रूसी क्रांति (1917)
सर्वहारा की तानाशाही के सपने का सच
ईश मिश्र
रूस की नवंबर 1917 में बोल्सेविक क्रांति एक युगकारी क्रांति थी,
जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की धारा ही बदल दी। सदियों पुरानी ज़ारशाही और उसके
सामंती लाव-लश्कर का नामोनिशान मिट गया और रूसी साम्राज्य की जगह सोवियत यूनियन
की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीयसयू) के नेतृत्व में यूनियन ऑफ सोवियत सोसलिस्ट
रिपब्लिक (सोवियत समाजवादी गणराज्यों का संघ) या सोवियत संघ की स्थापना हुई। बोल्सेविक
शब्द दुनिया के सभी साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी खेमों में पूंजीवाद के विनाश
के खतरे के रूप में प्रतिध्वनित होने लगा। उसके विरुद्ध साम्राज्यवादी लामबंदी और
साजिशों का सिलसिला इतिहास बन चुका है।
1917 में रूस में ताबड़तोड़ दो क्रांतियां हुईं – मार्च में पूंजीवादी
जनतांत्रिक क्रांति जिसमें समाज के लगभग सभी तपकों का प्रतिनिधित्व था और नवंबर
में बोसलेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा क्रांति। पहली क्रांति के बाद सदियों
पुरानी जारशाही को मटियामेट कर नई संविधान सभा का चुनाव कराने के मकसद से अंतरिम
सरकार का गठन किया गया। बोलसेविकों के अलावा मार्च क्रांति के सारे दावेदार उसे अब
विश्रामावस्था में रखकर, पश्चिमी देशों के नक्शेकदम पर संसदीय जनतंत्र के निर्माण
के पक्षधर थे। मेनसेविक और नोरोडनिक लोकवाद के वैचारिक उत्तराधिकारी समाजवादी
क्रांतिकारी पार्टी का दक्षिणपंथी घड़ा भी अंतरिम सरकार में शामिल था। लेनिन
क्रांतिकारी परिस्थितियों के महत्व को लगातार रेखांकित करते रहे थे, लेकिन
उन्होंने 1905-07 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद लिखा था कि क्रांतिकारी
परिस्थिति अपने आप में क्रांति की गारंटी नहीं हैं[1]। मार्क्स ने थेसेस ऑन फॉयरवाक
में लिखा है कि चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली
परिस्थियों की। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, उन्हें मनुष्य का सचेतन
प्रयास बदलता है[2]।
लेनिन के नेतृत्व में बोलसेविक पार्टी क्रांतिकारी परिस्थितियों का सदुपयोग करते
हुए मार्च क्रांति को सर्वहारा क्रांति में तब्दील करने की पक्षधर थी। इस तरह रूस
में बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति अल्पजीवी रही, नवंबर क्रांति तक। सर्वहारा क्रांति
और सर्वहारा-स्वशासन (सर्वहारा की तनाशाही) के सिद्धान्तकी संभावनाओं को हकीकत में
बदलने का पहले प्रयास, पेरिस कम्यून (18710) को ‘राष्ट्रीय शत्रुता’ भूलकर यूरोप
की सभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने मिलकर बर्बरता से कुचल दिया था। लेकिन सर्वहारा
विद्रोह की ज्वाला की चिंगारियां सारे भूमंडल की बयार में घुल-मिल गयीं[3]। पूरे
यूरोप में जहां-तहां गिरती और धधकती रही। लगभग सभी देशों में समाजवादी संगठनों का
गठन हो रहा था। पेरिस की सर्वहारा क्रांति तथा अल्पजीवी पेरिस कम्यून को तो यूरोप
के सभी पूजावादी देसों की संयुक्त शक्कि से कुचल दिया गया, लेकिन 1871 की यह
क्रांति भविष्य की क्रांतियों का संदर्भविंदु बन गया और क्मयून सर्वहारा की
मिशाल। कम्यूनार्डों की शहादत से निकली चिंगारियां यूरोप के आसमान में ज्वाला
बन फैल गयी जो में छा गयीं। एक चिंगारी 1917 मार्च में रूसी धरती पर गिरी और भभक
कर, अपराजेय दावानल बन गयी।
पेरिस की सर्वहारा-क्रांति एक नगर के सर्वहारा का विद्रोह था। विकास
के उस स्तर, पर कम्यून के नेतृत्व की दुनिया के मजदूरों एकता की क्रांतिकारी भावना
विश्व गणतंत्र निर्माण के प्रति अगाध प्रतिबद्धता के बावजूद सैद्धांतिक और
रणनीतिक स्पष्टता का अभाव था। नेतृत्व में अराजकतावादी (प्रूदों के अनुयायी) तथा
बब्वॉयफ के आदिम साम्यवाद के सपने के लिए समानता की साजिश के उत्तराधिकारी,
ब्लांकी के अनुयायियों का बहुमत था। पहले इंटरनेसनल के मार्क्स के अनुयायियों की
संख्या नगण्य थी। दरअसल मार्क्स ने क्रांति को नेताओं को सशस्त्र क्रांति के लिए
