भारत में अंग्रेजी राज और
सांप्रदायिकता
ईश मिश्र
समकालीन विश्व – इतिहास पूंजीवाद अंहकार धार्मिक कट्टरता और नस्लीय/कुनवाई
पूर्वाग्रहों की विचारधाराओं के उफान का गवाह है। धर्म और राजनीति के संबंधों में
अभूतपूर्व गति से हो रहे परिवर्तनों से विस्मित निति निर्माता और धार्मिक नेती
दोनों ही राजनीति में धर्म की उपयोगिता के प्रति अधिक सजग हो गए हैं। यहीं नहीं,
धर्मनिरपेक्षता के ज्यादतर खेमों में भी राजनीति में धर्म की भूमिका, सरोकार का
केंद्रीय बिंदु बन गयी है। धर्म की राजनीति करने वाली ताकतों में एक तरफ पारंपरिक
मूल्यों की पूर्ण अवहेलना करके उन्हें पुर्नपरिभिषत करने की प्रवृति दिखायी देती
है। तो दूसरी तरफ एक ‘स्वर्णिम अतित’ की पुर्नस्थापना के नारे के साथ धर्म की
युध्दोन्मादी आक्रांमकता अनियंत्रित हिंसा और विवेकहीन आतंक की। भारत में
युध्दोन्माद इस व्यापक संदर्भ से जुड़ा प्रतीत होता है। 6 दिसम्बर की अयोध्या की घटनाओं
के बाद का रक्तपात और दंगे तो इसके बाह्य प्रभाव हैं, संदेह और घृणा की विचारधारा
को ऐतिहासिक वैधता प्रदान करने के इन ताकतों के प्रयासों के दूरगामी प्रभाव और भी
गंभीर चिंता का विषय है। हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतें ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़
कर और संदर्भ से काटकर अपने राजनैतिक हितों के अनुरूप इतिहास के पुर्नलेखन कर रही
हैं। ऐसे में सांप्रदायिकता का इतिहास जानना आवश्यक हो जाता है। ज्ञानेन्द्र
पाण्डेय की पुस्तक, कांस्ट्रक्शन ऑफ कम्यूनलिज्म इन कोलोनियल नॉर्थ इंडिया, इस
दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
सांप्रदायिकता जीववैज्ञानिक प्रवृति नहीं है, न ही यह वायु, ब्रह्मांड या आत्मा-परमात्मा की
तरह कोई शाश्वत विचार है। सांप्रदायिकता विचार नहीं है बल्कि विचारधारा
(ज्ञानेन्द्र पांडेय के शब्दों में एक तरह का औपनिवेशक ज्ञान-पृ. 6) है, जिसका
निर्माण औपनिवेशिक शासन के एक खास दौर में, खास ऐतिहासिक जरूरतों के तहत,
उपनिवेशवादी के विचारकों इतिहासकारों के तत्वाधान में हुआ। चूंकि इसका उदय
ऐतिहासिक कारणों से हुआ, इसलिए इसका अतं भी संभव है।औपनिवेशिक शासन के दौरान उत्तर
भारत, खासकर भोजपुरी क्षेत्र के उदाहरण के माध्यम से समीक्षार्थ पुस्तक में लेखक
ने ताकिर्क ढंग से यह दिखाया है कि विचारधारा के रूप में भारत में सांप्रदायिकता,
उपनिवेशवाद की विरासत है।
सांप्रदायिक (या सामुदायिक जैसे
अंग्रेजी के ‘कम्यूनल’ का शाब्दिक अर्थ है) शब्द, व्याकरण के आधार पर समुदाय का
विशेषण होना चाहिए लेकिन ऐतिहासिक रूप से यह धार्मिक समुदायों के बीच ‘चिरस्थाई
रूप से मौजूद’ विव्देष और घृणा का विशेषण बन गया। गौरतलब है कि भारत का यह इतिहास औपनिवेशवादी इतिहाकारों द्वारा लिखा
गया। और ‘भारत के अतीत’ की जो छवि हमारे सामने है, उसकी रचना उपनिवेशवाद ने की
