Thursday, April 30, 2020

बेतरतीब 73(पिताजी)

घुमक्कड़पन में मेरे पिताजी भी ऐसे ही थे लेकिन वे कभी नौकरी नहीं किए। कलकत्ता,, दिल्ली बंबई एक-दो बार जरूर गए हैं। दिल्ली में स्टेट्समैं ने गांव के लोग नौकरी करते थे तो वहां आने-जाने के दौरान आजादी के पहले किसी अंग्रेज रिपोर्टर से दोस्ती की कुछ कहानियां कभी बताते थे। ज्यादातर साइकिल से ही आते-जाते थे, 40-50 किमी की दूरियां भी। आपका गांव मेरे यहां से 40-45 किमी होगा लेकिन अक्सर जाते थे, रमापति चाचा भी साइकिल से ही अक्सर आते थे, किसी रिश्ते से उनके भाई लगते थे। आस-पास की सभी बाजारों में कुछ दूर-दराज जैसे कोलिसा, अतरौलिया, कप्तानगंज, शाहगंज, अहरौला आदि बाजारों में उनकी उधारी की दुकानें थीं। हम लोग भी बचपन में देर रात उनके लौटने के लिए देवी देवताओं से मनाते रहते थे। बाबा गरियाते रहते, उनके आते ही शांत हो जाते। इलाके में हम लोग अभी भी उन्हीं के नाम से जाने जाते हैं।

लल्ला पुराण 315 (हिंदू फल)

बिल्कुल आप किसी से कुछ खरीदने न खरीदने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन सब्जील को हिंदू-मुस्फलिम बनाने का यह अभियान एक सोची-समझी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिश के तहत चल रही है क्योंकि संघसंप्रदाय के पास हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से चुनावी ध्रुवीकरण के अलावा आर्थिक-सामाजिक समस्याओं से निपटने का कोई कार्यक्रम नहीं है, महामारी का सांप्रदायिककरण स्स्फूर्त नहीं है। चुंगी पर हिंदू फल की मेरी पोस्ट पर सारे भक्त टूट पड़े। इलाहाबाद के एक दोस्त द्वारा अपने एनजीओ के और चंदे से इकट्ठा फंड तथा मर्केंटाइल बैंक से कर्ज लेकर कौशांबी में हजारों बेआसरा लोगों को राशन बांटने की पोस्ट पर एक भी कमेंट नहीं क्योंकि उस दोस्त का नाम परवेज है। मठ के सन्यासी के टेस्ट के लिए शरीर ऑफर करने की पोस्ट पर 50-60 कमेंट थे। मर्दवाद की ही तरह सांप्रदायिकता कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि राजनैतिक विचारधारा है जो दैनंदिन क्रिया-कलापों और सामाजिक विमर्श में निर्मित पुनर्निर्मित किया जाता है। सारे मुसलमान गंदे हैं तो आप रोशन चाचा से राशन क्यों खरीदते हैं? फल और सब्जी में हिंदू-मुसलमान करना एक सुनियोजित अभियान है, बहुत लोग जिसके अनजाने में प्यादे बन जाते हैं। जिसे अपनी सब्जी रोज बेचनी है, वह सब्जी पर थूककर या मूत कर क्यों अपना धंधा चौपट करेगा? मुसलमानों के बारे में ऐसे बात की जाएगी जैसे वे भी हमारी तरह हाड़-मांस के इंसान न होकर किसी और ग्रह के अलग किस्म के जीव हों? मेरे बड़े भाई की यही हाल है, उनके मुसलमान दोस्त अलग हैं बाकी गंदे।

hermeneutics

All the texts are subject to varying interpretations. Interpretations of texts vary according to the perspective of interpreter. The civil wars in Europe beginning in the 17th century were on the issue of two interpretations of Bible. My interpretation of Gita would be quite different from Radha Krishnan's interpretation. Liberalism is political philosophy and political economy of Capitalism, my interpretation of Hobbes's philosophy or Adam Smith's political economy shall be different from any Liberal or rightists' interpretations. I had prepared a note on interpretation for my students, my things are quite hotch-potch after shifting, I'll look for it and share.

Wednesday, April 29, 2020

लल्लापुराण 314 (बट्टाखाता)

इस ग्रुप से मेरे 17-18 घंटे दूर रहने से लगभग सन्नाटा सा रहा, मैं भी काफी सुकून में रहा। मैं कई गंभीर लेख पोस्ट करता हूं जिन पर एकाध लाइक के अलावा कोई कमेंट नहीं आता, बाकी पोस्ट पर व्हाट्सअप विवि ज्ञान के कुछ विद्वान काफी कांव-कांव करते हैं वह भी अपनी मौलिक सोच से नहीं, आईटी सेल की प्रचारित, प्रचलित भाषा -- टुकड़े-टुकड़े गैंग, अवार्ड वापसी गैंग, तथाकथित सेकुलर, लिबरल, वामी कामी आदि -- शब्दावली में। दिमाग या तो खाली है या इस्तेमाल का कष्ट नहीं करना चाहते, लिखे पर बोलने की बजाय अलिखे का ताना देते हैं। एक पोस्ट धनपशुओं के बैंकों के कर्जमाफी पर डाला तो कुछ अर्थशास्त्री मेरे अर्थशास्त्र ज्ञान का मजाक उड़ाने लगे कि Write off करना (बट्टाखाते में डालना), कर्ज माफ करना नहीं होता। वैसे तो मैं राजनैतिक दर्शन के साथ राजनैतिक अर्थशास्त्र भी पढ़ाता और उस पर लिखता रहा हूं, लेकिन बट्टाखाते में डालने और कर्ज-माफी के संबंध समझाने के लिए, राजनैतिक अर्थशास्त्र के ज्ञान की नहीं, सहजबोध (Common Sense) की ही जरूरत है। मान लीजिए नागरिक न ने महाजन म से क रूपए ख% सालाना सूद वपर कर्ज लिया अ साल बाद न पर कर्ज सूद समेत ग रूपए हो गया। न ने कर्ज लौटाने से मना कर दिया। सूदखोर अपना पैसा आसानी से छोड़ नहीं सकता वह अपने लठैतों या भाड़े के गुंडों से न के बैल-भैंस खुलवा लेता है और बेच कर अपना कर्ज पूरा करता है। दूसरी स्थिति यह हो सकती है कि न इतना बड़ा बकैत है कि उसके बैल-भैंस खोलने की औकात नहीं होती। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि न पहले ही अपने बैल-भैंस बेचकर खा चुका होता है, उसके पास कुछ है ही नहीं जिसे कब्जियाकर म अपना कर्ज वसूल सके। दूसरी और तीसरी स्थिति में म दिल पर पत्थर रख कर अपना नुक्सान बर्दाश्त कर न का कर्ज बट्टाखाते में डाल (write off कर) देता है। मेहुल तो भगा दिया गया है, रामदेव-बालकृष्ण का फलता-फूलता धंधा है, ऋषिकेश से रुड़की तक सारी जमीनों पर कब्जा है, उसका कर्ज क्यों माफ कर (बट्टाखाते में डाल) दिया गया?

अंधभक्त कौन होता है? जो सरकार के हर काम या नीति का आंख बंद कर समर्थन करे और किसी भी आलोचना का ऐसे बौखलाकर विरोध करे जैसे वही सरकार हो। ऐसे ही लोगों की पोस्ट-कमेंट देख शायद डॉ. रामचंद्र शुक्ल (Ram Chandra Shukla) ने ग्रुप के बारे में लट्ठमार भाषा में राय दे दी थी जो भी सही नहीं था क्योंकि सीमित डाटा के आधार पर generalization उचित नहीं है।

इस पोस्ट के बाद कल तक फिर चुंगी से अवकाश। बुद्धिजीवी पर ग्राम्सी के विचार पर एक लेख पूरा कर लूं। कल के लिए मई दिवस पर दूसरा भी लिखना है।

Tuesday, April 28, 2020

लल्लापुराण 313 (धार्मिक समुदाय)