वक्त की अपरिपक्वता के विश्लेषण के साथ और क्रांति को टालने के संदेश भी भेजे थे।
लेकिन जब क्रांति हो ही गयी तो जी-जान से उसके साथ हो गए। यह मार्क्सवादी अर्थों
में समाजवादी क्रांति नहीं थी। यहां पेरिस कम्यून के उत्थान-पतन के विश्लेषण की न
तो गुंजाइश है, न जरूरत[4]।
मार्क्स ने फ्रांस में गृहयुद्ध[5]
में इसका सटीक विश्लेषण किया है।
नवंबर, 1917 की बॉलसेविक क्रांति सैद्धांतिक और रणनीतिक स्पष्टता के
साथ, मार्क्सवादी अर्थ में पहली सामाजवादी, सर्वहारा क्रांति थी। बोलसेविक क्रांति
रूसी साम्राज्य के सर्वहारा और किसानों का क्रांतिकारी उद्गार था। पेरिस कम्यून
यूरोप की प्रतिक्रियावादियों ताकतों की आंखों की किरकिरी बन गया था जिसे उन्होंने
राष्ट्रीय शत्रुता’ भूल, मिलजुल कर अमानवीय बर्बरता से निकाल दिया[6],
लेकिन जॉन रीड के शब्दों में, 10 दिनों में दुनिया को हिला देने वाली बोलसेविक
क्रांति, अजेय साबित हुई और उससे उपजा सोवियत संघ वीसवीं सदी की संध्या तक दुनिया
की सभी तरह के प्रतिक्रियावादियों और साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देते हुए
उनकी आंखों की किरकिरी बना रहा। साम्राज्यवादी हमले के खतरों और अंतर्राष्ट्रीय
वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा एवं अपने अंतर्विरोधों के भार से सोवियत संघ के विघटन और
पूंजावाद की पुनर्स्थापना के पहले अमेरिका साहस नहीं कर सकता था कि जिस-किसी बहाने
जहां चाहे, जितने बम गिरा दे। जब भी ऐसा किया मुंहकी खायी, चाहे क्यूबा रहा हो या
उत्तरी कोरिया या वियतनाम। गौरतलब है कि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय अमेरिकी
सरकार ने पाकिस्तान की मदद में जब परमाणु शस्त्रों से लैस सातवां बेड़ा रवाना
किया था तो सोवियत संघ ने महज घोषणा की कि उनका सत्ताइसवां बेड़ा प्रतिकार के लिए
तैयार है। थूक कर चाटते हुए अमेरिकी सरकार को अपने युद्धपोत को बीच रास्ते रोक
देना पड़ा। बोलसेविक क्रांति पर जॉन रीड की आंखो-देखे विवरण, वो दस दिन जब दुनिया
हिल उठी से शुरू करके अनगिनत ग्रंथ लिखे जा चुके हैं इसलिए क्रांति की परिघटनाओं
और गृहयुद्ध (1917-23) की जटिलताओं के विस्तार में जाने की थोड़ी जरूरत तो है,
लेकिन ज्यादा गुंजाइश नहीं है। क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रतिक्रियाओं की
संक्षिप्त चर्चा; सामंती अवशेषों पर, समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया और बाधाओं तथा
सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत और व्यवहार के अंतरविरोध; तीसरे अंतरराष्टीय के
गठन और अंतर्राष्टीय समाजवादी तथा राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों पर इसके प्रभाव की
संक्षिप्त समीक्षा का प्रयास किया जाएगा।
मार्क्सवादी अर्थों में यह पहली समाजवादी, सर्वहारा क्रांति थी, ऊपर
यह बात पेरिस कम्यून के सापेक्ष कही गयी है। मार्क्सवादी राजनीति को वर्ग संघर्ष
की राजनीति भी कहा जाता है तथा व्यापक अर्थों में शासक वर्ग के किसी भी अन्याय के
विरुद्ध शासित वर्ग का कोई भी संघर्ष वर्ग संघर्ष की कोटि में आता है। ऊपर कहा गया
है कि मार्क्सवादी सिद्धांतो पर आधारित यह पहली सर्वहारा क्रांति है। हिंदी पट्टी
के उन पाठकों के लिए, जिनको मार्क्सवाद की जानकारी है, या कहासुनी पर आधारित है, मार्क्सवाद
क्या है, सवाल का संक्षिप्त जवाब लाजमी बनता है। अफवाहजन्य इतिहासबोध के प्रतिक्रियावादी
भोंपू मीडिया-सोसल मीडिया में, संशोधनवाद के अंतिम द्वीप, त्रिपुरा के पतन के बाद,
मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रहे हैं[7]।
सोवियत संघ के पतन के बाद, भूमंडलीय पूंजी के इनके अग्रज भोंपू इतिहास के अंत की
घोषणा कर रहे थे[8]।
मार्क्सवाद वैज्ञानिक विचारों का एक समुच्चय है । विचार मरते नहीं, आगे बढ़ते हुए इतिहास रचते हैं। इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं
होता, अंततः आगे ही जाती है, छोटे-मोटे यू टर्नों के बावजूद।
मार्क्सवाद क्या है?