(पृ.23) ‘विकसित’ दुनिया के संदर्भ में इस शब्द का यह अर्थ नहीं लागू होता, यह
अविकसित या विकासशील देशों की समस्या है। जैसा कि लेखक ने प्रस्तावना में इंगित
किया है, ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी, खण्ड-2, (1933 संस्करण) में सांप्रदायिकती (कम्यूनलिज्म)
की परिभाषा समाज के सामुदायिक गठन और ‘प्रत्येक स्थानीय रूप से परिभाषित समुदाय को
व्यापक स्थानीय स्वायत्ता की हिमायत करने वाले शासन के सिध्दान्त’ के रूप में की
गई है और सांप्रदायिकतावादी (कम्यूनिलिस्ट) की ‘इस व्यवस्था के समर्थक, या 1871 के
पेरिस कम्यून की विचारधारा में आस्था रखने वाले’ के रूप में। इसी प्रकार
सांप्रदायिक (कम्यनल) का अर्थ एक कम्यून या पेरिस कम्यून से सदस्य, समुदाय से
संबंधित, या किसी बस्ती के नागरिकों ककी सार्वजनिक शिरकत की संस्था, दिया है।
किन्तु अपने वरिवर्धी संस्करण (1959) में शॉर्टर आक्सफोर्ड डिक्शनरी में भारत के
संदर्भ में इसका नस्लीय या धार्मिक समुदाय का विशिष्ट अर्थ जोड़ दिया गया है।
कम्यूनल शब्द की यह भारतीय विशिष्टता, हमारे औपनिवेशक अतीत की विरासत है। ‘सभ्य’
उपनिवेशवाद द्वारा ‘असभ्य’ उपनिवेश को दी गई परिभाषा की भारतीय राष्ट्रवादियों
द्वारा अविलंब और पूर्ण स्वीकृति नक इस परिभाषा को स्थाई भाव प्रदान किया (पृ.
7-8)
औपनिवेशक शासन के पहले भारतीय उपमहाव्दीप में राजनैतिक बिखराव एवं धार्मिक और
सांस्कृतिक बहुलता सह-अस्तित्व उपमहाव्दीप (या भारतीय) सभ्यता की एकता की डोर से
बंधा रहा। दूर-दराज से आए आगंतुकों और आक्रामकों की धाराओं ने इसकी बहुलता को
समृध्द ही किया और कालांतर में इस सहस्त्राब्दि पुरानी सभ्यता की मुख्यधारा में
विलीन हो गई। इस्लाम के आगमन से भी धार्मिक बहुलता में बढ़ोतरी के अलावा इस ढर्रे
में कोई खास फर्क नहीं आया। लेकिन उपनिवेशवाद ने यहां के सम्यतागत मूल्यों पर
दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव डाला। पारंपरिक समुदायों के टूटने और देसी उधोगों के
उजड़ने से बदहाल नागरिकों को संकीर्ण आधारों पर परिभाषित करना, उपनिवेशवादी
इतिहाकारों को भारतीय समाज की जटिल संरचना की व्याख्या की तुलना में आसान लगा और
उगनिवेशवादी शोषण को वैचारिक आधार प्रदान करने के लिए उपयोगी भी उल्लेखनीय है कि
औपनिवेशक भारत के शासकों और इतिहासकारों ने भारतीयों को परिभाषित करने के लिए
कम्यूनलिज्म या सांप्रदायिकता शब्द का प्रयोग पिछडेपन. बर्बरता और असभ्यता के
उन्हीं अर्थों और उसी अवमानना के साथ किया जैसा कि उन्होंने अमेरिका और अफ्रिका के
औपनिवेशीकरण का औचित्य ठहराने हेतु वहां की सभ्यताओं के लिए ट्राइबलिज्म (आदिमपन
या कबीलाईपन) शब्द का इस्तेमाल किया था। यह भी उल्लेखनीय है कि इस विशिष्ट भारतीय
अर्थ में सांप्रदायिकता का प्रयोग सांमती) यूरोप या अन्य पूर्व – पूंजीवादी समाजों
