Thursday, March 26, 2020

लल्ला पुराण 277 (योंही)

Vibha Pandey मैं तो नास्तिक हूं, मेरे दादा जी कट्टर कर्मकांडी थे दादी बिना स्नान और पूजा जल नहीं ग्रहण करती थीं, मां भी। मेरे साथ ही रहती थीं, बेटी से कहता कि तुम कितनी भाग्यशाली हो कि बाप की दादी के साथ रहती हो। 100 के आस-पास तक रहीं। मेरी पत्नी पहली बार 9 दिन का ब्रत नहीं रख रहीं। मुझे धार्मिकता से कोई परेशानी नहीं है। मेरी पत्नी रोज एक घंटे पूजा करती हैं। जो बच्चचे दादा-दादी के जितने दुलारे होते हैं वे मां-बाप को भी उतना ही प्यार करते हैं। मेरी दोनों बेटियां कष्टदायक हद तक प्यार करती हैं।

Paritosh Singh मैं कहां कह रहा हूं जो मैं कह रहा हूं, वही सही है। मैं तो अपनी गलती दुरुस्त करने के लिए हमेशा राजी रहता हूं। ऊपर मैंने यही कहा कि हर धर्म, जाति में हर तरह के लोग होते हैं, किसी धर्म या जाति के आधार पर किसी प्रवृत्ति को generalize नहीं किया जा सकता।


रही बात रोटी बनानाे की तो उसमें कौन सी कला है, जब बनाना होगा तो बेटी बना लेगी, वैसे ही जैससे मैं बना लेता हूं। लेकिन बेटी ही रोटी बनाए यह जरूरी नहीं है।

Paritosh Singh हम तो किसी की आस्था का मजाक नहीं उड़ाते। बेबात ईशु-मुहम्मद अभुआऊंगा तो नहीं। एक नास्तिक के लिए कोई भगवान ही जब नहीं होतातो उसके पैगंबर या अवतार कहां से आएगे? सारे धर्मों के कठमुल्ले एक से ही होते हैं इस पर लिखते हो तो उस पर क्यों नहीं? जो भी संदर्भ होगा उसी पर कमेंट करेंगे, जो जानते हैं वही लिखेंगे। मेरे गांव में एक बार मेरे खानदान के एक सज्जन ने मंदिर के लिए चंदा मना करने पर बोले ये मस्जिद के लिए देंगे। अरे मान्यवर, मंदिर के लिए चंदा न देने का मतलब मस्जिद के लिए चंदा देना नहीं होता। अरे भाई संघी न होने का मतलब मुसंघी होना नहीं होता ।

Paritosh Singh अच्छा हुआ सब सीख गए। मेरा मानना है बिना कुछ दिन हॉस्टल में रहे छात्रजीवन अधूरा रह जाता है। मैं भी 12साल की उम्र में गांव से शहर (जौनपुर) आ गया, खाना तो मेस में खता था लेकिन बाकी काम करने ही पड़ते थे। इंचर के बाद इलाहाबाद आ गया तब हॉस्टल में मेलस चलता था। 18 साल में पिता जी से मतभेद और उनकी राय न मानने से उनसे पैसा लेना बंद कर दिया, तबसे अपने बल पर अपनी, भाई तथा बहन की पढ़ाई का इंतजाम किया, इन सबसे आत्मविश्वास अपार हो गया तथा भगवान से भरोसा हटने से अद्भुत आत्मबल का एहसास हुआ, उसी एहसास के साथ 65 की उम्र तक पहुंच गया। इस नतमस्तक समाज में थोड़ सर झुकाकर चलना सीख लेता तो 10 साल पहले नौकरी मिल जाती। लेकिन हर शौक की कीमत चुकानी पड़ती है।

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