जितने भी दो पाया जीव हैं, सब में इंसान बनने की संभावनाएं हैं, उसके लिए मनुष्य की प्रजाति-विशिष्ट प्रवृत्ति विवेक के इस्तेमाल की जरूरत होती है, यही प्रवृत्ति मनुष्य को पशुकुल से अलग करती है। विवेक के इस्तेमाल से पता चल जाता है कि कौन कहां पैदा हो गया (बाभन, भूमिहार, अहीर, दलित, शेख, धुनिया, जुलाहा.... परिवार में) यह महज जीववैज्ञानिक संयोग (दुर्घटना) का परिणाम है, व्यक्तित्व की संरचना इस संयोग का नहीं बल्कि समाजीकरण का परिणाम है। इस जीववैज्ञानिक संयोग की अस्मिता (बाभन, दलित, ... यानि हिंदू; शेख, धुनिया, दर्जी... यानि मुसलमान) से ऊपर उठकर कोई भी विवेकशील इंसान बन सकता है, वरना जातिवाद और सांप्रदायिकता की मिथ्या चेतना में फँसा रहता है। वर्ग विभाजित समाज में व्यक्तित्व भी विभाजित (स्प्लिट) होता है। हर व्यक्ति के अंदर दो बोध होते हैं -- स्स का स्वार्थ-बोध (Self's sense of self interest) और स्व का न्याय-बोध या परमार्थ-बोध (self's sense of right or justice)। स्व के स्वार्थ-बोध पर स्व के न्याय-बोध को तरजीह देने में वास्तविक सुख है तथा स्व के न्याय-बोध पर स्व के स्वार्थ-बोध को तरजीह देने में सुख का भ्रम मिलता है। ब्राह्मण ( फलस्वरूप हिंदू) हित (स्वार्थ-बोध) का पोषण खुशी की खुशफहमी देता है तथा इससे ऊपर उठकर मानवता के हित का पोषण वास्तविक खुशी। मैं अपने औपचारिक अनौपचारिक स्टूडेंट्स को कहता हूं कि यदि स्व-हित का तार्किक आकलन करोगे तो पाओगे कि सिद्धांतनिष्ठ जीवन में भ्रष्ट जीवन की तुलना में ज्यादा फायदा है। ज्यादातर लोग सुख की खुशफहमी के चक्कर में वास्तविक सुख से वंचित रह जाते हैं। मैं यहां ही नहीं, अपने विस्तारित खानदान समेत ज्यादा जगहों पर मिसफिट ही रहता हूं। अल्पमत में होना गलत होना नहीं होता।
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