के लिए नहीं होता जिनमें न तो धार्मिकता की कमी थी और न ही विभिन्न धर्मों के
अनुयायियों में परस्पर तनाव और टकराव की। उत्तरी आयरलैंड में कैथोलिकों और प्रोटेस्टेंटों
के बीच जारी खूनी संधर्ष की व्याख्या में भी यह परिभाषा नहीं लागू होती। यह अर्थ
‘पिछडे’ औपनिवेशिक और पूर्व औपनिवेशिक देशों के राजनैतिक और सामाजिक तनावों की
व्याख्या के लिए सुरक्षित है (पृ.7) जिस तरह अमेरिका और यूरोप में उपनिवेशवादियों
ने रंगरूप में परिभाषित किया और फिर उसी परिभाषा से ‘नस्ल’ को चिरस्थायी
स्वयंसिध्दि प्रमाणित किया।
पूंजीवादी ‘सभ्यता’ मोटे तौर पर
प्रकृति पर विजय प्राप्त करने और तदुपरांत अपने हितों के अनुकुल उसके शोषण और दोहन
के सिध्दान्त पर आधारित हैं इस नई ‘सभ्यता’ के वाहकों ने इससे अछूते मानवों को भी
प्रकृति का ही हिस्सा माना जिसकी तार्किक परिणति औपनिवेशीकरण में हुई। पूंजीवाद तब
से कई मंजिलें पार कर चुका है। अब गरीब मुल्कों पर अपने स्थानीय प्रतिनिधियों और
विश्व बैंक एवं अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी विश्व-संस्थाओं के माध्यम से ही
शासन कर सकता है।
उपनिवेशवाद ने अपने हितों के
अनुकूल न महज उपनिवेशों के वर्तमान रचना की थी बल्कि उनके अतीत की भी। ऐसा उसने
अपने अमानवीय अतिक्रमण और शोषण का औचित्य ठहराने के अलावा पूंजीवादी सभ्यता की श्रेष्ठता
साबित करने के लिए भी किया। शासक की विचारधारा शासक – विचारधारा तो होती ही है,
शासकों के बदले जाने के बाद भी, यदि सशक्त विरोध न किया तो कायम रहती है। भारत के
अंग्रेजी शासकों को ज्ञात था कि वैचारिक प्रभुत्ता, व्यापारिक चतुराई और सैन्य
श्रेष्ठता से कहीं अधिक मारक तो होती है। उपनिवेशवादी इतिहाकारों ने इसके लिए भारत
के अतीत की ऐसी रचाना करना शुरू किया जो इसके भविष्य पर औपनिवेशिक जकड़ बनाए रखने
में सहायक सिध्द हो। उनके इस प्रयास में औरियण्टलवादी विव्दानों के भारत के विषय
में अन्वेषण भी मद्दगार साबित हुए।
19वीं शताब्दी का दूसरा दशक खत्म होते
होते, पेशवाओं की पूर्ण-पराजय के साथ संपूर्ण भारत पर अंग्रेजी शासकों का प्रभुत्व
स्थापित हो गया लेकिन विदेशी शासन का बरकरार रखने के लिए देशी सहयोगियों और
विचारधारात्मक औचित्य की जरूरत होती है। इसके लिए, उन्होंने एक तरफ 1793, 1799 और 1891
के भूस्वामित्व संबंधी अधिनियमों के माध्यम से कुलीन भारतीयों के अर्थ-सामंती
जमीदारों का एक वफादार वर्ग तैयार किया और दूसरी तरफ विचारात्मक औचित्य के लिए
भारत के अतीत को परिभाषित करने के लिए ऐसी इतिहास दृष्टि का निर्माण किया जो
विदेशी शासन की मौजूदगी का औचित्य और भविष्य में उसकी निरंतरता की अपरिहार्यता
साबित कर सके। जे. एस. मिल और बर्नाड शॉ सरीखे उदारवादी अंग्रेज विव्दानों ने देसी
लोगों को सभ्य बनाकर उन्हें प्रगति का रास्ता दिखाने के लिए औपनिवेशिक शासन की
मौजूदगी को उचित ही नहीं उनके स्वयं के ही हित में आवश्यक भी बताया। भारतीय