हर अपराध के औचित्य के लिए क्रिया-प्रतिक्रिया का फरेबी तर्क गढ़ा जाता है जैसे मोदी सरकार के किसी कुकृत्य के औचित्य के लिए 70 साल से नेहरू के पापों की प्रतिक्रया की बात की जाती है। 1400 साल का अत्याचार वैसा ही फरेबी तर्क है। बेनेडिक्ट अंडेर्सन की पुस्तक, Imagined communities: reflections on the origin and spread of nationalism पठनीय है। धार्मिक समुदाय एक इमेजिन्ड कम्युनिटी है जिसका अस्तित्व लगभग 100 साल पुराना ही है। जिस तरह समुदाय के रूप में राष्ट्र का सोसल कॉन्स्ट्रक्ट प्रिंट कैपिटलिज्म के साथ शुरू हुआ, उसी तरह धार्मिक समुदाय का कॉन्स्ट्रक्ट अपने देशी दलालों की मदद से सांप्रदायिकता के कॉन्सट्रक्ट के साथ शुरू हुआ। जातीय तथा उपजातीय काल्पनिक समुदायों की निर्मिति जातिवाद (ब्राह्मणवाद) की देन है। यदि मिश्राओं का कोई वास्तविक समुदाय होता तो हम दोनों एक वास्तविक समरस समुदाय के भाग होते। लेकिन मेरे तो सगे भाइयों का ही कोई समरस समुदाय नहीं है तो करोड़ों-लाखों के एक समरस समुदाय की कल्पना कैसे की जा सकती है? यही सवाल मैंने अपने बड़े भाई से पूछा था? दुर्भाग्य से हमारी शिक्षा पद्धति में अनलर्निंग की प्रक्रिया का कोई संस्थातम्क व्यवस्था है नहीं, खुद ही व्यवस्था करनी पड़ती है, कुछ लोग नहीं करते और वे सास्कृतिक रूप से वही बने रहते हैं, जिस रूप में 12वीं के बाद विश्वविद्यालय में आए थे। मुहावरे की भाषा में पीएचडी करके भी, जैसा एक बार एक सहकर्मी को कहा था, 'भूमिहार से इंसान नहीं बन पाते'।

Monday, April 27, 2020

लल्ला पुराण 312 (सनातन)

हर व्याख्या परिभाषा से ही शुरू होती है। होनी भी चाहिए। इसीलिए सनातन पर टिप्पणी परिभाषा से शुरू किया। राहुल सांकृत्यायन वैदिक सभ्यता के शौधजन्य समीक्षक है तथा ऋगवैदिक जीवन और संस्कृति की उनकी समीक्षा में प्रशंसा भाव दिखता है। उनकी पुस्तक की अनुशंसा आपके लिए नहीं है, उन लोगों के लिए है जिनकी वेदों की जानकारी कहासुनी आधारित है।यदि सनातन नूतन है तो सबकुछ सनातन ही है क्योंकि नवीन का भवन पुरातन के खंडहरों पर ही बनता है। मैं ज्ञानी तो हूं नहीं ज्ञान के निरंतर तलाश में हूं, आप जौसों से विमर्श से कुछ अर्जन होगा। भाग-2 (यदि और जब संभव हुआ) में उपनिषद, ब्राह्मण की लोकायत और बौद्ध समीक्षा की समीक्षा का प्रयास करूंगा।

लल्ला पुराण 311(सनातन)

राहुल जी के भाषा ज्ञान तथा शोध परिप्रेक्ष्य पर मुझे संदेह नहीं है, इसलिए मैं मैं उनके अनुवाद और व्याख्या को प्रामाणिक मानता हूं। ऋगवेद का जोर सार पर है उपनिषद का स्वरूप पर, स्वरूप का सार पर हावी होने का मतलब साध्य पर साधन की प्राथमिकता। सनातन का लक्षणात्मक-व्यंजनात्मक अर्थ भी गतिशीलता में जड़ता का प्रतिरोध ही होगा। परिवर्तन को ही साश्वत मानने वाले बौद्ध तथा लोकायत (चारवाक) परिप्रेक्ष्य को मैं सही मानता हूं। पॉजिटिविज्म पर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का प्रभाव है लेकिन वैल्यू-फ्री फैक्ट की मान्यता के चलते वह वैज्ञानिकता की मैकैनिकल अभिव्यक्ति है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है, ऐतिहासिक भौतिकवाद विज्ञान।

