabh Pandey  अब मैं यह नहीं कहना चाहता कि आपने ऋग्वेद पढ़ा ही नहीं है. जी हाँ इतिहास की गाड़ी में बैक गीयर नहीं होता रीयार्विव मिरर जरूर होता है. मैक्समूलर जैसे विद्वानों की प्रशंसा  से कोई ग्रन्थ महान नहीं होता. किस आधार पर आप कह सकते हैं कि ऋग्वेद दुनिया का प्राचीनतम ग्रन्थ है? हमारे पूर्वजों को अक्षर ज्ञान बुद्ध-काल के आस-पास हुआ, उसके पहले हरप्पा. बेबीलान और मेस्पोतामियाँ सभ्यताओं में नागरिक जीवन एवं लिपि एवं लेखन की परम्परा स्थापित हो चुकी थी. भारतीय संस्कृति क्या है और वेद उसका मूल श्रोत कैसे है? अगर ऋग्वेद मूल है तो बाद के प्रक्षेपित ब्रहमा-विष्णु- उसके अवतारों और उनके हनुमान जैसे चमचों जैसे अवैदिक  देवी-देवताओं को निकाल बाहर कीजिये देवताओं की  संस्कृति से.हमारे ऋग्वैदिक पूर्वज अर्ध-खानाबदोष चरवाहे थे जो अस्थायी गाँवों मे रहते था और इतिहास के उस आदिमकाल में वेद मन्त्रों जैसी रचनाओं के माध्यम से ताब तक के बुद्धिविकास के हिसाब से प्राकृतिक शक्तियों के प्रति भय और श्रद्धा के भाव से आराधना के मन्त्र सराहनीय हैं, लेकिन पोंगापंथी बिना दिमाग लगाए सब का श्रोत अतीत में खोजते हैं और समाज में अधोगामी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं. मैं दावे के साथ कहता हूँ कि वेदों को सारे ज्ञान का श्रोत मानाने वाले लोगों ने  वेद कभी पढ़ा ही नहीं वरना वे इंतनी अनैतिहासिक जहालत की बातें न करते. उन्दली-कुंडली सब बकवास  है मेरे दादा जी पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे और हम सब की कुण्डलियाँ उन्ही की हस्तलिपि में हैं, मैंने अपनी संभाल कर कहीं उसके ऐतिहासिक महत्व की वजह से रखा है. कौटिल्य ने कहा है कि सितारों में भविष्य खीजने वालों के भाग्य के सितारे धुल में मिल जाते हैं. ज्योतिष एक अतार्किक और अविग्यानिक फरेब है जो भी इसे विज्ञान के समतुल्य रखता है वह या तो जाहिल है या फरेबी. पत्थर और अन्य तांत्रिक विधियों से भाग्य बदलने के धंधेबाजों का धंधा ताब तक चलता रहेगा जब तक धर्मभीरू अज्ञात अदृश्य ताकत के बदौलत पुखराज-सुखराज जैसे पाखंडों से आईएएस बनाने वालो या अन्य तरह भाग्य बदलने वाले फरेबियों का धंधा चलता रहेगा. ज्योतिषियों और तांत्रिकों और सभी तरह के धार्मिक गुरुघंटालों को अपनी बात प्रमाणित करने की चुनौती को मैं फिर से दुहराता हूँ. और दुनियके सारे भगवानों-भूतों को भी खुली चुनौती दुहराता हूँ कि मेरा जो चाहें बिगाड़ लें, काल्पनिक अवधारणाएं आप का कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं.

Arun Kumar Yadav  मुझे नहीं मालुम कि मुक्तिबोध पर हारे को हरनाम का दोषी ठहराने के स्रोतों की प्रामाणिकता क्या है? नामवर सिंह गीता सुनना चाहे कि नहीं, वैसे वे खुद संस्कृत के बड़े ज्ञाता हैं. धर्म के बारे में मार्क्सवाद की एक ठोस समझ है जिस पर काफी लिखा जा चुका.भगत सिंह के पास अंत समय में जब ग्रंथी पहुंचा तो उन्होंने क्या जवाब दिया वह मेरे लिये मार्क्सवादी/क्रांतिकारी का प्रामाणिक वक्तव्य है. मैं ईश्वर को गालियाँ नहीं देता बल्कि एक काल्पनिक अवधारणा का मज़ाक उडाता हूँ और  वायदा करता हूँ जब तक किसी ईश्वर किस्म की कोई अज्ञात शक्ति ज्ञात नहीं हो सकती मैं अंत समय में किसी ऐसी काल्पनिक निकाय की शरण नहीं जाऊंगा. जो प्रमाणित न हो वह सत्य नहीं. सत्यभक्त क्या थे क्या किये यह तो वही बताएँगे, भारत में मार्क्सवाद का अध्ययन सत्य्ब्हत के पहले से है. लाला हरदयाल ने मार्क्स की जीवनी लिखा था रूसी क्रान्ति के पहले. असहयोग आंदोलन के अस-पास दंगे ने मार्क्स और गांधी के तुलनात्मक अध्ययन पर पुस्क लिखा था. यहाँ बात ज्योतिष की भविष्य वाणियों और पुखराज-सुखराज जैसे पत्थरों की कृपा से आई.ए.एस बनने बनाने के फरेबी प्रपंचों पर हो रही थी.परिक्षा के दिन अपनी पढ़ाई पर विश्वास की बजाय हनुमान जी की कृपा(जो स्वयं एक रिपा पात्र अनुचर है) परीक्षा में अच्छा करने की उम्मीद से मंदिर जाने वालों में विज्ञान के विद्यार्थी ज्यादा होते हैं. यह विज्ञान की शिक्षा का दुर्भाग्य है. 

