बेतरतीब 66 (इवि)
मैं विज्ञान से इंटर की पढ़ाई के बाद जब इवि में आया तो सोचता था कि जात-पांत गांव के अपढ़ लोगों का मामला है, शहर और विश्वविद्यालय के पढ़े-लिखे लोग इससे ऊपर उठ चुके होंगे। लेकिन मुझे शिक्षा को लेकर पहला और गहरा कल्चरल शॉक यह देखकर लगा कि प्रोफेसरों में जातीय आधार पर खतरनाक हद कर गिरोहबाजी थी। ब्राह्मण लॉबी और कायस्थ लॉबी। दोनों लॉबियों के छात्रों के अपने अपने पालतू गिरोह थे। यदि शिक्षक शिक्षक होने का महत्व समझ लें तो देश को तरक्की करने से कोई ताकत नहीं रोक सकती, लेकिन ज्यादातर अभागे हैं केवल नौकरी करते हैं और सांप्रदायिक या जातीय गिरोहबाजी और प्रोफेसनल तिकड़म। शिक्षकों का बहुमत ऐसे लोगों का है शिक्षक होना जिनकी प्राथमिकता नहीं होती। यूपीएससी, प्रदेशों की पीएससी की परीक्षाओं में असफलता के बाद नेटवर्किंग तथा गॉडफादरों की कृपा से शिक्षक हो जाते हैं, उनमें कुछ भाग्यशाली होते हैं, जो शिक्षक होने का महत्व समझ लेते हैं और सुखी रहते हैं। मेरी तो नौकरी का कोई सेकंटड प्रिफरेंस ही नहीं था, लेकिन रंग-ढंग ठीक नहीं किया, नतमस्तक समाज में सिर झुकाकर जीना नहीं सीखा, इसलिए नौकरी देर से मिली। कोई अगर कहता है कि नौकरी देर से मिली तो मैं कहता हूं, देर से ही सही मिल कैसे गयी?
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