गोरे न्याय और काले न्याय का समाज

लगभग 28 साल पुराना लेख
रविवारी, जनसत्ता, 7 जून 1992
गोरे न्याय और काले न्याय का समाज
ईश मिश्र
करीब 500 वर्ष पहले कोलंबस ने अमेरिका की ‘खोज’ की थी। इसीलिए यह वर्ष अमेरिका में उस ‘खोज’ की पंच शताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है। लॉस एंजलिस की अदालत ने एक ‘दास वंशजं’ अश्वेत ड्राइवर के नागरिक अधिकारों की अवहेलना के आरोप से, कोलंबस के वंशज गोरे पुलिस कर्मियों को मुक्त करके इस अनुष्ठान में अपनी शिरकत दर्ज की तो भारी हिंसा फैल गई। न्यायधीशों के फैसले के अंतर्निहित तर्क शायद यह है जिनके पूर्वजों को जानवरों की तरह जंजीरों में बांध कर कोड़ों से हाँका जाता था। उन्हें लात – घूसें लगाना अन्यापूर्ण कैसे हो गया। एक ‘दास वंशज’ के नागरिक अधिकारों के नाम पर कोलंबस की ‘खोज’ के पंच शताब्दी वर्ष में उसके वंशजों को दंडित करके न्यायलय शायद इस वर्ष की गरिसा को कम नहीं करना चाहता था। धन्य था कोलंबस और धन्य है उसकी ‘खोज’। धन्य है दुनिया को मानवाधिकारों की नसीहत देने वाला अमेरिका और धन्य है उसकी नस्लवादी न्यायिक पंरपरा। पाश्चत्य प्रचारतंत्र भी कम धन्य नहीं है जो कोलंबस से शुरू हुई औपनिवेशिक सभ्यता का श्रेष्ठता साबित करने में एंड़ी-चोटी का जोर लगा देती है। संभव है कि ल़ॉस एंजेल्स के न्यायधीशों के नस्लवादी फैसले का या उसके विरोध में अमेरिका में भड़के नस्ली दंगों का अमेरिका की ‘खोज’ के 500 वीं वर्षगांठ से कोई सीधा संबंध न हो। यह भी महज संयोग हो सकता है कि यूरोपीय समुदाय ने साझा-बाजार की शुरूआत के लिए इसी वर्ष को चुना। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यूरोपीय-उपनिवेशवादी अतीत की गौरव-गाथा के रूप में मनाया जा रहा यह समारोह नस्लवादी पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों को मजबूत करने की भूमिका निभा रहा है। स्पेन के कार्डिज बंदरगाह से शुरू होकर कैरीबियन-तट से होते हुए अमेरिका और फिर लीवरपूल की ‘कोलंबस बेड़ा’ की यात्रा दास-व्यापार के जल मार्गों की याद दिलाती है। बर्सिलोना स्थित स्वतंत्रता की प्रतिमा के साथ ‘विवाह’ की घटना इतिहास के साथ भद्दा मजाक तो है ही, एशियाई, अफ्रीकी, लातिन अमेरिकी लोगों की स्वतंत्रता के लिए अपशुकन भी है। इस तरह के समारोह अमेरिका के औपनिवेशीकरण और शोषण का महिमा मंडन करते हैं।
यूरोप और अमेरिका में यूरोपीय श्रेष्ठता के इस समारोह के जवाब में ‘500 वर्षों का प्रतिरोध’ अभियान भी चलाया जा रहा है। यह अभियान किसी नाविक के ‘खोजी’ कारनामों के महिमामंडन की जगह, अमेरिका के औपनिवेशिक शोषण के विरूध्द वहाँ के अवाम के प्रतिरोध के इतिहास को रेखांकित करता है। यह ड़ॉमिनिकन गणराज्यों में 60 अरब डॉलर की लागत वाले ‘कोलंबस प्रकाश गृह के निर्माण से उल्लसित नहीं होता, बल्कि कोलंबस की प्रतिमा को समुद्र में फैंकने के हाइती सरकार के फैसले का स्वागत करता है। इस अभियान का उद्देश्य कोलंबस की ‘खोज’ के मिथ का पर्दाफाश करना है। शायद इसीलिए पंच शताब्दी मनाने में मशगूल पाश्चात्य बहुराष्ट्रीय मीडिया के लिए यह गौण विषय बना हुआ है।
पश्चिमी मीडिया एक ‘अश्वेत’ अमेरिकी नागरिक के मानवाधिकारों के हनन या न्यायालय द्वारा उसके उचित ठहराए जाने की घटनाओं को लेकर चिंतित नहीं हैं। उसकी चिंता अमेरिका में नस्ल-विरोधी अभियान की उग्रता को लेकर है। हाल के नस्ली दंगों को पूरी दशक की भयानकतम घटना के रूप में चित्रित करने के बाद डेली टेलीग्राफ के जाने-माने पत्रकार ए सुल्विन ‘सीमित साधनों और खतरनाक परिस्थितियों के बहाने दोषी गोरे पुलिस कर्मियों के अमानवीय कृत्यों को तो परोक्ष रूप से उचित ठहराते ही हैं, ‘अश्वेतों की स्वाभाविक’ अपराध वृत्ति पर जोर देकर ‘अमेरिकी न्याय प्रणाली में अंतर्निहित’ नस्लवादी अन्याय का भी औचित्य साबित करते हैं।
पिछले दिनों मुक्केबाजी के विश्व चैंपियन अमेरिकी नागरिक, माइक टाइसन अखबारों की सुर्खियों में छाए रहे। मुक्केबाजी के सिलसिले में नही, एक ‘अश्वेत सुंदरी’ के साथ बलात्कार के मुकदमे के सिलसिले में। ताकत को मुक्केबाजी की पर्तियोगिताओं तक ही तो सीमित रखा नही जा सकता। विडंबना यह है कि एक तरफ ‘विश्व सुंदरी’ प्रतियोगिता होती है तो दूसरी तरफ उसी रोम में ‘अश्वेत सुंदरी’ प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। दरअसल ‘अश्वेत सुंदरी’ शब्द अंतराष्ट्रीय उपभोकता संस्कृति में उसी तरह की एक विड़बना है जैसे हमारी ‘गौरवशाली’ पंरपरा में ‘गोरा हरिजन’ है।
कुछ वर्ष पहले अमेरिकी दूरदर्शन नेटवर्क के एक खेल उदूघोषक जिम्मी ‘द ग्रीक’ को इसलिए नौकरी से निकाल दिया गया था कि ‘नस्ली विशिष्टताओं’ की जो बातें श्वेतों की ‘निजी बैठकों’ में होती है, उनकी विस्तृत चर्चा वह दर्शकों से करने लगा था। बास्केट-बॉल टीम के खिलाड़ियों के ‘अश्वेत’ और प्रशिक्षको के ‘श्वेत’ होने के बारे में उसने कहा कि यदि प्रशिक्षक भी अश्वेत होने लगे तो टीम में श्वेतों के लिए कोई जगह ही नहीं बचेगी। अश्वेत खिलाड़ियों की दक्षता में उनकी ‘चौड़ी जांघों’ की भूमिका के महत्व को बताते हुए उसने दर्शकों के इतिहास का ज्ञान समृध्द करने उद्देश्य से कहा, ‘दास व्यापार के दौरान....मालिक अपने भारी-भरकम काले गुलाम को आनुपातिक कद-काठी की औरत के साथ रखता था जिससे तिजारत के लिए तगड़े गुलामों की पैदावार हो सके।
इतिहास की यह ‘जीव वैज्ञानिक समझ’ जिम्मी द ग्रीक जैसे खेल उद्घोषकों तक ही सीमित होती तो गनीमत थी। वाशिंगटन पोस्ट के जाने-माने उदारवादी पत्रकार रिचर्ड कोहेन ने ‘द ग्रीक’ की बर्खास्तगी की अनुचित ठहारोते हुए 1988 में शरीर संरचना के विव्दानों को घता बताते हुए ‘श्वेत जींस’ और ‘अश्वेत जींस’ का सिध्दांत प्रतिपादित कर डाला। कोहेन और सुलिवन सरीखे पत्रकार गोल-मटोल (सर्कुलर) तर्क के नियमों का पालन करते हैं। ये लोग पहले रंग-रूप कि विशिष्टता को नस्ल के रूप में परिभाषित करते हैं। और फिर उसी परिभाषा के माध्यम से नस्लीय भिन्नता प्रमाणित करते हैं।
इस तरह का कुतर्की जीव वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेल उद्घोषकों और पत्रकारों तक ही नहीं सीमित है। अमेरिकी सर्वोच्च न्यायालय और इतिहाकार भी इससे अछूते नहीं हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने मई 1987 में कुछ अरब और यहूदी अमेरिकी लोगों की नागरिक अधिकार कानून के तहत भेदभाव से राहत पाने की अर्जी पर विचार करते समय नस्ली न्याय की अद्भुत मिसाल पेश की। जनतंत्र में किसी के भी विरुध्द भेदभाव की मनाही के सिध्दांत के आधार पर फैसला करने की बजाय न्यायालय ने यह जानना चाहा कि अरब और यूहदी ‘काकेशियंन’ लोगों से नस्ली तौर पर भिन्न हैं? फिर फैसला किया कि अरब और यहूदी नागरिक कानून के तहत संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं, क्योंकि उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तक उन्हैं ‘नस्ली समूह’ के रूप में माना जाता था। उन्नीसवीं सदी के नस्ली अन्याय का समाधान, न्यायालय ने उन्हीं मान्यताओं को स्वीकृति देकर किया।
अमेरिकी इतिहास की एक प्रचलित पाठ्य पुस्तक में संविधान के एक अनुच्छेद की व्याख्या प्रतिनिधित्व और प्रत्यक्ष कर के मामलों में पाँच अश्वेतों को तीन श्वेत नागरिकों के बराबर बताया गया है। जबकि यह अनुच्छेद श्वेत और अश्वेत शब्दों की बजाय ‘स्वतंत्र व्यक्ति’ और ‘अन्य व्यक्ति’ (दास के लिए सम्मानजनक शब्द) की बात करता है। संविधान के अनुसार, मालिकों को अपने गुलामों की संख्या के 3/5 वें अनुपात में प्रतिनिधित्व का अधिकार और प्रत्यक्ष कर के उत्तरदायित्व प्राप्त थे। अमेरिका के संविधान निर्माताओं की विडंबना यह थी कि उनके एक हाथ में आजादी का परचम था और दूसरे में दास व्यापार के मुनाफे की थैली। 1776 में उत्तरी अमेरिका के उपनिवेश आजाद हुए थे, वहाँ के गुलाम नहीं।
ज्यादातर अमेरिकियों के दिमाग में यह बात घर कर गई है कि अश्वेतों के सभी कार्य विचार या बातें नस्ली होती हैं। इसीलिए वहाँ लेखक और ‘अश्वेत’ लेखक होते हैं। बुश और डुकाकिस राष्ट्रपति पद के उम्मीदार थे और जैक्सन अश्वेत उम्मादवार। सौंदर्य प्रतियोगिता के पीछे भी यही तर्क काम करता है। गृह युध्द के दौरान दास प्रथा समर्थक और विरोधी दोनों इसके लिए कोलंबस की विरासत को नहीं, बल्कि अफ्रीकी मूल के लोगों की नैसर्गिक कमियों को जिम्मेदार मानते थे। आज भी ज्यादातर इतिहासकार दास प्रथा की व्याख्या नस्ल संबंधों की व्याख्या के रूप में करते हैं, मानो इसका मुख्य उद्देश्य कपास, चावल, चीनी और तंबाकू का उत्पादन न होकर ‘श्वेत श्रेष्ठता का निर्माण था।
नस्लवाद दरअसल न तो जीव वैज्ञानिक गुण या प्रवृति है और ही कोई शाश्वत विचार जो इतिहास के साथ पीढ़ी दर-पीढ़ी चलता हुआ विरासत के रूप में मौजूद हो। नस्ल विचार नहीं, एक विचारधारा है, जो उपनिवेशवाद के एक खास ऐतिहासिक दौर में, दास श्रम के औचित्य के लिए गढ़ी गयी, दास प्रथा की समाप्ति के बावजूद विचारधारा के रूप नस्लवाद प्रकारांतर से अब तक कायम है। इस की उत्पत्ति ऐतिहासिक कारणों से हुई इसीलिए ऐतिहासिक कारणों से ही इसका अंत भी संभव है।
सत्रहवीं शताब्दी के दूसरे दशक में जब उत्तरी अमेरिका के अंग्रेज उपनिवेशवादियों को बर्जीनिया में तंबाकू उत्पादन की संभावनाओं का ज्ञान हुआ तो वहाँ अफ्रीकी दासों की संख्या नगण्य थी। वर्जीनिया तंबाकू का उत्पादन के अर्थतंत्र की रीढ़ थे अंग्रेज जाति के ही अनुबंधित मजदूर। इन नौकरों को गुलामों की ही तरह खरीदा-बेचा जा सकता था, चुराया या अपहृत किया जा सकता था, जुए में दाव पर लगाया जा सकता था या उपहार में दिया जा सकता था। उनके साथ गुलामों सा ही बर्बरता का व्यवहार होता था। उनकी स्थिति अफ्रीकी गुलामों से इस मायने में बेहतर थी कि उनकी संतानें इस अभिशाप से मुक्त थीं और कई भाग्यशाली अनुबंध की अवधि के बाद भी जिंदा बच जाते था। कौन नहीं जानता कि प्राचीन यूनान और रोम में दास-स्वामी संबंध का निर्धारण रंग के आधार पर नहीं होता था। अंग्रेजों जैसी गोरी चमड़ी के बावजूद आयरिश जनता पर अंग्रेज उपनिवेशवादियों के बर्बर दमन चक्र आज भी जारी हैं। अफ्रीकी और अमेरिकी मूल के (लोगों रेड इंडियन) के दमन में भी उपनिवेशवादियों ने ‘बर्बरता’ के उसी तर्क का इस्तेमाल किया, था। हिटलर के गैस चैंबरों में घुट-घुट कर मरने वाले यहूदियों और जिप्सियों के अलावा जर्मन जाति के ही कम्युनिस्ट एंव राजनैतिक विरोधी थे। दमन रंग-रूप की भाषा नहीं समझता, वह सिर्फ प्रतिरोध की भाषा समझता है।
1660 के पहले अफ्रीकी दासों की संख्या बहुत कम थी क्योंकि उस समय तक अंग्रेज अनुबंधित नौकर दास से सस्ते पड़ते थे। इसलिए तब तक एक प्रणाली के रूप में दास प्रथा का विकास नहीं हो सका था। औपनिवेशिक अर्थतंत्र के बदलते समीकरण के तहत अफ्रीकी मूल के दासों की संख्या के साथ दास प्रथा के संस्थागत ढ़ाचे की जरूरत महसूस हुई और उनका औचित्य स्थापित करने के लिए विचारधारा के रूप में नस्लवाद की। लॉस एंजलिस से शुरू हाल के उग्र नस्ल विरोधी अभियान को लंबे ऐतिहासिक संबधों की कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए इसीलिए संभव है कि कोलंबस की ‘खोज’ की पंचशताब्दी वर्ष में शुरू किया गया ‘500 वर्ष का पर्तिरोध’ अभियान रंगभेद-विरोधी चेतना का प्रतीक बन कर नस्लवाद विरोधी संर्धष को निर्णायक दौर तक पहूँचा दे।