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि मार्क्सवाद
वैज्ञानिक सिद्धांतो के आधार दुनिया को सनमझने और बदलने की एक चिंतनधारा है जिसका
नाम इस धारा के प्रवर्तक, कार्ल मार्क्स (1818-183) के नाम पर पड़ा। वे एक
क्रांतिकारी बुद्धिजीवी थे जो पूंजीवादी विकास के शोषण-दमनकारी व्यवस्था को समझना
ही नहीं, बदलना भी चाहते थे। उन्होंने बौद्धिक जीवन की शुरुआत में अपने विचारों की
क्रांतिकारिता की घोषणा कर दिया था। “दार्शनिकों ने अन्यान्य तरीकों दुनिया की
व्याख्या की है, लेकिन जरूरत इसे बदलने की है”[9]। उनके
जीवन काल में ही उनके सिद्धांतों पर आधारित, मार्क्सवाद एक चिंतनधारा बन चुकी था।
कई छोटे-छोटे मार्क्सवादी समूह बन चुके थे। मार्क्स की शवयात्रा में कम उपस्थिति
के संदर्भ में, अपने अंत्येष्टि भाषण में एंगेल्स ने कहा था कि वह दिन दूर नहीं जब
पूरी दुनिया मार्क्स के पक्ष-विपक्ष में खड़ी होगी। तीन दशक से कम समय में ही
बॉलसेविक क्रांति ने इस भविष्यवाणी को सच कर दिया। सारी दुनिया दो खेमों में बंट
गई मार्क्स के पक्ष और विपक्ष में -- राजनैतिक और बौद्धिक दोनों अर्थों में।
मार्क्स के निधन के बाद 1889 में गठित दूसरे इंटरनेसनल के लगभग सभी घटक मार्क्सवाद
को ही अपना वैचारिक श्रोत मानते थे, जैसे भारत की दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट
पार्टियां मानती हैं। एंगेल्स ने अपने उसी अंत्येष्टि भाषण में यह भी कहा था कि
जिस तरह डार्विन ने जीवन के विकास के नियमों की व्याख्या किया उसी तरह मार्क्स ने
इतिहास के नियमों की[10]। मार्क्सवाद
विज्ञान है तथा मार्क्स विज्ञान को गतिशील मानते थे, इसीलिए यह कोई स्थिर आस्था
नहीं गतिशील विचार है, जिसके बौद्धिक संसाधन मार्क्स तथा एंगेल्स की ही रचनाओं के
भंडार तक सीमित नहीं है। ज्ञान की ही तरह विज्ञान भी एक निरंतर प्रक्रिया है,
मार्क्सवादी परिप्रक्ष्य से अपनी परिस्थिति को समझने और बदलने के प्रयास करने
वाले, लेनिन, माओ, भगत सिंह, ग्राम्सी, चे ग्वेयरा आदि की रचनाओं से यह भंडार
लगातार संवृद्ध होता रहा है।
मार्क्स के जीवन के बारे में बहुत लिखा जा
चुका है, उस पर चर्चा की यहां न तो गुंजाइश है न जरूरत। एकाध बातों का जिक्र यह
रेखांकित करने के लिए जरूरी है कि शासक वर्ग और उनके भोंपू, सदा से ही वैज्ञानिक
विचारों से आक्रांत होते रहे हैं और विचारों से भयभीत हो विचारक को कत्ल; दर-ब-दर
और कैद करते रहे हैं। सुकरात से शुरू होकर बरास्ते ब्रूनो; गैलीलियो; दिदरो, रूसो;
ब्लांकी; मार्क्स; भगत सिंह; ग्राम्सी; चे; ... की मिशालों की ऐतिहासिक निरंतरता
है। मार्क्स 1841 में प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शन पर पीयचडी जमा करने करने
के पहले ही सर्वहारा के रूप में इतिहास के नए नायक का अन्वेषण कर चुके थे[11] तथा
छात्र जीवन में यंग हेगेलियन के सदस्य के रूप में छात्र-राजनीति में भी सक्रिय
थे।एक कहावत है, ‘होवहार विरवान के होत चीकनो पात’। विश्वविद्याय में नौकरी मिलने
से रही। कोलोन में एक पत्रिका में नौकरी कर लिया और संपाक बन गए। ‘सत्य वही जो
प्रमाणित हो व्यवहार में’[12] लिखने
के पहले ही पत्रकार के रूप में प्रमाणित कर सत्य लिखने लगे थे। एक कहावत है,
‘जंह-जंह पांव पड़ैं, संतन कै, तंह तंह बंटाधार’। तो शासकवर्गों के कानों में
‘राष्ट्र की सुरक्षा’ और ‘शांति’ के लिए खतरे की घंटी बजने लगी और अखबार बंद कर
दिया गया तथा मार्क्स ने भाग कर फ्रांस में शरण ली। कहने का मतलब, हेगेल के अधिकार
के दर्शन की समीक्षा में एक योगदान [1843-44] तथा आर्थिक और दार्शनिक
मैनुस्क्रिप्ट (पेरिस मैनुस्क्रिप्ट) [1844] के प्रकाशन के साथ यूरोप के बौद्धिक
जगत में क्रांतिकारी लहजे में प्रवेश के पहले ही, 24 साल के एक युवक के कलम का
इतना आतंक कि उसका अपनी धरती पर मौजूदगी ही राष्ट्र के लिए खतरा बन गया। वह
ताजिंगी इंकिलाब की अलख जलाते दर-बदर भटकता रहा।
1848 तक उनका फ्रांस में भी रहना खतरनाक
हो गया और भागकर बेल्जियम गए, जहां उन्होने एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट
मैन्फैस्टो की रचना की। राष्ट्र की सुरक्षा के खतरे का भूत वहां भी नहीं साथ