लल्ला पुराण ७३

मन्त्र-तंत्र के मायाजाल  को मैंने बचपन में जान लिया था. सिगरेट पीने निकला तो कोई और मीर टहलते मिल गयीं और कुछ बहस में हम दोनों उलझ गए. अमिताभ जी ई दार्शनिक बातों का जवाब और पुष्पा जी के गुरू को दी गयी अमूर्त चुनौती को ठोस रूप देने से पहले आप लोगों से अपना एक अनुभव शेयर करता हूँ. मैं बता ही चुका हूँ कि मेरा जन्म और पालन-पोषण एक रूढ़िवादी, कर्मकांडी, "संसकारी" "कुलीन" परिवेश में हुआ जहाँ पंचांग और मन्त्र-तन्रों को बहुत महत्व प्राप्त था. इसके पराकाष्ठा की मिसाल कभी बताऊंगा. मेरे पिताजी अन्य मन्त्रों के साथ बिच्छू का भी मन्त्र जानते थे. जिस समय की बात है मैं सही-सही तो नहीं बता सकता लेकिन इतना छोटा था कि अगल-बगल के गाँव के लोग रात में सोते से जगाकर गोद में उठा ले जाते थे.मैं अपने पिताजी को बिच्छू का मन्त्र झाड़ते ध्यान से देखता था. राख या मिट्टी फैलाकर एक लकीर खींचते थे और उस पर जिस अलंग में बिच्छू ने डंक मारा है उधर का हाथ या पैर रेखा पर रखवाते थे. कुछ जमीं पर और हथेली पर लिखते थे,और ३ बार हथेली पीटते थे. ५-६ बार यही प्रक्रिया दुहराते थे और दर्द कंधे से उंगली तक आ जाता था. मैंने वह पढ़ लिया था. एक दिन एक तेली की लड़की बिच्छू दंश से दर्द से लोट रही थी. पिताजी घर पर नहीं थे. मुझे मौक़ा मिल गया. मैं बोला कि चलो मैं झाड देता हूँ. पिताजी के तामझाम की नक़ल पेश किया और उसका दर्द बहुत बघत गया. रातोरात मैं मशहूर हो गया और पिटा जी का भाव घट गया. हर दीवाली को मेरे हमउम्र मेरी जासूसी करते थे कि मैं कहीं मन्त्र जगाता होऊंगा. सातवीं-आठवी तक मैं उपब गया और लोगों को बता दिया कि मुझी कोई मन्त्र नहीं आता. मेरे पिताजी ने मुझसे कभी नहीं पूछा कि मुझे कहाँ से उनका मन्त्र पटा चला?? यानि कि उना भी मन्त्र मेरी ही तरह फरेब ही था. धर्म-कर्म/मन्त्र-तंत्र पर संदेह का और उन सब पर सावाल की यह शुरुआत थी. १३-१४ में जनेऊ तोड़ने तक मन्त्र-तंत्र और कर्मकांड का फरेब मेरी समझ में आ अग्या और तभी रात की ट्रेन से हास्टल से घर की यात्रा जिसमे ७ मील स्स्तेसन से पैदल का रास्ता था. रास्ते में पड़ने वाले सभी भूतों को चुनौती देता जाता था (गाली-गलौच के साथ) कोई मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाया और भूतों का भय खत्म. अगले ३-४ सालों की हर बात पर सावाल करते करते-नाश्तिकता की मंजिल तक पहुँचते पहुँचते सारे भगवानों की हकीकत समझ में आ गयी और उन काल्पनिक शक्तियों का भी भय खत्म हो गया.

पुष्पा जी कोई तीसरी शक्ति सिर्फ हमारी कल्पना में है. आप मीटिंग करवा दें तो अभी माँ लूंगा. सत्य वही जो प्रमाणित किया जा सके. पहले मैं मिंकी की बात का जवाब देना चाहता था कि भय कुदरती नहीं होता समाजीकरण का परिणाम है जससे तर्क-बुद्धि से मुक्ति मिलती है. ज्यादातर भय अमूर्त और अज्ञात होते हैं.. मैं अपनी एक कविता अभी खोजकर कापी पेस्ट करता हूँ.

लल्ला पुराण ७२

मनु महाराज ने औरत की आज़ादी के खतरों से सदियों पहले आगाह किया था. "बचपन में पिता के और विवाक के बाद स्वामी के और स्वामी की मृत्यु के बाद उसे पुत्रों के आधीन रहना चाहिए, किसी भी हालात में औरत आज़ाद नहीं रहनी चाहिए", उसके बाद तमाम "जाहिल चिन्तक" अलग अलग तरीकों से यही बात दुहराते आ रहे हैं. आज जब मौक़ा मिलते ही अपनी प्रज्ञा और प्रतिबद्धता से नारी आज़ादी की दावेदारी कर रही है तो सारा-का-सारा मर्दवाद बौखला गया है और तमाम लाक्स्मन रेखाएं खींच रहा है. बलात्कार जैसे जघन्य अपराधी की बदनामी  नहीं होती, बलकृत कलंकित हो जाती है जिसे बदनामी के डर से अपनी पहचान छिपानी पड़ती है. पैदा होते ही उन्हें समझाया जाता है कि तुम कमजोर हो. मैं तो अपनी छात्र्राओं को कहता हूँ भौतिक कमजोरी भी तमाम मिथों की ही तरह मिथ है, इसे तोडो, सहो मत प्रतिकार करो और देखो तुम्हारे अंदर कितनी ताकत है. मैं दो बेटियों का फक्र्मंद बाप हूँ, लेकिन तमाम बापों का बेटियों के लिये जो डर होता है वह मेरा सरोकार है.