Sunday, April 26, 2020

सनातन 1



कुछ मित्र अक्सर ऐसे ही सनातन और उसकी सर्वग्राह्यता, सार्वभौमिकता, सामासिकता, सर्वांगीणता आदि की बात करते हैं तथा उसे नौवीं-दसवीं शताब्दी में अरबों द्वारा सिंधु क्षेत्र की भौगोलिक पहचान के लिए ईजाद किए गए शब्द हिंदू से जोड़ते हैं तथा भौगोलिक अस्मिता को धार्मिक अस्मिता में तब्दील कर देते हैं। सनातन का शाब्दिक अर्थ, मेरी समझ से अनादि काल से चला आ रहा चिरस्थाई तत्व होता है। अनादि काल कब से माना जाए बहुत जटिल सवाल है। हमारे खास संदर्भ में ऋगवैदिक काल को अनादि का शुरुआती विंदु माना जा सकता है। इस काल का शोधपूर्ण प्रामाणिक विवरण राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति, 'ऋग्वैदिक आर्य' में मिलता है। लेकिन चिरस्थाई कुछ नहीं होता। परिवर्तन की निरंतरता प्रकृति (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद) का एक नियम है इसलिए चिरस्थाईपन यथार्थ का विलोम है। एकमात्र चिरस्थाई तत्व परिवर्तन है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक, हेराक्लिटस ने सही कहा है कि आप उसी नदी को दुबारा नहीं पार करते। वैदिक काल ईशा पूर्व 11वीं-10 वीं शताब्दी तक माना जाता है, फिर औपनिषदिक काल शुरू होता है। तीसरी सदी ईशा पूर्व तक 3 वेद ही थे चौथा उसके बाद का है।अर्थशास्त्र कौटिल्य की शिक्षा के सेलिबस में त्रयी (तीन वेद) का ही जिक्र है। उत्तर वैदिक (औपनिषदिक) काल तक जन्मजात वर्णाश्रम व्यवस्था (ब्राह्मणवाद) संस्थागत हो चुका था, जीवन पद्धति में कर्मकांडी वर्चस्व स्थापित हो चुका था। बुद्ध का विद्रोह इसी वर्चस्व के विरुद्ध था।

औपनिषदिक स्वरूप के आने से सनातन का मूल स्वतः उन्मूलित हो गया। ज्यों ही स्वरूप प्रधान हो गया वांछनीय कर्तव्य के रूपमें परिभाषित धर्म का सनातनी सारतत्व दबकर अर्वाचीन बन गया । स्वरूप ही लक्ष्य बन जाये तो धर्म (दार्शनिक जीवन पद्धति) रूढ़ि बन जाता है, धर्म नहीं रह जाता। विवेकानंद की हिंदू होने पर ही गर्व की घोषणा में हिंदु का उनका आशय शंकर और रामानुज के अद्वैतों का उनका संश्लेषण था!

"सारतत्व में एकता रहती है इसलिए वह संघर्ष से परे होता। एकता से प्रेम का बोध होता है प्राणिमात्र के साथ प्रेम। अद्वैत का सार भी इसी एकत्व के ज्ञान की बात करता है। ज्यों ही सार को स्वरूप प्रदान करने के लक्ष्य में तब्दील किया जाता है निश्चित ही वह किसी वर्चस्व के खेल का हिस्सा हो जाता है"। बौद्ध दर्शन के साथ भी वही हुआ "जब सार की जगह तर्कपद्धति के स्वरूप ने ले लिया" तो पतनशील और अधोगामी हो गया। कुछ सौ सालों आगे पुष्यमित्र के साथ शुरू बौद्ध संस्कृति के विरुद्ध हिंसक प्रतिक्रांति की दार्शनिक पुष्टि के लिए बौद्धिक दुनिया में पौराणिक काल शुरू हुआ जिसका जोर हमेशा वर्चस्ववादी, कर्मकांडी स्वरूप पर ही रहा और कभी भी उन्नतिशील नहीं बन सका और इस्लाम के अनुयायियों के हाथों पराजित हुआ। यूरोप के अंधकार युग का दौर हमारे भी अंधकारयुग का ही दौर था। यूरोप में नवजागण से अंधकार खत्म होना शुरू हुआ और प्रबोधनक्रांति से नया युग शुरू हुआ। हमारे यहां कबीर के साथ शुरू नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका तथा प्रबोधन क्रांति की संभावनाएं औपनिवेशिक हस्तक्षेप से समाप्त हो गयीं।

नोट: समयाभाव में दूसरे पैरा के बाद लंबी छलांग लग गयी, कभी फुर्सत मिली तो बीच की दूरी का वर्णन किया जाएगा।
(भाग-2 फिर कभी पार्थिव व्यस्तताओं से फुर्सत मिलने पर...)

ईश्वर विमर्श 94 (भ्रांति)

कुछ संयोग ऐसे हो सकते हैं, जिनसे किसी अलौकिक शक्ति का बोध हो। दर-असल विभिन्न परिस्थितियों में अज्ञात के भय औक उत्कंठा से मनुष्य ने अलौकिक शक्ति की अवधारणा का निर्माण किया इसीलिए उसका चरित्र और स्वरूप देश-काल के अनुसार बदलता रहता है। पहले ईश्वर निर्बल और असहाय की मदद करता था, अब सामाजिक डार्विनवाद के तहत सक्षम की। God helps those who help themselves. मुझे किसी की आस्था से कोई परेशानी नहीं है, मेरी पत्नी समर्पित आस्तिक हैं। रोज घंटों पूजा करती हैं तथा दुर्गा जी से कोरोना के विनाश के चमत्कार की प्रार्थना रोज करती हैं। दुखों से परिपूर्ण दुनिया में अलौकिक शक्ति की आस्था दुखों से लड़ने के संबल की भ्रांति देती है। वास्तविक संबल मिलने तक भ्रांति को खत्म नहीं किया जा सकता।

फुटनोट 284 (मजरूह)

मजरूह एक क्रांतिकारी शायर थे, 1950 में टेक्सटाइल मजदूरों ने काम की अमानवीय हालात में सुधार व जीने लायक मजदूरी के लिये हड़ताल की।प्रगतिशील फिल्मी कलाकारों, लेखको और कवियों ने हड़ताल का खुलकर समर्थन किया। मजरूह ने हड़ताली मजदूरों की सभा में नारेबाजी के तौर पर एक कविता पढ़ी। बंबई के तत्कालीन गवर्नर मोरारजी देसाई ने कम्युनिस्ट हव्वे से आतंकित हो बलराज शाहनी और मजरूह समेत कई लेखक-कलाकारों को जेल में बंद कर दिया। सबके सामने माफी मांगर कर छूटने की शर्त रखी गयी थी। किसी ने माफी नहीं मांगी, मजरूह ने कहा कि कोई भी जवाहर उनके कलम से बड़ा नहीं है। नेहरू को इसका पता बहुत बाद में चला जो उनके बड़प्पन में कमी की एक मिशाल बन गयी। मजरूह के कलम की आजादी के जज्बे को सलाम। क्रांतिकारी न झुकता है, न टूटता है, जीतने के जज्बे के साथ लड़ता है। हार-जीत तमाम कारकों पर निर्भर करती है, महत्वपूर्ण है लड़ाई की गुणवत्ता।

मन में ज़हर डॉलर के बसा के,
फिरती है भारत की अहिंसा.
खादी की केंचुल को पहनकर,
ये केंचुल लहराने न पाए.
ये भी है हिटलर का चेला,
मार लो साथी जाने न पाए.
कॉमनवेल्थ का दास है नेहरू,
मार लो साथी जाने न पाए.