छोड़ा, उन्हें बेल्जियम भी छोड़ना पड़ा। राज्यविहीन विचारक के रूप में लंदन में
बीती। वैसे भी उनका सपना राज्य-विहीन दुनिया का था, व्यक्ति की राज्य विहीनता का
नहीं। भूमंडलीय लूट के प्रमुख औजार हैं, राष्ट्र-राज्य की सरकारें, क्रांति भी
राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमा में ही होगी। युगचेतना की धारा के विपरीत विचार
जल्दी पचते नहीं। समकालीन शासक वर्गों तथा उदारवादी और अराजकतावादी बुद्धिजीवियों
के कोप-पात्र बन गए। तरह-तरह के कुप्रचार तथा विचारों पर सवाल होने लगे। जिसका
वाजिब समझते थे जवाब देते थे, बाकी नजर-अंदाज कर देते थे। अराजकतावादी दार्शनिक,
जोसेफ पियरे प्रूधों ने सर्वहारा के नायकत्व की मारक्स की अवधारणा का मजाक उड़ाते
हुए, एक किताब लिख मारा, गरीबी का दर्शन[13] जो
नवीनता के अभाव में, कोई खास प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही। मार्क्स ने जवाब में दर्शन
की गरीबी[14] लिखा जो
एक कालजयी कृति बन गयी। सब रचनाएं अपनी परिस्थितियों को ही संबोधित करती हैं, अतः
समकालिक होती हैं, महान रचनाएं, सर्वकालिक, कालजयी बन जाती हैं। इसमें ऐतिहासिक
भौतिकवादी उपादान की पहली स्पष्ट झलक मिलती है।
“आर्थिक
परिस्थितियों ने आम ग्रामीण जनता को मजदूर बना दिया। पूंजी के प्रभुत्व ने सबकी
परिस्थितियां और हित एकसमान कर दिया है। अतः पूंजी की विरुद्ध अधीनता की समान
स्थिति को अर्थ में अपने आप में वर्ग है, लेकिन अपने लिए नहीं। संघर्षों के
दौरान यह जनसमूह एकता बद्ध रूप से संगठित होता है तथा अपने लिए वर्ग बन
जाता है। जिन हितों की यह रक्षा करता है, वर्ग हित बन जाता है”[15]।
‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ की
यात्रा का वाहन है, वर्गचेतना। वर्ग और वर्ग चेतना पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश तो
नहीं है, लेकिन एक अतिसंक्षिप्त विवरण आवश्यक लगता जिसकी कोशिस आगे की जाएगी। इतिहास
के विरले चरित्रों के जीवन बहुत रोचक होते हैं। लालच समेटते हुए मार्क्स की जीवनी
उनके लेखन काल के शैशवकाल में ही छोड़, मार्क्सवाद की इस लेख के लिए प्रासंगिक,
कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा के साथ, रूसी क्रांति के मूल विषय पर आते
हैं। मार्क्स बुद्धिजीवी-क्रांतिकारी नहीं थे, क्रांतिकारी-बुद्धिजीवी थे। पूंजी लिखना
पूरा करने के लिए फर्स्ट इंटरनेसनल की गतिविधियों से समय चुराते थे[16]।
व्यवस्था बदलने के लिए उसके के गतिविज्ञान
के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के
दार्शनिक आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान का अन्वेषण किया। द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद इसका विज्ञान। इन पर
विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेकिन कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा
अप्रासंगिक न होगी।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
किसी भी
नई चिंतन धारा का उदय और विकास उस समय के ऐतिहासिक संदर्भ में प्रचलित चिंतन
धाराओं के सापेक्ष होता है। उस समय यूरोपीय दार्शनिक गगन में दो प्रमुख
चिंचनधाराएं प्रचलित थीं, हेगेल का द्वंद्ववाद और फॉयरवाक का भौतिकवाद। मार्क्स
उन्हें चुनौती देते हैं; खारिज करते हैं; उनका कायाकल्प कर, उनकी द्वंद्वात्मक एकता स्थापित कर, जोड़कर एक
नया सिद्धांत देते हैं, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद। हेगेल का मानना था कि
यथार्थ पूर्णतः या काफी हद तक विचारों से निर्मित है और दृष्टिगोचर जगत विचारों के
अदृश्य जगत की छाया मात्र है। मार्क्स द्वंद्वात्मक उपादान के लिए हेगेल का आभार
व्यक्त कर इसे आदर्शवाद कह कर खारिज किया। उन्होंने कहा कि हेगल ने वास्तविकता को
सर के बल खड़ा किया है उसे पैर पर खड़ा करना है। विचार से वस्तु की उत्पत्ति नहीं,
वस्तु से विचार की उत्पत्ति होती है। ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार से पहले से
विद्यमान होती है तथा ऐतिहासिक रूप से विचार वस्तुओं से ही निकले हैं, निर्वात से
नहीं। न्यूटन के गुरुतवाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का गिरना शुरू नहीं हुआ बल्कि
