अभिषेक श्रीवास्तव द्वारा मीडिया विजिल के दफ्तर की सूचना की पोस्ट परट
तुमने बुड्ढों का पत्ता पहले ही काट दिया। फिर भी इनबॉक्स में पता देदो कभी-कभार आशिर्वाद देने आ जाऊंगा। तुम्हारी पोस्ट देखकर 35-36 साल पुरानी एक घटना याद आ गयी। उस अर्जी की मूल प्रति किसी नोटबुक में कहीं होगा जिसका मिलना तो अब मुश्किल ही है। जनसत्ता के शुरुआती दिनोंकी बात है, 1984 के बाद और 1986 के पहले की ही बात होगी क्योंकि उस समय राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और जेएनयू से 1983 में शुरू 3 साल के लिए निष्कासन काल खत्म नहीं हुआ था। संपादक, प्रभाष जोशी के बाद पदक्रम में दूसरे पायदान पर तीन सहायक संपादक थे। बनवारी के अलावा बाकी दो जेएनयू के मेरे सीनियर थे -- हरिशंकर व्यास और सतीश झा। व्यास स्वघोषित संघी था तथा सुंदर सिंह भंडारी का करीबी; झा जी स्वघोषित प्रगतिशील। जनसत्ता में एक विज्ञापन छपा कि जनसत्ता को कुछ संवाददाता और उपसंपादक चाहिए, अधिक तनखाह चाहने वाले अर्जी न भेजें, पत्रकारिता को नौकरी समझने वाले लोग अर्जी न भेजें, आदि आदि। बीए-एमए पास लड़के-लड़कियों को लिखित परीक्षा और साक्षात्कार की कसौटियों पर ठोंक-बजा कर नौकरी दी जाएगी। वगैरह वगैरह..।
सुबह सुबह तुमने फंसा दिया कुछ और काम करना था, खैर बुढ़ापे की आवारागर्दी खतरनाक तो होती ही है, (जवानी में भी ऐसे ही थे)। शब्दशः तो नहीं लेकिन फिर भी जितनी याद है --
"संपादक
जनसत्ता
महोदय,
'जनसत्ता को कुछ संपादक/उपसंपादक चाहिए (जनसत्ता, ........)' के जवाब में इसे मेरी अर्जी समझें।
आपका विज्ञापन देखकर फैज अहमद फैज की ये पंक्तियां याद आ गयीं,
'वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा
फिर आख़िर तंग आ कर हम ने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया'
लेकिन मेरा द्वंद्व इश्क और काम को लेकर नहीं बल्कि काम और नौकरी को लेकर है। अभी तक कुछ नौकरी किया और कुछ लिखने पढ़ने का काम। नौकरी काम के आड़े आती रही और आजिज आकर छोड़ दिया (निकाल दिया गया)।
आपका विज्ञापन देखकर कुछ उम्मीद बंधी है कि काम और नौकरी के बीच की खांई को पूरी तरह पाटा न भी जा सके तो कुछ कम तो किया ही जा सकता है। ठोंक-बजाकर परखे जाने की तो कोई चिंता नहीं है, लेकिन थोड़ा संशय जरूर है कि कहीं मिट्टी की किस्म की वजह से आवाज में फर्क टूटेया अधपके होने का भ्रम न पैदा कर दे। खैर शुभ कामना कीजिए की आप की कसौटियों पर खरा उतरूं।
इलाहाबाद विवि और जेएनयू से पढ़ाई किया हूं (पढ़ाई-लिखाईका ब्योरा) ...... , फिलहाल जेएनयू में पीएचडी का निष्कासित छात्र हूं। पत्रकारिता में कुछ खास महारत नहीं हासिल की है। छोटे-मोटे पत्र-पत्रिकाओं में छिट-पुट लेख छपते रहे हैं। जनसत्ता में ......................... लेख छपे हैं।
यदि नौकरी मिली तो
पत्रकारिता को नौकरी न समझनेके वायदे के साथ
आपका
ईश मिश्र'
जाहिर है कि लिखित परीक्षा और साक्षात्कार के लिए बुलाया ही नहीं। एक दिन कोईलेख देने या भुगतान का पता करने जनसत्ता के दफ्तर गया था तो सतीश झा दिख गए। पीठ ठोंक कर (जो उन्हें नागवार गुजरा) पूछा 'क्या झा जी आपने तो बिना ठोंके-बजाए ही फूटा घोषित कर दिया। झा जी बिफर कर बोले कि वह फैज अहमद वाली अर्जी मेरी थी, नक्शेबाजी की अर्जी देंगे तो और क्या होगा ? मैंने कहा 'नक्शेबाजी पर आपका एकाधिकार है क्या? आप नक्शेबाजी का विज्ञापन दे सकते हैं, कोई नक्शेबाजी की अर्जी नहीं? कोई समझदार संपादक होता तो उस अर्जी पर ही नौकरी दे देता।
झा जी पल्ला छुड़ाकर चले गए।
एक बार और वहां अर्जी भेजा था, फिर नहीं बुलाया, उसकी कहानी फिर कभी।
मैंने भी 1983 के बाद कभी जनसत्ता में आवेदन किया था , जनसत्ता को कुछ उपसंपादक/संवाददाता चाहिए थे लेकिन विज्ञापन में पत्रकारिता को नौकरी समझने या अधिक (उचित के अर्थ में) तनख्वाह चाहने वालों को अर्जी देने से मना किया गया था और कहा गया था कि लिखित परीक्षा-साक्षात्कार की कसौटियों पर ठोंक-जाकर हिंदी-अँग्रेजी जानने वाले बीए-एमए पास लड़के-लकियों को नौकरी दी जाएगी लेकिन मुझे ठोंके-बजाए जाने का मौका ही नहीं दिया। 1987 में एक बार फिर अर्जी दिया , उसका भी वही हस्र हुआ। तब तक जनसत्ता में कभी-कभार कुछ लिखता था। एक लेख (शायद एक नाटक की समीक्षा) देने गया था। प्रभाष जी दिख गए, इसपर बात करना चाहा तो कोई व्यस्तता बताकर, फिर कभी कह कर टाल दिया था
ReplyDeleteयह शंभूनाथ शुक्ल की एक पोस्ट पर कमेंट है।
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