मजरूह सुल्तानपुरी को विनम्र श्रद्धांजलि।

फुटनोट 283(गणित)

गणित के ज्यादातर शिक्षकों को गणित पढ़ाने नहीं आता, वे फॉर्मूला रटाकर एक रोचक विषय को अरुचिकर बना देते हैं। मैं कभी फार्मूला रटाता नहीं था, उसकी उत्पत्ति सिखाता था। मैं जब स्कूल में था तो किसी के गणित में फेल होने की बात से आश्चर्य में पड़ जाता था कि इतने सरल और तार्किक विषय में कोई कैसे फेल हो सकता है? बच्चों का दिमाग तेज और गतिशील होता है एक बार concept clear हो जाए तो सवाल वे खुद कर लेंगे। मैं अपने स्टूडेंट्स को कहता था To solve the problem is your problem. और वे कर लेते थे, कभी कभी को छोड़कर। पहली क्लास में उन्हें जो कुछ बताता था, उनमें एक बात हर साल -- Mathematics is that branch of knowledge, which trains our mind for clear thinking and reasoning.

Saturday, April 25, 2020

बेतरतीब 72 (गणित की रोजी)

1973 में पिताजी से पैसा लेना बंद किया। तबसे 1985 तक गणित से रोजी-रोटी चली। 1976 में आपात काल में भूमिगत रहने की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आया तो लगा गणित जानने वाला किसी शहर में भूखो नहीं मर सकता। जिसके पास भी स्कूल जाने वाला बच्चा है और पैसा है, उसे गणित का ट्यूटर चाहिए ही। की 1985 में डीपीएस छोड़ते समय तय किया कि जब तक भूखो मरने की नौबत नहीं आती गणित का इस्तेमाल आमदनी के लिए नहीं करूंगा। कुछ बड़े राीजनैतिक राजघरानों से भी ऑफर आए, लेकिन गणित से रोजी कमाने की मजबूरी नहीं हुई। ज्ञानी जी राष्ट्रपति थे तो उनके पोते को 5-6 दिन राष्ट्रपति भवन में पढ़ाया। बहुत मुश्किल से बच्चे और उसके पिता तथा ज्ञानी जी को राजी किया कि बच्चे के लिए गणित की बजाय फीजिकल एजूकेसन बेहतर होगा। आर्थिक मोंर्चे पर समझौता न करने का यह मेरे पास रिजर्व हथियार था। मित्रों के बच्चों के फंडे मुफ्त में क्लीयर कर देता था। डीपीएस औ के लेबेल के साथ गणित के कोचिंग मार्केट में जब भी झोंक देता तो घर आराम से चलता। लेकिन कलम की मजदूरी से घर चल गया। 1981-82 में बहुत सिफारिश के साथ 200 रु. घंटे लेता था जब लेक्चरर की तनखाह 1500-1600 होती थी। यहां तो माल नहीं ब्रांड बिकता है। डीपीएस के गणित और फीजिक्स, कॉमर्स के टीचर सब तब करोड़पति थे। लेकिन पैसा, जो हम अपने बच्चों को नहीं पढ़ाते, जीवन का साधन है, साध्य नहीं। साधन साध्य बन जाए तो जीवन नष्ट। 85-90 साल के लोगोंको भी जब संचय में सारी ऊर्जा खर्चते देखता हूं तो दया आती है। एक ही जीवन है, हम जीने के लिए कुछ-न-कुछ कर ले रहे हैं, बच्चे भी कर लेंगे। वैसै भी अवधी में कहावत है (और भाषाओं में भी होगी), 'पूत सपूत त का धन संचय, पूत कपूत त का धन संचय?' कोई कोई लेक्चर के लिए बुलाता रहता है। फरवरी-मार्च में मुजफ्फरपुर, रांची और हैदराबाद गया। किराया-भाड़ा सब दे देता है। अप्रैल में फ्रैंकफर्ट और द हेग जाना था कोरोना ने गड़बड़ कर दिया। लाक डाउन में यूनिवर्सिटी बंद हो गयी नहीं तो मार्च में पेंसन अप्रूव हो गयी होती, हो ही जाएगी देर-सबेर, खर्च के लिए पर्याप्त है। बहुत ही सौभाग्य से देर से ही सही नौकरी मिल गयी थी।राजनैतिक दर्शन और राजनैतिक अर्थशास्त्र पर एक एक टेक्स्टबुक की योजना है, दिमाग ठीक से काम किया तो शायद हो जाए। कुछ-कुछ पहले से लिखा हुआ है। एक बार (2007 में) उड़ीसा केकिसी आंदोलन के चक्कर में किसी बड़े पूंजीपति से बिकने का ऑफर आया लेकिन मैं बिककर करता क्या? यह कहानी फिर कभी। जिन चंद मित्रों को पता चला, उन्होंने मेरी 'मूर्खता' का मजाक उड़ाया।

1973 में कंप्टीसन न देने का तय कर लिया था। रात में पिताजी से इस पर बहस हुई थी। सुबह खेत में धान की रोपाई हो रही थी, पिताजी से पैसा लेने गया। पिताजी पैसा देने के पहले खूब भाव और भाषण देते थे। मैंने कहा इलाहाबाद जा रहा हूं, बोले जाओ। मैंने वहम करके कहा पैसा? बोले 'इहां तो जरई होथ, पैसा कहां'?। एक झटके में सोच लिया कि जो भी हो अब पिता जी से पैसा नहीं लूंगा। पहला काम पार्टटाइम प्रूफरीडिंग का किया था। ब्वायज हाई स्कूल के सामने एक अखबार, देशदूत का दफ्तर था। अब वहां जागरण है। फिर तो गणित जिंदाबाद।

फुटनोट 382 (नेहरू-निराला)

नेहरू में आलोचना का सम्मान करने का बड़प्पन था। निराला 'क्यों बे गुलाब....' तथा 'यदि होता लखपतिकुमार......' लिखते थे. नेहरू इलाहाबाद में पुरुषोत्तम दास टंडन पार्क की मीटिंग में सारे प्रोटोकोल तोड़ मंच से उतरकर किनारे पुलिस वालों से संघर्ष करते निराला तक पहुंच कर उन्हें मंच पर ले जाते हैं (कानो सुनी) तथा निराला की आर्थिक सहायता के लिए प्रयाग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष को हस्तलिखित पत्र भेजते हैं। इस हिदायत के साथ कि सहायता राशि महादेवी वर्मा को दी जाए। (आंखों देखी)।

फुटनोट 381 (नेहरू-निराला)

दिनकर की पुण्यतिथि (कल) की एक पोस्ट पर किसी ने कमेंट किया कि नेहरू दिनकर को राज्य सभा में लाए लेकिन दिनकर फिर भी नेहरू की आलोचना करते थे। उस पर आलोचना के सम्मान के नेहरू के साहस पर यह कमेंट लिखा गया। नेहरू और निराला के बारे में इलाहाबाद में कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। एक है कि अंतिम सालों में निराला विक्षिप्त रहते थे और देशी शराब पीते थे, नेहरू की मीटिंग की खबर सुनकर पहुंच गए लेकिन पुलिस वाले उनके साथ हाथापाई कर रहे थे, नेहरू की निगाह पड़ी और वे मंच से उतरकर निराला के पास पहुंच गए। तीनमूर्ति लाइब्रेरी मेंं नेहरू के प्राइवेट पेपर्स में निराला की सहायता के लिए प्रयाग साहित्यसम्मेलन के अध्यक्ष को हाथ से लिखी नेहरू की चिट्ठी है।

