राहुल गांधी कितना भी बड़ा पप्पू है लेकिन संवेदनशील है, उसने बहुत पहले टअवीट कर चेताया था लेकिन सरकार हिंदू-मुस्लिम नरेटिव के ध्रुवीकरण के लिए दंगा प्रबंधन में व्यस्त थी, समय से कदम उठाए गए होते तो पैनिक की स्थिति शायद न आती। शायद इसलिए कह रहा हूंकि मेरा मेडिकल ज्ञान खास नहीं है। वैसे मुझे इसके पूंजीवाद के मौजूदा संकट से संबंध होने का संदेह होता है। क्योंकि इस संकट का हल नव उदारवाद में दिखता नहीं। आर्थिक मंदी भारत का ही नहीं भूमंडलीय संकट है। इस महामारी के संकट से उत्पन्न लॉक डाउन से उत्पादन पर लगी रोक सेे दुनिया भर के पूंजीपतियों और व्यापारियों को सारा पुराना माल खपा देने का स्वर्णिम अवसर मिल गया है। सेनेटाइजर जांच किट व दवाइयों की दुगने व चार गुने दामों पर बिक्री से भारी मुनाफा पैदा किया जा रहा है। आलू 40 रुपए में देकर बोला 50 का बिक रहा है। किराने की दुकानों पर लगी कतारें नोटबंदी के समय एटीएम के बाहर की कतारों की याद दिला रही हैं। यातायात बंद होने से मजदूर अपने घर नहीं जा पा रहे हैं। सब्जी व अनाजों की थोक आपूर्ति बाधित हो जाने के कारण इनके दाम बढ़ गये हैं।अगले तीन हफ्ते में थोक व खुदरा मंहगाई कहाँ तक पहुंचती है इसका अनुमान लगाया जाना मुश्किल नही है। पिछले (1930) के महासंकट से उदारवादी पूंजीवाद (अहस्तक्षेपीय राज्य) को ध्वस्त होने से युद्ध और केंन्स (कल्याणकारी राज्य) ने बचाया था। फिलहाल तो भूमंडलीय नवउदारवादी पूंजीवाद में कोई खेवनहार सिद्धांत दिख नहीं रहा है, वैकल्पिक व्यवस्था समाजवाद की ताकतें नदारत हैं। देखते हैं आगे क्या होता है? 21 दिन के लॉकडाउन के आर्थिक कुप्रभाव से निपटने में कितना वक्त लगेगा कहा नहीं जा सकता। आस्ट्रेलिया की उदारवादी सरकार ने सोसल सेक्टर का बजट बढ़ा दिया और चिकित्सकीय गतिविधियां तेज कर दी लेकिन लॉक डाउन से इंकार कर दिया लेकिन उसकी आबादी उप्र की आबादी के दशमांश से थोड़ा ही अधिक है।
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