सेबों का गिरना देख कर उनके दिमाग में उसका कारण जानने का विचार आया। सेबों के
गिरते देखकर ‘क्या’ सवाल का उत्तर दिया जा सकता है, ‘क्यों’ का नहीं। क्यों, कैसे,
कब और कितना का जवाब न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत से मिलता है। यथार्थ की
संपूर्णता का निर्माण सेब गिरने की घटना (वस्तु) और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के
नियम (विचार) की गतिशील द्वंद्वात्मक सम्मिलन से होता है।
फॉयरबॉक
का वैज्ञानिक युग का भौतिकवाद विचारों को सिरे से खारिज करके कहता है भौतिकता ही
सब कुछ है, जिसे मार्क्स मशीनी भौतिकवाद या प्रतीकात्मक (मेटाफरिकल) भौतिकवाद कह
कर खारिज करते हैं। मार्क्स थेसेस ऑन फॉयरबाक में फॉयरबॉक से सहमति जताते
हुए लिखते हैं कि मनष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली
हुई चेतना बदली हुई परिस्थितियों की। लेकिन न्यूटन के गति के नियम के अनुसार बिना
वाह्य बल के कोई वस्तु हिलती भी नहीं। भौतिक परिस्थितियां आपने आप नहीं बल्कि
मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं[17]।
अतः इतिहास की गति का निर्धारण भौतिक परिस्थितियों और सामाजिक चेतना की
द्वंद्वात्मक एकता से होता है, किसी ईश्वर, पैगंबर, अवतार की इच्छा या कृपा-दुष्कृपा से नहीं।
इस
तरह हम देखते हैं मार्क्स ने सत्य की व्याख्या की अपने समय की प्रचलित दो प्रमुख
परस्पर-विरोधी चिंतनधाराओं: हेगेले का द्वंद्वाद तथा फॉयरबाक के
भौतिकवाद संदर्भविंदु बनाया; ललकारा तथा खारिज किया; उनकी द्वंद्वात्मक एकता
से सत्य की एक नई व्याख्या की चिंतनधारा, नए दर्शन का उद्घाटन किया – द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद। हेगेल के द्वंद्वाद को उन्होंने आदर्शवादी करार दिया क्योंकि वस्तु
पर विचार की प्राथमिकता के साथ यथार्थ को सिर के बल खड़ा किया था। विचार से वस्तु
नहीं बनती बल्कि वस्तु से विचार निकलते हैं। ईश्वर ने मनुष्य को नहीं बनाया बल्कि
मनुष्य ने ईश्वर की अवधारणा गढ़ी। उन्होंने वस्तु को ही संपूर्ण सत्य मानने वाले
फॉयरबाक के भौतिकवाद को प्रतीकात्मक कह कर खारिज किया कि विचारों के बिना
वस्तु प्रकृति की गतिशीलता के प्रकृति के विरुद्ध जड़ता में जकड़ी रहेगी। वस्तु
अर्ध सत्य है, उसके विचारों से द्वंद्वात्मक मिलन से सत्य बनता है।
एंगेल्स
ने लुडविग फॉयरवाक और जर्मन दर्शन का अंत में लिखा है, “किसी भी अन्य
दार्शनिक कथन की संकीर्ण सरकारों ने इतनी प्रशंसा नहीं की और न उतने ही संकीर्ण
उदारवादियों ने इतनी निंदा जितनी की हेगेल के निम्न कथन की:
‘जो भी वास्तविक है, वह विवेकसम्मत है; और जो भी विवेकसम्मत है वह वास्तविक
है’।
प्रकारांतर
से यह निरंकुश शासन, पुलिसिया सरकार, ... और सेंसरशिप को समर्पित दार्शनिक
मंगलकामना है। … लेकिन वे हर वजूददार चीज को वास्तवुक नहीं मानते थे। हेगेल के लिए
वास्तविकता उसी का गुण है जो वास्तविक है।
‘अपने विकास क्रम में वास्तविकता आवश्यकता बन जाती है’
एंगेल्स
‘मियां की जूती मियां के सिर’ कहावत चरितार्थ करते हुए हेगेल के ही द्वंद्ववाद
विपरीत, क्रांतिकारी निष्कर्ष निकालते हैं। “रोम गणतंत्र वास्तविक था और उसकी जगह
आया रोम साम्राज्य भी वास्तविक था। 1789 में फ्रांस की राजशाही इतनी अवास्तविक
यानि अनावश्यक हो गयी कि महान क्रांति को उसे ध्वस्त करना पड़ा। राजशाही अवास्तविक
हो गई थी और क्रांति वास्तविक, अतः विवेकसम्मत”[18]।
कहने का मतलब जिसका भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है।
द्वंद्वात्मक
भौतिकवाद पर संक्षिप्त चर्चा लंबा विषयांतर हो गया। उपरोक्त चर्चा के निष्कर्ष
स्वरूप हम पाते हैं कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के निम्न नियम हैं:
1. यथार्थ (सत्य) वस्तु और विचार का
द्वंद्वात्मक युग्म है, जिसमें प्राथमिकता विचारों की है। इस नियम को ऊपर, वस्तुओं
के ऊर्ध्वाधर पतन (वस्तु) और न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण के नियम की द्वंद्वात्मक
एकता के द्वांद्वात्मक एकता से सत्य की संपूर्णता के निर्माण के उदाहरण से दर्शाने