Friday, April 24, 2020

लल्ला पुराण 311 (भीड़ हिसा)

साधुओंके परिवार हैं कि नहीं, उनको कितना मिला यह तो आप महाराष्ट्र और केंद्र सरकारों से पूछे। अखलाक के हत्यारे जमानत पर छूट गए और योगी सरकार ने उन्हें एनटीपीसी में नौकरी दिला दी, एक हत्यारा जेल में मर गया उसे केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा नेताओं ने तिरंगे में लपेट कर शव यात्रा निकाला, जिस इंस्पेक्टर ने अऱलाक के हत्यारों को गिरफ्तार किया उसे बजरंगदल द्वारा इकट्ठी की गयी अफवाहजन्य हिंसा में मार दिया गया। साधुओं को मारने के पीछे वही मोटिव या मोटिव विहीनता थी जो महाराष्ट्र. आसाम और झारखंड में चोरी और बच्चाचोरी की अफवाह जन्य भीड़ हिंसा में मासूमों की हत्याओं के पीछे थी। भीड़ हिंसा पर सेलेक्टिव प्रतिक्रिया देने वाले सभी साधुओं की हत्या के जिम्मेदार हैं। थोड़ा कष्ट करके छोटा सा लेख है पढ़ लीजिए तो मेरे विचार समझ आ जाएंगे। लाक डाउन में साधू वहां पहुंचे कैसे तथा उस गांव की भाजपाई मुखिया से पूछना चाहिए कि इतनी भीड़ कैसे जुटी और इतनी हिंसक कैसे हुई? मेरे लिए मौत मौत में फर्क नहीं है, अखलाक, पहलू, या इंस्पेक्टर सुबोध की मौतें उतनी ही दर्दनाक हैं जितनी साधुओं की, मोत मोत में फर्क करने वाले उतने ही दुर्दांत अपराधी हैं जितने साधुओं के हत्यारे। एक हत्या का जश्न मनाने वालों का दूसरी हत्या पर आंसू बहाना उनके चरित्र का दोहरापन दिखाता है।

इंस्पेक्टर सुबोध की हत्या इसीलिए की गयी कि उसने अखलाक के हत्यारों के पकड़ा था। आप के अंदर कुछ करने का दम नहीं है कि सब काम मैं करूं? हमने महाराष्ट्र के गृहमंत्री का ट्वीट शेयर किया है जिसमें उसने कहा है कि साधुओं की हत्या का मामला सांप्रदायिक नहीं है, मैंने अपनी बात लेख में लिख दी है लेकिन हिंदू मुस्लिम का भजन गाने वाले फिरकापरस्तों में पढ़ने की आदत होती नहीं, अफवाह ही फैलाते हैं। हम तो कह रहे हैं साधुओं की हत्या अफवाहजन्य भीड़ हिंसा की कड़ी है। हम तो हर अफवाह फैलाने वालों से अपील कर रहे हैं, सब से सवाल कर रहे हैं? आपकी जबान में कुछ दिक्कत है क्या कि आप महाराष्ट्र और केंद्र सरकारों से सवाल नहीं कर सकते कि मैं करूं? आप ही बताइए किसने मारा साधुओं को? मेरे पास जांज एजेंसी तो है नहीं कि आपके आदेश का पालन करते हुए बताऊं किसने मारा साधुओं को? इतनी जहालत का सवाल क्यों करते हैं? कभी कभी पढ़े-लिखों की तरह बात किया कीजिए। सादर।

लल्ला पुराण 310 (तुष्टीकरण)

तुष्टीकरण एक शगूफा है जो संघ परिवार 95 साल से भजन की तरह गाता आ रहा है, लोग बिना दिमाग लगाए उसी को दोहराने लगते हैं। चुनावी जनतंत्र में जहां संख्याबल निर्णायक भूमिका निभाता है, सभी दल बहुसंख्यक तुष्टीकरण करते हैं। 70 सालों में मुस्लिम तुष्टीकरण हुआ होता तो शिक्षा, शासन, प्रशासन, राजनीति में वे अपनी आबादी के अनुपात से अधिक नहीं तो उतना प्रतिनिधित्व तो पाए होते? सभी क्षेत्रों में उनका प्रतिनिधित्व दयनीय है। संघ परिवार तो अपनी स्थापना से ही हिंदू-हिंदू करता आ रहा है, मुलायम मुजफ्फरनगर दंगों में जाट वोटों के चक्कर में मोदी से मिलीभगत करते हैं, अखिलेश खुद को योगी से बड़ा राम भक्त घोषित करते हैं तो राहुल गांधी मंदिरोंकी परिक्रमा करते हैं तथा उनके चमचे उनका जनेऊ दिखाते फिरते हैं। अडवाणी शिलापूजन शुरू करते हैं तो राजनैतिक अशिक्षित राजीव गांधी मस्जिद का ताला खुलवा कर चबूतरे के लिए जमीन अधिग्रहीत करते हैं और मेरठ-मलियाना-हाशिमपुरा करवाते हैं। लेकिन लोग दिमाग लगाने की आदत छोड़ चुके होते हैं, तुष्टीकरण का भजन शुरू कर देते हैं।

18.04.2020

मार्क्सवाद 217 (अमीरी-गरीबी)

अमीर अमीर कैसे हुआ और कैसे गरीब गरीब हुआ?
यह तो एक घंटे के क्लास का प्रश्न है, संक्षेप में, पूंजीवाद ने श्रमिक को श्रम के साधन से मुक्त कर दिया जिसके चलते आजीविका के लिए हर व्यक्ति को श्रमशक्ति बेचना पड़ता है,श्रम शक्ति को खरीदने वाला परजीवी श्रमिक के श्रम शक्ति के उत्पाद का उल्लेखनीय हिस्सा अतिरिक्त मूल्य के रूप में हड़प लेता है और अमीर होता जाता है और श्रमिक अपने श्रम के उत्पाद का छोटा हिस्सा मजदूरी के रूप में पाकर जीवनयापन करता है। मेरे एक करीबी रिश्तेदार हैं, पेशे से डॉक्टर हैं पहले डॉक्टरी करते भी थे और शुरुआती नाम उसी से कमाए। बाद में एक स्कूल से शुरू करके कई स्कूल शुरू कर दिए। फर्जी मेडिकल सर्टीफिकेट बनाने के अलावा एक धेले का काम नहीं करते और लाखों कमाते हैं, उनके स्कूल में 10-12 या 15 हजार में मास्टरी करने वाला पढ़ा-लिखा मजदूर किसी तरह जीवन यापन करता है। बेटे पढ़े-लिखे नहीं, लोफर निकल गए, भ्रष्ट नेताओं और अधिकारियों की कृपा से सरकारी ठेकेदारी करते हैं और बाप की ही तरह बिना एक कौड़ी का श्रम किए अच्छी आमदनी करते हैं। मेहनत करने वाला मजदूर गरीब रहता है और उनकी मेहनत हड़पने वाला स्कूल का मालिक या ठेकेदार अमीर हो जाते हैं। बाकी फिर कभी। पोलिटिकल इकॉनमी के सिद्धांत और इतिहास पर किताब लिखने की कोशिस कर रहा हूं।

18.04.2020

Thursday, April 23, 2020

मार्क्सवाद 216 (संप्रभुता)

राजशाही में संप्रभुता राजा में निहित होती थी, आधुनिक समय में इंग्लैंड में संप्रभुता संसद में तथा भारत और अमेरिका जैसे देशों में संविधान में निहित है। कौटिल्य की 7 अंगों के निकाय के रूप में में राज्य की परिभाषा (सप्तांग सिद्धांत) राज्य की आधुनिक परिभाषा के बहुत करीब है तथा उसका विस्तारित रूप है। संप्रभुता 'स्वामी' में निहित है, दंड (सेना) राज्य का एक अंग है। सब अंग हैं -- स्वामी, आमात्य (नौकरशाही), जनपद (आबाद क्षेत्र), दुर्ग, कोष, दंड एवं मित्र (सहयोगी राज्य)। जनता डंडा न उठाए (क्रांति न करे), इसलिए उनका राज्य एक तरह से कल्याणकारी राज्य है, 'प्रजा का हित ही राजा का हित है'। जनता जब एक वैचारिक स्पष्टता के साथ, संगठित होकर डंडा उठाती है तो क्रांति होती है, अन्यथा अराजकता। भीड़ हिंसाएं जनता के डंडे की अराजकता की मिशालें हैं।

मार्क्सवाद 215 (सामाजिक चेतना का जनवादीकरण)

एक छात्र-मित्र ने अपने इलाके में भट्ठा मजदूरों के शोषण के खिलाफ संघर्ष के बारे में कुछ सवाल पूछा--
"1-सर पूंजीपति मजदूरों का शोषण करते हैं तो उनके खिलाफ एक छात्र आवाज कैसे उठा सकता है?
2- मजदूरों मे जागरूकता कैसे आयेगी?
3- मजदूर चाहकर भी उनका विरोध नही कर पाता क्योंकि उनकी रोजी-रोटी उन्हीं पर निर्भर रहती है|मजदूर यदि उनका विरोध भी करदे तो अन्त रोजी-रोटी के लिए उन्हीं के पास जाना होगा|
4- इन पूंजीपतियों से लड़ने की रणनीति क्या होगी?

