एक सज्जन ने कहा कि कोई अथक परिश्रम से पूंजीपति बनता है, मैंने कहा पूंजीपति कोई श्रम से नहींं बल्कि दूसरों के श्रम के शोषण से बनता है, फिर उन्होंने प्रोफेसरों के वेतन का तुलनात्मक मुद्दा उठा दिया, उस पर:
लेकिन पूंजीपति कितने घंटे उत्पादक काम करता है? निश्चित ही आय में इतना अंतर पूंजीवादी व्यवस्था की विडंबना है। प्रोफेसर तथा पाइमरी शिक्षक के वेतन में जमीन-आसमान का अंतर अनुचित है। लेकिन पूंजीपति तो एक धेले का काम नहीं करता दूसरों के काम पर पूंजी बनाता है। श्रमिकों में एकता की संभावनाओं को क्षीण करने के लिए पूंजीवाद उन्हें तमाम खानों में बांट कर रखता है। पूंजीवाद और हिंदू जाति व्यवस्था के पिमिडाकार ढांचों में एक समानता यह है कि दोनों में सबसे नीचे वाले को छोड़कर, सबको अपने से नीचे देखने को कोई-न-कोई मिल जाता है।
इस पर एक सज्जन ने कहा कि फिर पूंजी, बौद्धिकता तथा तकनीकी ज्ञान का कोई महत्व नहीं, उस पर:
तकनीकी या बौद्धिक श्रम उत्पादकता के अनुपात में साधारण श्रम का ही गुणक होता है तथा उनका मूल्य उसी अनुपात में होना चाहिए। पूंजी तो कोई कहीं से लेकर नहीं आता और धरती के फल पर सबका साझा हक होता है। पूंजीपति को कोई तकनीकी, प्रबंधन या बौद्धिक ज्ञान नहीं होता वह हड़पी हुई (खुद या पूर्वजों द्वारा) संपत्ति से सभी ज्ञान वालों को खरीद लेता है।
पूंजीपति के अथक श्रम के तर्क वाले सज्जन ने फिर कहा कि प्रोफेसर किताबों के ज्ञान की बदौलत लाखों वेतन लेता है और यह कि जिसकी जितनी बड़ी चोंच वह उतना मांस नोचता है, उस पर:
उस तरह तो मौलिक ज्ञान कोई नहीं होता, हर पीढ़ी पिछली पीढ़ियों की उपलब्धियों को समेटता है और उसे आगे बढ़ाता है। न्यूटन की मेकैनिकल फीजिक्स के बिना क्वांटम फीजिक्स का विकास संभव नहीं था, इस अर्थ में बौद्धिक संपदा के अधिकार की बात बेमानी है, मैंने पहले ही कहा जहां औसत आय 15000 हो वहां लाखों का वेतन अनुचित है। मैंने ऊपर कहा कि श्रमिकों (बौद्धिक या भौतिक श्रम बेचकर रोजी कमाने वाला हर व्यक्ति श्रमिक होता है) ऊंची नीची वैतनिक कोटियां पूंजीवाद की चाल है उसी तरह जैसे जातियों की सामाजिक ऊंची-नीची कोटियां ब्राह्मणवाद की। अमेरिका में 1991 में सबसे नीचे के 20 फीसदी और सबसे ऊपर की 20 फीसदी में आय का अनुपात 1:78 था जो अब बढ़ा ही होगा, ये खुद वैसे भ्रामक कोटियां हैं। इसीलिए साम्यवाद का प्रस्तावित फार्मूला है -- हर किसी सेक्षमता के अनुसार काम तथा हर किसी को आवश्यकता अनुसाकर भुगतान।
छोटा-मोटा कारोबारी न पूंजीपति होता है न मजदूर उसे मार्क्सवादी शब्दावली में पेटी बुर्जुआ कहा जाता है।
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