उदारवादियों का दृष्टिकोण भी इस मामले में इनसे भिन्न नहीं था। औपनिवेशिक
इतिहासकारों ने भारत के अतीत के चित्रण के लिए यहाँ के बाशिदों को संकीर्ण
अस्मिताओं के आधार पर परिभाषित करके उनके ‘पारस्परिक अंतविरोधों’ को शाश्वत एवं
सार्वकालिक बताया और उनके निराकरण के लिए ‘तर्केन्मुख’ और ‘विवेकशील’ विदेशियों के
शासन को अपरिहार्य।
औपनिवेशीकरण का यहां उनका अनुभव
अमरीका और अफ्रिका से भिन्न था, जहाँ यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने पूरी की पूरी
आबादी नस्तनाबूद कर दी थी, बंजर बीहड़ और जंगली इलाकों में खदेड़ दिया था जैसा कि
उन्होंने अमरीका में किया था फिर पूरी आबादी को गुलाम बना लिया जैसा कि अफ्रीका
में अमरीका या अफ्रीका अभियान की पुनरावृत्ति कर पाने और भारतीय समाज की जटिलताओं
को समझ सकने में असफल उपनिवेशवादियों ने भारतीय सभ्यता और लोगों को औपनिवेशक
परिप्रक्ष्य से परिभाषित करने की प्रक्रिया प्रांरभ की शासन के शुरूआती दशकों में
उन्होंने भारत के सुदुर अतीत को एक गौरवशाली महान सभ्यता बताया जो ‘ऐतिहासिक’
कारणों से अधंकारयुग में प्रवेश कर गई थी उनके अनुसार सुदुर अतीती के इस गौरवशाली
सभ्यता पर निकट अतीत में लगे कलंकों को मिटाने के लिए ‘सभ्य और विवेकशील’ अंग्रेजी
शासकों का भारत आगमन ‘दैवीय कृपा’ का ही परिणाम था। समकालीन चिंतकों ने भी इसी
अवधारणा को दोहराया। वेदों को अंतिम सत्य घोषित करने वाले राजा राममोहन राय ने
भारत में अंग्रेजी राज को ईश्वर की अनुकंपा कहा।
1820 के आसपास इस औपनिवेशिक समझ में फर्क आया और विदेशी शासन के औचित्य के लिए
सभ्यता का तर्क दिया जाने लगा। हिंन्दुस्तानी की परिभाषा बर्बर अफ्रीकी और ‘सभ्य
यूरोपीय’ के
बीच ‘अर्ध बर्बर’ के रूप में की गयी।
उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में
प्रमुख इतिहासकारों ने धार्मिक कट्टरता और विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के बीच
वैमनस्य को भारतीय समाज के अतीत और वर्तमान की विशिष्टता के रूप में व्याख्यायित
किया। भारतीय इतिहास के ‘प्राचीन’ एवं ‘मध्यकालीन’ इतिहास को क्रमशः ‘हिन्दू युग’
और ‘मुस्लिम युग’ नाम दिया गया। इस इतिहासबोध नक ‘धार्मिक समुदाय’ और ‘धार्मिक
अस्मिता’ को भारतीय राजनीति के केंद्रीय सरोकार के रूप में चित्रित किया। 1920 के
दशक में सरकार ने भारत में ‘हिन्दू मुस्लिम’ दंगों की विस्तृत सूची तैयार करना
शुरू किया। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के ‘सांप्रदायिक दंगों की अन्य
स्रोतों से प्राप्त तथ्यों के प्रकाश में औपनिवेशिक व्याख्या की समीक्षा के जरिए
पांडेय ने भारतीय अतीत की औपनिवेशिक रचना पर आधारित सांप्रदायिकता के ऐतिहासिक
चरित्र को उजागर करने की कोशिश की है। मार्ले-मिंटो और मोंटाग-चेम्सफोर्ड सुधारों