की कोशिस की गई है। वस्तु और विचार की द्वंद्वात्मक एकता की प्रक्रिया, या दूसरे
शब्दों में दोनों की एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया की निरंतरता ही पाषाणयुग से
साइबरयुग तक मानव इतिहास की यात्रा की संचालक शक्ति रही है। मार्क्स पूंजीवाद के
राजनैतिक अर्थशास्त्र, वर्गीय अंतर्विरोध तथा वर्ग संघर्ष के विश्लेषण में इसी
द्वंद्ववाद का इस्तेमाल करते हैं। “अभी तक के समाजों का इतिहास वर्ग संघर्षों का
इतिहास रहा है”[19]
2. प्रकृति की द्वंद्वात्मकता की प्रकृति
परिवर्तन की निरंतरता है, जिसके गतिविज्ञान के अपने नियम हैं[20]। सतत
क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में परिपक्व हो, गुणात्मक क्रांतिकारी
परिवर्तन बन जाता। पिछले 40 सालों में भारत में क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तनों के
साफ-साफ दिखने वाले उदाहरण हैं: दलित- सशक्तीकरण तथा स्त्री-सशक्तीकरण। स्त्री
प्रज्ञा तथा दावेदारी और दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी के रथ, मंद गति से शुरू हो
त्वरित गति से आगे बढ़ रहे हैं। आज किसी का नैतिक साहस नहीं है कि कहे कि वह
बेटा-बेटी में फर्क करता है, एक बेटे के लिए 4-5 बेटियां भले पैदा कर ले। उसी तरह
बड़े-से-बड़ा जातिवादी भी सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह जाति-पांत में विश्वास
करता है, बल्कि तमाम मनुवादी किसी दलित के घर टीवी पर प्रचार के साथ भोजन करना
प्रायोजित करते हैं। वैसे तो कोई परिवर्तन विशुद्ध मात्रात्मक नहीं होता। यह
क्रमशः स्त्रीवाद तथा जातिवाद-विरोध की सैद्धांतिक विजय है, इसीलिए अभी तक यह
मात्रात्मक परिवर्तन है। क्रांतिकारी, गुणात्मक परिवर्तन विचारधारा के रूप में
क्रमशः मर्दवाद तथा जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के विनाश के खंडहरों पर उगेंगे।
3. द्वंद्वात्मक समग्रता के दोनों परस्पर-विपरीत
के पारस्परिक निषेध से तीसरे उच्चतर की तत्व की उत्पत्ति होती है जो दोनों से गुणात्मक
तौर पर भिन्न होता है लेकिन दोनों के तत्वों को समाहित किए हुए। इस नियम को
वाद-प्रतिवाद-संवाद (Thesis,
anti-thesis, synthesis) का नियम भी कहते हैं। इसे दो परस्पर विपरीत
रासायनिक गुणों वाले, हाइड्रोक्लोरिक एसिड तथा सोडियम हाइड्रॉक्साइड की रासायनिक
क्रिया (द्वंद्वात्मक योग) के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है।
HCl + NaOH=NaCl+H2O
दो विपरीत रासायनिक गुणों वाले
तत्व पारस्परिक निषेध की क्रिया से तीसरे बिल्कुल भिन्न तत्व पैदा करते हैं। शरीर
को हानिकरक दो विपरीत तत्वों की द्वंद्वात्क एकता से तीसरा तत्व बना जो जीवन के
लिए अनिवार्य है। 1917 की क्रांतिकाकी परिस्थियों ने क्रांतिकारी चेतना पैदा किया
क्रांतिकारी परिस्थितियों और क्रांतिकारी चेतना से लैस मनुष्य की द्वंद्वात्मक
एकता के परिणामस्वरूप नवंबर क्रांति हुई।
4.जिसका
भी अस्तित्व है उसका अंत निश्चित है, पूंजीवाद अपवाद नहीं हो सकता इसे नियम की
बजाय प्रकृति की ऐतिहासिक प्रवृत्ति कहना ज्यादा उचित है।
ऐतिहासिक
भौतिकवाद
द्द्वात्मक
भौतिकवाद पर चर्चा से लंबा विषयांतर हो गया लेकिन मार्क्सवाद के दर्शन के साथ
मार्क्सवाद के विज्ञान की एक अतिसंक्षिप्त चर्चा वांछनीय है। ऐतिहासिक भौतिकवाद का
मूलमंत्र है: अर्थ ही मूल है। यह एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण है जो समाज के आर्थिक विकास को
इतिहास के गतिविज्ञान की कुंजी मानता है। इतिहास के सभी कारण-कारक की उत्पत्ति, “उत्पादन
पद्धति में परिवर्तनों और विनिमय तथा परिणामस्वरूप विभिन्न वर्गों में समाज का
विभाजन और वर्ग संघर्ष में निरूपित करता है”[21]। सत्य
वही जो तथ्य-तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा सके। मार्क्स, राजनैतिक
अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान[22]
की प्रस्तावना के निम्न लंबे उद्धरण में ऐतिहासिक भौतिकवाद का सार है।
“अपने सामाजिक उत्पादन के दौरान, भौतिक
उत्पादन के विकास के विशिष्ट चरण के अनुरूप मनुष्य विशिष्ट संबंधो में बंध जाते
हैं, उत्पादन के सामाजिक संबंध, जो अपरिहार्य और अपनी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं।