यह बात मै इसलिए पूछ रहा हूं कि मेरे एरिया मे भट्ठा मालिक मजदूरों का खूब शोषण करते हैं|"

छात्र ही बदलाव की अगली कतार में रहा है, वह किसी भी अन्याय के खिलाफ आवाज उठा सकता है और जनमत तैयार कर सकता है और करना चाहिए तथा अन्याय के खिलाफ मजदूरों के आंदोलन में शरीक हो सकता है और होना चाहिए।

राजनैतिक शिक्षा और साझे हितों के आधार पर साझे संघर्षों में संगठित शिरकत के दौरान साझे हितों और साझे दुश्मन की पहचान के जरिए वर्गचेतना के संचार से मजदूरों में जागरूकता आएगी -- यानि सामाजिक चेतना के जनवादी करण से। भारत में श्रम विभाजन के साथ श्रमिकों में जाति-धर्म के आधार पर श्रमिक विभाजन भी है। जाति-धर्म की मिथ्या चेतनाओं से मुक्ति, वर्ग चेतना के लिए आवश्यक है।

पूंजीवाद ने श्रनिक को श्रम के साधन से मुक्त कर दिया है जिन पर परजीवी धनपशुओं का कब्जा है। श्रमिक आजीविका के लिए धनपशुों को श्रमशक्ति बेचने को अभिशप्त है। धनपशु श्रमशक्ति के उत्पाद का उल्लेखनीय हिस्सा अतिरिक्त मूल्य (सरप्लस वैल्यू) के रूप में हड़प जाता है। मजदूर को संगठित संघर्ष के जरिए इस शोषण को कम-से-कम करने की कोशिस करनी चाहिए। बेरोजगारों की फौज मजदूर की मोलभाव की ताकत कम करती है। मजदूर को इन्हीं विषम परिस्थियों में आजीविका कमाते हुए क्रांतिकारी स्थितियां पैदा करनी है। क्रांतिकारी बुद्धजीवियों की जिम्मेदारी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में योगदान करना है।

भट्ठा मजदूरों को संगठित होकर काम की परिस्थितियों में सुधार और मजदूरी में वृद्धि की मांग करनी होगी।

लल्ला पुराण 309 (जन्म की अस्मिता)

जन्म की अस्मिता के जीववैज्ञानिक परिघटना के परिणाम की कहावत एक ऐतिहासिक तथ्य है। चाचाओं का मां को लेकर मजाक मर्दवादी (पित्रृसत्तात्मक) समाज के संस्कारों की उपपत्ति है जो विचारधारा के रूप में मर्दवाद के अंत के साथ समाप्त होगी। किसी का किसी खास जगह (देश, क्षेत्र, जाति, कुल या धर्म में) पैदा होने में किसी का कोई हाथ नहीं है, बल्कि एक जीववैज्ञानिक संयोग है। इसी लिए कुल, जाति, धर्म आदि के आधार पर समरूप, सामुदायिक प्रवृत्ति का अन्वेषण अवैज्ञानिक है तथा मिथ्या चेतना का परिणाम। सादर।

Wednesday, April 22, 2020

लल्ला पुराण 308 (जेएनयू)

इस ग्रुप में एक सज्जन ने एक पोस्ट डाला कि एक हिंदू प्रोफेसर जेएनयू से पीएचडी करके कम्युनिस्ट बन गए और मुसलमान वहां जाकर जमाती-तबलीगी बन जाते हैं, उस पर कमेंट:
जेएनयू में संघी भी हैं, वदां के तर्क और विवेक के माहौल में कई अंधभक्त भी विवेकशील हो जाते हैं। मेरे जैसे लोग इलाहाबाद से ही नास्तिक, मार्क्सवादी और हिंदू(बाभन) से इंसान बन कर जेएनयू जाते हैं। कुछ लोगों के दिमाग में हिंदू-मुसलमान का जहर इस कदर भरा होता है कि खबरें देवलोक से आयात करते हैं। मेरे जानने वाले जेएनयू में जितने मुसलमान हैं ,सब जमाती-तबलीगी टाइपों के कट्टर दुश्मन और ज्यादातर कम्युनिस्ट हैं। इलाहाबाद के जितने हैं सब पार्टी मेंबर। प्रो. अली जावेद सीपीआई के पार्टी होल्डर और प्रगतिशील लेखक संघ का सेक्रेटरी है, इवि में और जेएनयू में भी मेरा सीनियर था। फरहत रिजवी सीपीआई में है। जितने इलाहाबादी गैर मुस्लिम है नए लड़के लड़कियों में एकाध लआइसा वगैरह में हैं, मैं पार्टीविहीन हूं, राज्यसभा सासंद डीपी त्रिपाठी (दिवंगत) एनसीपी में थे। चुंगी के सक्रिय सदस्यों में ज्यादातर फिरकापरस्त सवर्ण मर्द जरूर हैं, कुछ के पास तो लगता है हिंदू-मुसलमान का जहर फैलाकर सामाजिक प्रदूषण के प्रसार के अलावा कोई काम ही नहीं है। इस पोस्ट और इस पर कमेंट्स में सांप्रदायिक दुराग्रह, विद्वेष, चरित्रहनन की भावना और कुंठा झलकती है। सादर।

पुनश्च: लखनऊ का एक लड़का था नवाब अली वारसी, सीपीआई में इलाहाबादी ज्यादातर शिया थे, तो मजाक करता था. 'जब से मालुम हुआ खुदा सुन्नी था, सारे शिया कम्युनिस्ट हुए जाते हैं।'

भीड़ हिंसा


भीड़ हिंसा
ईश मिश्र

मार्टिन नीम्वैलर (1892-1984) ने जर्मनी में नाज़ी शासन के अंतिम 7 साल यातना शिविरों में बिताए, वे पेशे से प्रोटेस्टेंट पादरी थे तथा प्रथम विश्वयुद्ध में जर्मन नेवी में रह चुके थे। उनकी निम्न सुविदित पंक्तियां आज भी चर्चित हैं :


पहले उन्होंने समाजवादियों को पकड़ा
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं समाजवादी नहीं था
फिर उन्होने ट्रेडयूनियन वालों को पकड़ा
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन वाला नहीं था
फिर उन्होंने यहूदियों को पकड़ा
मैं चुप रहा, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था
और जब वे मुझे पकड़ने आये
तो बोलने के लिए कोई बचा ही नहीं था।


यह कविता लिखी तो नाजी जर्मनी के संदर्भ में गयी थीं, लेकिन सार्वभौमिक लगती हैं। ये पंक्तियां महापृराष्ट्र के पालघर जिले में भीड़ द्वारा 2 साधुओं और ड्राइवर की निर्मम हत्या का वीडियो देखते याद आयीं। पालघर महाराष्ट्र में दो साधुओं और उनके ड्राइवर की भीड़ ने निर्मम हत्या कर दी। इस घटना का हृदय विदारक वीडियो देखना असह्य लगा। साधु एक वक्त के लिए पुलिस की मौजूदगी के कारण राहत महसूस करते दिखते हैं लेकिन पुलिस को भी भगा दिया विशाल हत्यारी भीड़ ने। अफवाहजन्य भीड़ हिंसा पर चुप्पी और प्रोत्साहन ने उन साधुओं को मारा है। और आगे भी बहुत से लोग यूँ ही मरते रहेंगे। पालघर में साधुओं की हत्या 2015 में अखलाक की हत्या से शुरू अफवाहजन्य भीड़ हिंसा की ताजी कड़ी है। जितना हृदयविदारक व साधुओं की हत्या का वीडियो देखना था उससे अधिक हृदयविदारक सैकड़ों साल से 300-400 घरों की त्यागियोऔर राजपूतों की बस्ती में 3-4 परिवार के खानदान के साथ रहते अखलाक की हत्या का वीडियो था जिसमें अफवाह प्रायोजित थी और हत्यारे पड़ोसी।