पर बहस के दौरान विभिन्न ‘समुदायों’ की अनुमानित जरूरतों और दावों को चिन्हित करने
के लिए, ‘सांप्रदायिक भावना’ साप्रदायिक
प्रतिनिधित्व और प्रतिनिधित्व के ‘सांप्रदायिक सिध्दांत’ जैसे अवधारणाओं का बारबार
हवाला दिया गया। किन्तु ‘सांप्रदायिकता39 की इस अवधारणा का ‘पूर्ण विकसित भारतीय
रूप’ निर्धारित किया 1920 और 30 के दशकों के दौरान औपनिवेशिक परिभाषा की राष्ट्रीय
प्रतिक्रिया ले (पृ. 8) दरअसल ‘भारतीय अतीत का जो खाका आज हमारे सामने है उसका
ढर्रा औपनिवेशिक लेखकों ने तैयार किया था
(पृ . 23)। डार्विन के उपनिवेशवादी अनुयायी ‘राष्ट्र’ और ‘राष्ट्रीय की अवधारणाओं का यूरोपिय
विशिष्टता मानते थे इसलिए उनके अनुसार, वे देसी लोगों पर नहीं लागू हो सकती थी।
देशी लोगों की विशिष्टता को चिन्हित करने के लिए उन्होंने ‘राष्टीय’ के विक्लप के
रूप में ‘सांप्रदायिक’ शब्द का प्रयोग किया। ऐसा करने के पीछे औपनिवेशक शासकों का
प्रमुख उद्देश्य 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सपष्ट रूप से उभरती भारतीय
राष्टीय चेतना को कुंद करना था। इसलिए साम्राज्यवादी ‘नई विश्व व्यवस्था’ के
‘हिंदुत्ववादी’ नुमाइदों द्वारा ‘हिंदुत्व’ या हिंदू सामप्रदायिकता को राष्ट्रीयता
का पर्याय घोषित करने पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
सांप्रदायिकता की अवधारणा के
ऐतिहासिक चरित्र की विवेचना इसलिए और भी जरूरी हो गई है कि सांप्रदायिक संगठन,
अपने विचारों की ऐतिहासिक वैधता स्थापित करने की जी तोड़ कोशिश में लगे हैं।
‘हिदुत्व’ को राष्ट्रीयता का पर्याय घोषित करने वाले राजनीतिज्ञ और उनके साधु-संत
मुस्लिम शासकों द्वारा निर्मित सभी ऐतिहासिक इमारतों को बाबरी मस्जिद की अगली कड़ी
में जोड़ रहे हैं। दुनियाँ के अजूबों में गिने जाने वाले ताजमहल की सुरक्षा के लिए
सेना तैनात करनी पड़ी है। यह कैसी विडंबना है किसी संप्रभु राज्य को ताजमहल जैसी
अपनी अद्भुत ऐतिहासिक धरोहर की अपने ही नागरिकों से रक्षा की जरूरत पड़ गई है?
क्या यह महज संयोग है कि सांस्कृतिक, सामाजिक, धार्मिक और भाषाई विविधता वाली
हमारी इस प्राचीन सभ्यता को साप्रदायिक
राष्ट्रीयताको आक्रमण अभियान का सामना ऐसे समय में करना पड़ रहा है जबकि उसकी अर्थव्यवस्था
पर ‘निजीकरण’ और ‘उदारीकरण’ के रास्ते विकसित पूंजीवादी बाजारों की गिरफ्त कसती जा
रही है? इसे समझने के लिए भारत के अतीत की औपनिवेशक व्याख्या और राष्ट्रवादी
प्रक्रिया को समझना आवश्यक है।
औपनिवेशिक इतिहास लेखन में भारतीय
समाज को उसके वस्तुगत ऐतिहासिक सदंर्भ से काटकर धार्मिक समुदायों और अस्मताओं के
संग्रथन के रूप में परिभाषित किया गया और भारतवासियों की राजनैतिक गतिविधियों को धार्मिक समुदायों हितों की राजनीति के रूप
में। धार्मिक समुदाय की औपनिवेशिक अवधारणा की पुष्टी करने और उसे ऐतिहासिक आधार
प्रदान करने के लिए औपनिवेशिक इतिहासकारों ने भारतीयों की धार्मिक अस्मिता को खोज
