सही है, सोते सिंह के मुंह में शिकार नहीं प्रवेश करता। दोनों वक्तव्यों के मंतव्य अलग हैं, फिर से सोचें। सिंह के उद्यम और श्रम में फर्क होता है। वैसे मार्क्स बहुत पढ़ाकू थे यह ग्रंथ उन्हें मिलता तो जरूर पढ़ते और आभारसहित उद्धृत करते। सासक वर्गों की हर दार्शनिक परंपरा की तरह वर्णाश्रम व्यवस्था में उत्पादक श्रम को हेय दृष्टि से देखा गया है तथा श्रमिकों की अवमानना की। पाश्चात्य दार्शनिक परंपरा में श्रम और श्रमिकों के प्रति अमानवीय अवमानना दिखती है। असमानता की सभी विचारधाराओं का प्रपितामह अरस्तू का मानना है कि दिमागी अभाव के चलते उत्पादक वर्ग उत्पादक श्रम करते हैं और श्रम करने से बचा-खुचा दिमाग भी कुंद हो जाता है। रूसो आम लोगों को इतिहास का पात्र बनाता है और मार्क्स पहले चिंतक हैं जो इतिहास के भविष्य के नायक के रूप में सर्वहारा की खोज करते हैं और श्रम को ऐतिहासिक युगों को जोड़ने वाली कड़ी और जीवन की आत्मा बताते हैं।
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