इन्ही संबंधों के योग से समाज का आर्थिक ढांचा तैयार होता है, जो वास्तविक बुनियाद
है बुनियाद है जो पर कानूनी और राजनैतिक ढांचों का निर्धारण करता है, और जिसके
अनरूप सामाजिक चेतना का विशिष्ट स्वरूप होता है। भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली,
सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक गतिविधियों के सामान्य स्वरूप का निर्धारण करती है। मनुष्य
की चेतना उसके अस्तित्व का निर्धारण नहीं करती बल्कि उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी
चेतना का निर्धारण करता है। विकास के एक खास चरण में समाज की भौतिक उत्पादन की
शक्तियों और मौजूद उत्पादन संबंधों, कानूनी भाषा में संपत्ति के संबंधों में टकराव
की स्थिति पैदा होती है। मौजूदा उत्पादन संबंध उत्पादक शक्तियों के आगे विकास में
बाधक बन जाते हैं। तब शुरू होता है सामाजिक क्रांति का युग। आर्थिक बुनियाद में
परिवर्तन से देर-सबेर सभी अधिरचनाओं में तदनुरूप आमूल परिवर्तन हो जाता है। इन
परिवर्तनों के अध्ययन में प्राकृतिक विज्ञान की तरह सही सही ज्ञात किए जा सकने
वाली भौतिक उत्पादन आर्थिक परिस्थियों और वैझानिक, राजनैतिक, धार्मिक, कला संबंधी,
य दार्शनिक – कुल मिलाकर विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्न में, फर्क करना जरूरी
है। विचारधारात्मक स्वरूप में परिवर्तन से मनुष्य इन अंतरविरोधों के प्रति जागरूक
हो संघर्ष करता है।”
ऐतिहासिक
भौतितवाद एक व्यवहारिक विज्ञान है। उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के आधार पर यह
मानव इतिहास का युग निरूपण करता है: आदिम उत्पादन प्रणाली पर आधारित आदिम साम्यवाद
का युग; दास उत्पादन प्रणाली का दास युग तथा सामंती प्रमाणी का सामंतवादी युग तथा
अंतिम वर्ग समाज, पूंजीवादी उतपादन प्रणाली पर आधारित पूंजीवादी युग जिसके अंत के
बाद वर्ग विहील, राज्य विहीन साम्यवादी युग, जो निरंतर सर्वहारा क्रांतियों से
आएगा मगर जिसकी समय-सीमा नहीं तय की जा सकती[23]।
मार्क्स-एंगेल्स
कम्यनिस्ट घोषणा पत्र के शुरू में ही लिखते हैं कि समाज का इतिहास
वर्ग संघर्षों का इतिहास है और कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास 200 साल से कम।
कहने का मतलब यह कि वर्ग समाज में शोषण-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आंदोलन
वर्ग संघर्ष के ही हिस्से हैं. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्क्स का आकलन था
कि क्रांति विकसित पूंजीवादी देश में होगा जहां प्रचुरता का बंटवारा मुद्दा होगा।
लेकिन मार्क्स ज्योतिषी नहीं थे। मार्क्स के विकास के चरण के सिद्धांत से इतर
मार्क्सवाद की विचारधारा की पहली क्रांति रूस में हुई जहां पूंजीवाद लगभग अविकसित
था और सामंती उत्पादन संबंध सजीव थे। क्रांति की दो शर्तें हैं, क्रांतिकारी
परिस्थितियां और सजग-संगठित क्रांतिकारी पार्टी रूस में दोनों का समागम हुआ, और
जैसा ऊपर कहा गया है 1917 में ताबड़-तोड़ दो क्रांतियां हुईं, मार्च की बुर्जुआ
जनतांत्रिक क्रांति और नवंबर में सर्वहारा क्रांति। आबादी में किसानों और कारीगरों की संख्या अधिक
थी। किसानों की लामबंदी के लिए ‘जो जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए’ का
नारा दिया गया था।
मार्च क्रांति
मार्क्स का मानना था कि एक
तरफ पूंजीवाद के विकास के साथ इसके अंतरविरोध गहराते जाएंगे और दूसरी तरफ तकनीकी
विकास से श्रम की उत्पादकता में वृद्धि से उत्पादन के प्रतिष्ठानों का विस्तार
होगा और समानुपातिक तो नहीं फिर भी श्रमशक्ति में सापेक्ष वृद्धि होगी तथा
श्रम-सामाजिकरण यानि आपसी मेलजोल, निचार-विमर्श तथा संवाद के परिणामस्वरूप
वर्गचेतना का विकास होगा और वर्गहित के आधार पर सर्वहारा संगठन। इन स्थापनाओं के
आधार पर उनका आकलन था कि सर्वहारा क्रांति की शुरुआत विकसित पूंजीवादी देशों में
होगी। मार्क्स कोई ज्योतिषी तो थे नहीं। इतिहास आगे बढ़ने के साथ-साथ अपने
गतिविज्ञान के नियम गढ़ता जाता है। नवउदारवादी पूंजावाद में उत्पादन के
अनौपचारीकरण तथा आउटसोर्सिंग ने दानों ही मान्यताओं को अंशतः अमान्य कर दिया है[24]।