सुदूर अतीत में करना शुरू किया। जेम्स मिल व उदार अंग्रेज लेखकों ने भारतीय इतिहास
का काल विभाजन ‘हिंदू युग’ ‘मुस्लिम युग’ और ‘ब्रिटिश युग’ के रूप में किया।
औपनिवेशिक या सांप्रदायिक परिप्रक्ष्य के तहत ऐतिहासिक निरंतरता की पूर्ण अवहेलना
करते हुए, इस युग को एक दूसरे से बिल्कुल अलग करके प्रस्तुत किया गया। राष्ट्रवादी
इतिहास लेखक ने, औपनिवेशिक (या सांप्रदायिक) परिप्रक्ष्य को चुनौती देने की बजाय स्वीकृति ही प्रदान की। फर्क यह था कि
‘हिंद्’ को प्राचीन काल, मुस्लिम युग’ को ‘मध्यकाल’ और ब्रिटिश युग’ को आधुनिक
युग’ नाम दिया। ‘राष्ट्रीय’ इतिहास लेखन ने विदेशी शासन के इस दावे को कि वह इन
धार्मिक विवादों और पूर्वाग्रहों से अलग एक सेकुलर सत्ता का प्रतिनिधित्व करता है।
कोई गंभीर चुनौती नहीं थी अपितु उसी के सैध्दान्तिक आधारों को स्वीकार करते हुए
उदारता का अर्भ्य्थना की।
जैसा कि ज्ञानेन्द्र पांडेय ने
औपनिवेशिक इतिहासलेखन के उद्देश्यों और सांप्रदायिक घटनाओं की बदलती व्याख्याओं की
समीक्षा के जरिए दिखाया है, “लगान और चढ़ावा” की वसूली के बाजार और कच्चेमाल की
तलाश की तरफ बढ़ते औपनिवेशिक अर्थतंत्र की बदलती जरूरतों के चलते भारतीय समाज की
औपनिवेशिक समझ में भी उल्लेखनीय बदलाव देखने को मिलता है”।
19वीं शताब्दी की शुरूआत
में ग्राम समुदाय को भारतीय समाज की प्राथमिक इकाई माना गया और शताब्दी के
उत्तरार्ध तक ग्राम की जगह ‘जाति’ ने ले लिया जो, खासकर 1840 के भारतीय समाज के
संगठन के सिध्दान्त के केंद्र बिंदु बन गयी। भारतीय की पहचान के लिए
‘जाति’ को ‘गाँव’ की तुलना में वरीयता देने के पीछे उत्पादन केंद्रों (यानि) राजस्व
स्रोतों की पहचान प्रमुख उद्देश्य था। इसी आधारणा के तहत ‘जयराम पेशा (आपराधिक
प्रवृत्ति वाली)’ और ‘मार्शल’ जातियों की परिभाषा की गई। 1857 की आजादी की लड़ाई
के बाद औपनिवेशिक इतिहास लेखन में भारतीय समाज की समझ में तब्दीली आई और जाति
समुदाय की जगह धार्मिक समुदाय ने लिया उदाहरण के लिए भारतीय वस्त्र उधोग को गति
प्रदान करने वाले ‘युध्दोन्मादी’ जुलाहे जातीय समुदाय से धार्मिक समुदाय में
तब्दीली कर दिये गए। (पृ. 66.108)। “यदि पूंजीवादी विचारधारा ऐतिहासिक तथ्यों को
अपरिहार्य कोटियों में बदलती है” (आर. बार्धस, माइथा लाजीज, लंदन, 1979 पृ.155) तो
पूंजीवादी उपनिवेशवाद यह काम अंत्यत क्रूरत्मपूर्वक करता है। जिस बात पर जोर देने
की जरूरत है, वह यह है कि ‘मिथ’ या ‘अपरिहार्य कोटि’ न सिर्फ यथार्थ को विकृत करता
है बल्कि ऐसा उसे ऐतिहासिक संदर्भ से अलग करके करता है”। (पृ. 107)
जैसा कि पांडेय ने
औपनिवेशिक दस्तावेजों के हवाले से एक फुटनोट में इंगित किया है पश्चिम भारत के
ब्राह्मणों के समुदाय के बारे में कहा गया कि वे ‘न समझ में आने वाले, झूटे भ्रष्ट
और सिध्दान्तविहीन लोग होते हैं’ (जी.
