जनेऊ तो किसी सोचे-समझे वैचारिक विद्रोह के चलते नहीं तोड़ा था, 13 साल की उम्र तक घुटने तक लटकते जनेऊ के अटपटेपन से ऊब गया था, टट्टी पेशाब के वक्त कान पर चढ़ाना अक्सर भूल जाता था। पहने रहने का औचित्य समझ नहीं आया उतार फेंका। उसके पहले औचित्य न समझ आने के चलते चुटिया (चुर्की) से मुक्ति पा लिया था। मेरे बाबा (दादा जी) सब काम पंचांग की गणना से करते थे, मुंडन पांचवें साल में हुआ (देरी से) और जनेऊ ग्यारहवें साल में (जल्दी)। मैं हर हफ्ते (या दूसरे हफ्ते) हॉस्टल से घर आता तो दादाजी मंत्र पढ़कर नया पहना देते, मैं वापस जाते हुए गांव से बाहर निकलते ही उतारकर किसी पेड़ पर टांग देता। अंततः ऊब कर उन्होंने 'हाथ से निकल गया' समझ छोड़ दिया, पागल नाम वै पहले ही दे चुके थे। बाबा के नियमों का सबसे अधिक उल्लंघन मैं ही करता था, लेकिन (मुझे लगता है) सब पोतों में लबले अधिक मुझे ही मानते थे। मेरा गौना जब आया (फरवरी 1975) तो होली की छुट्टी में इलाहाबाद से घर आया था, किसी 'अच्छे' काम के लिए बाबा कह देते थे कि वो पगला ने किया होगा। मेरी पत्नी को लगा कि कहीं धोखे से तो उनकी शादी नहीं हो गयी? होली के एक दिन पहले उन्होंने मेरी दादी जी (अइया) से पूछ ही लिया। जब भी छुट्टी में घर जाता तो दादा जी के साथ (बाग मे उनकी कुटी पर) काफी समय बिताता। एक बार उनके जनेऊ कातते हुए मैंने उन्हें न्यूटन के गति के नियम समझाया। उन्होंने पूछा 'का रे पगला न्यटनवा भगवानौ से बड़ा रहा?' इस पर मैंने 3-4 साल पहले एक लेख लिखा था, इस ग्रुप में भी शेयर किया था। अभी फिर करूंगा।
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जनेऊ तोड़कर जनेवि नहीं पहुंचा, नौंवी कक्षा में जनेऊ तोड़ा था उसके 4 साल बाद इवि पहुंचा जहां नास्तिकता की यात्रा पूरी हुई और जब धार्मिक नहीं रहा तब सांप्रदायिक बन गया -- एबीवीपी में चला गया। सलांप्रदायिकता धार्मिक नहीं राजनैतिक विचारधारा है। एबीवीपी ऑफिस के नीचे पीपीएच की दुकान थी जहां सोवियत प्रकाशनों की किताबें लगभग मुफ्त में मिलती थीं। किताबों ने मेरे विवेक को जगा दिया तथा मैंसाप्रदायिक से विवेकशील इंसान बननेकी तरफ चल पड़ा। किताबों के अलावा जिन ललोगों का मेरे वैचारिक संक्रमण में प्रत्यक्ष परोक्ष योगदान है उनमें प्रमुख हैं प्रो. बनवारी लाल शर्मा;प्रो. टी पति.डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी); कृष्ण प्रताप सिंह; चितरंजन सिंह तथा रामजी राय।
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