Tuesday, March 24, 2020

बेतरतीब 64 (हॉस्टल)

यह एक कमेंट पोस्ट के रूप में पोस्ट कर रहा हूं, मैं 3 साल पॉस्टल का वार्डन था और मेरे आने के पहले हर तीसरे दिन पुलिस आती थी, मैं सोच कर आया था कि बच्चों की नाक की लड़ाई की विभाजन रेखा डिलीट कर दूंगा। एक ग्रुप में किसी ने कहा बिना गुंडों के गुंडों से नहीं निपटा जा सकता, उनका इस्तेमाल कर उन्हें दूध की मक्खी की तरह भले फेंक दिया जाए। उस पर:

मैं मैंने बिना गुंडे-मवालियों और बिना पुलिस के हॉस्टल में गुंडा गर्दी खत्म की थी। सारे तथाकथित गुंडों को खुली चुनौती दी थी कि 46 किलो का आदमी हूं, अकेले घूमता हूं, जिसमें दम है मुझसे गुंडई करे। 6 महीने में सभी गुंडागर्दी (गिरोहबाजी) छोड़ शरीफ हो गए। एक बार दो साल बाद (दोनों गिरोहों के) बच्चे घर मिलने आए, एक लड़के (आजकल आईआऱएस है) ने पूछा "सर एक बात पूछूं बुरा नहीं मानेंगे?" बोला "सर हम 50-60 लोग हॉकी-रॉड आदि से मार-पीट कर रहे होते थे और आप 12 बजे रात को अकेले बिना पुलिस के हमारे बीच में घुस आते थे"? मैंने पूछा कि उनकी सिट्टी क्यों गुम हो जाती थी? एक दूसरे ने (आजकल मप्र पुलिस सेवा में है) ने कहा "सर बुरा मत मानिए, आप की आवाज सुनते ही हमारी फटने लगती थी"। भाषा के लिए प्यार से डांट कर बोला जिसे बाद के बैच वाले डायलॉग बना लिए। "सत्ता का भय होता है, ईमानदारी का आतंक", जिसे संपादित कर मार्क्स पर एक लेख में लिखा, "सत्ता का भय होता है विचारों का आतंक"। हॉस्टल की वार्डनशिप के मेरे 3 साल बहुत खूबसूरत थे। हॉस्टल के किसी अनुभव पर एक पोस्ट डाला था जिस पर उस समय के हॉस्टल में रहे अब अच्छे पदों पर स्थित दर्जनों छात्रों ने कमेंट किया था। हॉस्टल में जाते समय मैं 3 बातें तय करके गया था । 1. छात्रों की नाक की लड़ाई (गुंडागर्दी) समाप्त कर दूंगा; 2. जिस दिन पुलिस बुलाना होगा अपना सामान पैक करूंगा (अपने छात्रों से निपटने के लिए पुलिस बुलाना पड़े तो आप के शिक्षक होने में खोट है); 3. किसी भी छात्र को रस्टीकेसन का सम्मान नहीं दूंगा। हमारे बच्चे समझदार युवा हैं, अपराधी तो हैं नहीं। इस उम्र में इतना ऊर्जा होती है कि कुछ दादा-भैया की अस्मिता बनाने में खर्च कर देते हैं। उन्हें इस ऊर्जा का रचनात्मक, सकारात्मक इस्तेमाल समझा दीजिए। इसीलिए कहता हूं कि आधे शिक्षक भी शिक्षक होने का महत्व समझ जाएं तो आधी क्रांति ऐसे ही हो जाए। लेकिन दुर्भाग्य से ज्यादातर महज नौकरी करते हैं। खैर फेयरवेल तक तीनों काम सुचारु रूप से हो गए। अगले 2 साल अपने चुनाव समेत सब काम बच्चे ही करते रहे, मैं बेरोजगार ही रहा। सारे कर्मचारी और छात्र आज भी उन 3 सालों को याद करते हैं। आज भी हॉस्टल में बच्चों में उस समय की कहानियां किंवदंतियों के रूप में प्रचलित हैं। जिन बच्चों की ज्यादा 'क्लास' लिया वे उतनी ही ज्यादा इज्जत से याद करते हैं। मेरे वार्डन न रहने पर बच्चे होली मिलने अपने वार्डन के घर न जाकर मेरे ही घर ढोल-मजीरा लेकर आ जाते थे। बाजार की मिठाई के अलावा 6-7 किलो गुझिया घर पर बनती थी। इस बार की होली में पत्नी दुखी थी कि ज्यादा गुझिया नहीं बनाया। एक शिक्षक को बल की नहीं नैतिक बल की जरूरत होती है। कोई भी छात्र किसी शिक्षक के साथ असम्मान का व्यवहार नहीं कर सकता।

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