डब्लू. फारेस्ट, सेलेक्शन्स फ्राम दि
मिनट्स एंड आर आफिसियल राइटिंग्स ऑफ दि ऑनरेबुल माउंट स्टुआर्ट एल्फिन्स्टोन,
गवर्नर बांबे, दंलन, 1884 पृ. 260)। इसी तरह उत्तर पश्चिम सीमांत के पठानों के बारे में कही गया कि वे अंग्रेजों
के संपर्क में आने वाली सबसे बर्बर नस्ल के हैं जो अत्यंत ही “क्रूर, खुनी, और परसंतापी
है। यधपि उनमें साहस की कमी नहीं है फिर भी उन्हैं न तो सत्य की जानकारी है और न
आस्था की (इब्बस्टन, पंजाब कास्ट्स पृ. 302) और इस तरह औपनिवेशिक व्याख्या में
भारतीयों की परिभाषा ‘धूर्त ब्राह्मण’, युध्दोन्मादी जुलाहा’, उत्पाती अहीर, और ‘अपराधी पासी’ के रूप में की
गई। और इस तरह जाति संस्कृति या प्रकृति का अंग बन गई, जिनके बीच सामंजस्य स्थापित
करने के लिए अंग्रेजी राज की निरतरता को अपरिहार्य साबित किया गया (पृ. 107-108)
औपनिवेशिक दस्तीवेजों और
जनगणना में किसी भी व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा का मानक उसकी जीतीय अस्मिता बन
जाने से समाज के तमाम तबकों में ‘संस्कृतीकरण’ और ‘इस्लामीकरण’ की प्रक्रिया शुरू
हुई। जहाँ एक तरफ अहीर, कुर्मी और नोनिया जैसी मध्यम हिंदू जातियों ने यज्ञोपवीत (जनेऊ) धारण करके अपनी
उच्च जातीय (क्षत्रिय) उत्पत्ति का दावा करना शुरू किया। कहीं जुलाहों ने अपने
पांरपरिक हिंदू निम्न जातीय उपनामों को छोड़कर अपने मोमिन, शेख और सैय्यद घोषित
करना शुरू किया। इस प्रक्रिया का विरोध हिंदू और मुसलमान दोनों ही उच्च
वर्गों/जातियों ने किया। यादवों के सशक्त आंदोलन को विरोध में मुसलमान जमींदारों
ने ब्राह्मणों, क्षत्रियों और भूमिहारों की साथ दिया। 20वीं शताब्दी के पहले के
औपनिवेशिक इतिहासलेखन में ‘अखिल भारतीय हिंदू समुदाय’ या ‘अखिल भारतीय मुस्लिम
समुदाय’ की अवधारणाओं का कोई जिक्र नहीं मिलता लेकिन 20वीं शताब्दी के होते ही ये
अवधारणाएं औपनिवेशिक इतिहासलेखन में जोरदार
ढ़ग से उभरकर समाने आती हैं (पृ. 109-157)
1907 के बनारस के
डिस्ट्रक्ट गजेटियर में 1809 के दंगों के बारे में लिखा गया कि यह सेना और पुलिस
के आपसी झगड़ों के चलते हुआ लेकिन ‘निश्चत रूप से इसका कारण हिंदू मुस्लमानों के
बीच की चिरंतन शत्रुता ही थी। ‘ये दंगे पुलिस के ‘पुनर्गठन से शांत किया जा सका।
‘बनारस के इतिहास में उहापोह के दिनों को अंग्रेजों द्वारा ‘शहर को सभ्य बनाकर’
शांत किया जा सके। गजेटियर का यह उल्लेख 1920 और 1930 के दशकों में भारत में
संवैधानिक और राजनैतिक स्थिति के मूल्यांकन के इस्तेमाल किया गया और इतिहासलेखन का
आधार बना। लेखक इस घटना के कारण विभिन्न विवरणों (जिनमें अकारण, मरने वालों की
संख्या और घटना की जगहें बदलती रही हैं) के माध्यम से साबित किया है कि भारत में
उभरते हुए हिंदू-मुस्लमानों के व्यापक तबकों की शिरकत वाले स्वराजी उफान को दबाने
के लिए औपनिवेशिक शासकों और इतिहासकारों ने भारतीय राष्ट्रीयता के बजाय हिंदू
राष्ट्रीयता और मुसलमान राष्ट्रीयता की अवधारणा को स्वीकार करते हुए मुसलमानों से
अंग्रेजी राज को पूर्ण समर्थन देने का आग्रह किया उसी के बाद बनी पंजाब हिंदू सभा
ने मुस्लिम लीग के संपूरक की भूमिका निभाई। 1947 में देश का बंटवारा, औपनिवेशिक
चाल की सफलता थी।
मुस्लिम लीग और जमाते
इस्लामी तथा हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वंसेवक संघ जैसे संगठनों ने ही नहीं
भारतीय धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीयता के पक्षधर नेताओं ने भी इस औपनिवेशिक चाल की
वैचारिक गिरफ्त में अपने को फंसने दिया। (पृ. 233 – 261)। यहाँ तक कि गणेश शंकर
विधार्थी जैसे राष्ट्रवादियों ने भी अंग्रेजी शासन के विरूध्द हिंदू संगठन और सुधार
की बात की। मस्जिद के बाहर हिंदूओं द्वारा बाजा-गाजा के साथ जुलूस को प्रतिबंधित
करने के सरकारी आदेश को अन्य
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