अखलाक की हत्या गोमांस की अफवाहजन्य भीड़ हिंसाओं की श्रृंखला की पहली को उस क्षेत्र के सांसद और तत्कालीन संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने हादसा बताया था तथा उसे सांप्रदायिक रंग न देने की चेतावनी दी थी। अखलाख की लिंचिंग पर उतना विवाद भीड़ द्वारा हत्या करने पर नही हुआ जितना इस बात पर कि उसके फ्रिज में गाय का माँस था कि बकरी का। बहुतों ने इस हत्या का प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन किया क्योंकि मरने वाला उनके धर्म का नहीं, उस धर्म का था जो उनकी परिभाषा में क्रूर है। चोरी की अफवाह में, उंमादी भीड़ हिंसा साधुओं की हत्या को भी मृदंग मीडिया के कुछ अफवाहजन्य चैनल तथा सोसल मीडिया पर कई अंध भक्त हिंदू-मुस्लिम नरेटिव में फिट करने तथा फिरकापरस्त नफरत के जहर से सामाजिक प्रदूषण फैलाने में लग गए। महाराष्ट्र सरकार घटना के सांप्रदायिक दुष्प्रचार के खंडन के लिए साधुवाद की पात्र है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने पत्रकार सम्मेलन करके और गृहमंत्री ने गिरफ्तार आरोपियों की लिस्ट जारी करके, जिसमें एक भी गैर-हिंदू नाम नहीं है। फेसबुक पर साधुओं की हत्या को अखलाख की हत्या से शुरू अफवाहजन्य हिसा की कड़ी बताने पर एक भक्त नाराज होकर बोले कि अखलाक की हत्या के आरोपियों को तत्कालीन अखिलेश सरकार ने गिरफ्तार किया था तथा मुआवजा मिला था। “साधुओं को कितना मुआवजा मिला”? अखलाक की हत्या को 3 साल बाद गोहत्या की अफवाह में बजरंग दल के नेता द्वारा आयोजित भीड़ हिंसा में मामले के जांच अधिकारी, इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या से जोड़ने पर भी वे नाराज हो गए।

साधुओं के परिवार हैं कि नहीं, उनको कितना मुआवजा मिला यह तो महाराष्ट्र और केंद्र सरकारें बताएंगी। अखलाक की हत्या  के आरोपी जब जमानत पर छूट गए तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने उन्हें एनटीपीसी में नौकरी दिला दी, एक हत्यारा जेल में मर गया था, केंद्रीय मंत्रियों और भाजपा नेताओं की उपस्थिति में तिरंगे में लपेट कर उसकी शव यात्रा निकाली गयी। जिस इंस्पेक्टर ने अऱलाक की हत्या के आरोपियों को गिरफ्तार किया था उसी को बजरंगदल द्वारा इकट्ठी की गयी अफवाहजन्य हिंसा में मार दिया जाना महज संयोग नहीं हो सकता । साधुओं की भीड़ हत्या के पीछे वही मकसद या मकसद-विहीनता थी जो महाराष्ट्र. आसाम और झारखंड तथा अन्य जगहों में चोरी, बच्चाचोरी या डायन की अफवाहजन्य भीड़ हिंसा में मासूमों की हत्याओं के पीछे थी। भीड़ हिंसा पर सेलेक्टिव प्रतिक्रिया देने वालों का आंसू बहाना पाखंड है। जहां तक यह सवाल है कि लाक डाउन में साधू वहां पहुंचे कैसे तथा उस गांव में इतनी भीड़ कैसे जुटी और इतनी हिंसक कैसे हुई? ये सवाल सरकार तथा गांव कि भाजपाई मुखिया से पूछना चाहिए। वैसे भीड़ हिंसा को वैधता मिलेगा तो हिंसक भीड. उस नरभक्षी जानवर की तरह होती है जिसके मुंह इंसानी खून लग जाता है वह स्त्री-पुरुष, हिदू-मुसलमान, साधू या भिखारी के खून में फर्क नहीं करता। किसी संवेदनशील इंसा के लिए मौत मौत में फर्क नहीं होता। अखलाक, पहलू, या इंस्पेक्टर सुबोध की मौतें उतनी ही दर्दनाक हैं जितनी साधुओं की मौत-मौत या जिंदगी-जिंदगी में फर्क करने वाले उतने ही दुर्दांत अपराधिक मानसिकता के हैं जितने साधुओं के हत्यारे। एक हत्या का जश्न मनाने वालों का दूसरी हत्या पर आंसू बहाना उनके चरित्र के दोगलेपन का परिचायक है।

झारखंड में पशुव्यापारी और उसके नाबालिग भतीजे की भीड़ हिंसा का वीडियो भी कम हृदय विदारक नहीं था। केन्द्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने मॉब लिंचिंग की उस घटना में जमानत पर छुटे आरोपियों का फूल-माला पहना कर, लड्डू स्वागत किया बहुतों ने जयंत सिन्हा के कसीदे पढ़े क्योंकि मृतक उनके धर्म के नहीं थे। हत्या और हत्यारों का महिमामंडन भाजपा की एकमात्र राजनैतिक रणनीति, हिंदू-मुस्लिम नरेटिव से सांप्रदायिक राजनैतिक ध्रुवीकरण की निरंतरता बरकरीर रखने के सुविचारित कार्यक्रम का हिस्सा है।  

पशुपालक पहलू खां की मॉब लिंचिंग का वीडियो भी कम हृदयविदारक नहीं था लेकिन उसका भी धर्म अलग था, वही हाल सैकड़ों तमाशबीनों के बीच जुनैद की मॉब लिंचिंग का था। चोरी, बच्चाचोरी और डायन के अफवाह में भी कई भीड़ हत्याएं हुईं।


बुलंदशहर में गोहत्या के अफवाह में भीड़ हिंसा के शिकार, इंस्पेक्टर सुबोध सिंह उन्ही के धर्म वाले थे, लेकिन साधुओं की मौत पर घड़ियाली आंसू बहाने वालों ने ने उस पर न सिर्फ कुछ नही बोला बल्कि जमानक पर छूटने पर हत्यारे का महिमामंडन के साथ स्वागत किया था क्योंकि मारने वाली भीड़ खास राजनीतिक विचारधारा की थी।

जब कुछ कलाकारों तथा बुद्धिजीवियों ने ने मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर प्रधानमंत्री को पत्र लिखा तो उन्हें भारत को बदनाम करने वाले, टुकड़े टुकड़े गैंग, अर्बन नक्सल और भी क्या क्या उपाधियाँ दी गयी। उनकी चिंताओं को गालियों में तब्दील कर दिया गया। और तो और कुछ पर देशद्रोह का केस भी दर्ज कर दिया।

और आज जब दो साधुओं की निर्मम हत्या हो गयी तो इन्ही सेकुलर, अर्बन नक्सल और कम्युनिस्टों को कोसा जा रहा है। ये क्यों नही बोल रहा, वो क्यों नही बोल रहा? हम तो दरसल सब हत्याओं के लिए चिंतित है। हमने कल अखलाख की हत्या पर  भी चिंता व्यक्त की थी और आज इन दो साधुओं की हत्या पर भी। लेकिन उन्हें जवाब देना चाहिए जिनकी चिंता सलेक्टिव है

नफरत के झंडाबरदार और मृदंग मीडिया इसमें भी हिन्दू मुसलमान का एंगल खोज रहे थे जो नही मिला। जो लोग जो साधुओं को न्याय दिलाने के लिए लड़ रहे है कान खोल कर सुन लें कि मृदंग मीडिया इस घटना को ज्यादा नहीं चलाएगी क्योंकि टीआरपी के लिए नफरत फैलाने का कुछ एंगल नही बन पा रहा है ।

सेलेक्टिव होकर बभीड़ हिंसा का विरोध करेंगे तो हार जाएंगे। यदि आप चुप्पी साधेंगे अखलाक की मौत पर, जुनैद की मौत पर, तबरेज की मौत पर, उस मौत पर जिसमें एक महिला को डायन बता कर मौत के घाट उतारा जा रहा था, तो साधुओं की मौत का हिसाब नहीं कर पाएंगे।। भीड़ हिसा में साधुओं की हत्या में न्याय चाहिए तो हर तरह की अफवाहजन्य भीड़ हिंसा का विरोध कीजिए।
22.04.2020