यह तो नहीं कहा कि भाषा की तमीज मां-बाप से सीखा, पूछा भर। इंसान भाषा समेत तमाम चीजें घर में सीखता है, बल्कि सीखनेकी शुरुआत घर से ही होती है। आपको यह सवाल आपत्तिजनक तभी लगेगा यदि आपको खुद वह भाषा आपत्तिजनक लगेगी। ऐसी भाषाका इस्तेमाल ही क्यों किया जाय जिसके श्रोत का सवाल आपत्तिजनक लगे। मैं तो मां-बाप से सीखी ब्राह्मणवादी भाषा की तमीज कोशिस करके भूला और जनवादी भाषा सीखा।
मैं तो नास्तिक हूं तो ईश्वर से सद्बुद्धि की प्रार्थना बेकार है। मैं दूसरों के माता-पिता की उतनी इज्जत करता हूं जितनी अपने माता-पिता की। ऐसा पूछने का व्यंजना में मतलब होता है कि ऐसी भाषा से मां-बाप को क्यों शर्मसार कर रहे हैं? बाभन से इंसान बनना एक मुहावरा है, जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना के परिणाम स्वरूप विरासत में मिले पूर्वाग्रह-दुराग्रहों से ऊपर उठकर एक विवेकसम्मत इंसान की स्वअर्जित अस्मिता का निर्माण, जो हर व्यक्ति कर सकता है क्योंकि हर किसी के पास मनुष्य-प्रजाति विशिष्ट चिंतन प्रवृत्ति होती है, जिसे सायास सक्रिय करना पड़ता है। बाभन (या टाकुर,भूमिहार, अहिर ....., हिंदू-मुसलमान) से इंसान बनना एक निरंतर प्रक्रिया है। सादर।
पुनश्च: एक शिक्षक या सार्वजनिक उत्तरदायित्व के पदों पर आसीन अन्य किसी के लिए जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की विरासती प्रवत्तियों से ऊपर उठकर विवेकसम्मत व्यवहार और भी अधिक वांछनीय है। सादर।
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