1881 में मार्क्स ने भविष्य के वर्गहीन समाज के खाके के पर में सवाल के जवाब में
एक पत्र में लिखा थी की भविष्य की पीढ़ियां अपना कार्यक्रम खुद बना लेंगी। भविष्य
की क्रांति के कार्यक्रम तथा क्रांति-उपरांत समाज की रूपरेखा में उलझना वर्तमान
संघर्षों से विषयांतर होता है।
उन्होने सोचा था कि पूंजीवाद के विकास के चरम पर उत्पादन की प्रचुरता
होगी और मुद्दा होगा प्रचुरता के बंटवारे का। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से
क्रांतिकारी परिस्थितियां बनीं औद्योगिक रूप से पिछड़े एक कृषि प्रधान देश में
जहां प्रचुरता के बंटवारे की जगह अभावों में साझेदारी का मुद्दा था जिसे युद्ध,
गृहयुद्ध तथा महामारी की तबाहियों से और भी जटिल हो गया था। एटींथ ब्रुमेयर ऑफ
लुई बोर्नापार्ट में मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य अपने इतिहास का निर्माण खुद
करता है लेकिन अपनी इच्छानुसार नहीं, न ही अपनी पसंद की परिस्थितियों में, बल्कि
विरासत में मिली परिस्थितियों में[25]।
क्रांतियां कभी बेकार नहीं जातीं, वे भविष्य की क्रांतियों को
संदर्भविंदु और प्रेरणा श्रोत प्रदान करती हैं। डूमा (संसद) की पुनर्स्तापना, 1905
की क्रांति की उल्लेखनीय उपलब्धि थी। इस और अन्य रियायतों के चलते, 1905-07 की
क्रांति में भागीदार ज्यादातर दलों के समझौतावाद और डुमाओं (विधायिकाओं) में
भागीदारी से ज़ारशाही से सहयोग के संदर्भ में लेनिन ने कहा था कि रूस
प्रतिक्रियावाद के ऐसे दौर में पहुंच गया है जो य़दि युद्ध न हुआ तो कम से कम 20
साल चलेगा[26]। मार्क्स
ने एटींथ ब्रुमेयर ऑफ ऑफ लुई बोनापार्ट में लिखा है कि मनुष्य अपना इतिहास
स्वयं बनाता है लेकिन जैसा चाहे वैसा नहीं, न ही अपनी चुनी परिस्थिति में बल्कि
अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियो में[27]।
जार ने देश को साम्राज्यवादी युद्ध (विश्वयुद्ध-1) में झोंक दिया, जिसके
उपपरिणामस्वरूप क्रांतिकारी परिस्थितियां पैदा हो गयीं। औद्योगिक रूप से पिछड़े
देश में युद्ध ने तबाही पैदा कर दी। 1917 मार्च तक जन-असंतोष का बांध टूट गया और
सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जो ज़ार निकोलस द्वितीय के सिंहासन को बहा ले गया।
1905 की ही तरह 1917 की
क्रांति भी स्वस्फूर्त थी, लेकिन क्रांतियां एकाएक किसी आसमान से नहीं टपकती,
बल्कि क्रांतिकारी परिस्थिथियों और शक्तियों की लंबी ऐतहासिक प्रक्रिया का परिणाम
होती हैं। जारशाही के कुशासन और भ्रष्टाचार तथा आर्थिक तंगी के चलते, जन-असंतोष
1890 के दशक से ही जोर पकड़ रहा था तथा मजदूर, किसान और बुद्धिजीवी अलग अलग
संगठनों में लामबंद हो रहे थे, जिसका पहला विस्फोट 1905 में हुआ[28]।
1907 में डूमा की बहाली के बावजूद ज़ार ने सुधार के या आर्थिक विकास का कोई सार्थक
काम नहीं किया। अमीरी-गरीबी की खाई गहराती गयी। युद्ध में शिरकत के ज़ार के
आत्मघाती कदम ने आग में घी का काम किया। शिकस्त-दर-शिकस्त से जार की शासन क्षमता
और पात्रता की विश्वसनीयता हर तपके में घटती गयी। 8 मार्च 1917 को अंतर्राष्ट्रीय
महिला दिवस के दिन लोगों के असंतोष की दरिया के तटबंध टूट गए पेट्रोग्राड (सेंट
पीटर्सबर्ग) की सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जिसकी शुरुआत 4 मार्च को ही हो गयी
थी। मार्क्स ने इंटरनेसनल के पहले संबोधन में मजदूर अंतर्राष्ट्रीयता की प्रक्रिया
में धन-जन की अपूरणीय क्षति की कीमत पर युद्धोंमादी राष्ट्रवाद को प्रमुख रुकावट
के रूप में रेखांकित किया था। जैसा कि ऊपर जिक्र है कि युद्धोपरांत क्रांतिकारी
परिस्थितियों की संभावना बढ़ जाती है, खासकर पराजित देशों में। लोग शासकों और
प्रशासकों की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखने लगते हैं[29]।
युद्ध में लाखों लोग मारे गए। जो मोर्चे पर नहीं थे उनकी भी हालत बहुत
बुरी थी। सैनिकों की पत्नियां 12-13 घंटे काम करके भी परिवार का पेट नहीं पाल पा
रहीं थी। मजदूर भी अपनी मजदूरी से भोजन का इंतजाम नहीं कर पा रहे थे। लंबी लड़ाई
की थकान, रसद की कमी, मोर्चे की कठिन परस्थियां और कड़ाके की ठंड और ईंधन का अभाव
आदि कारणों से सेना में विद्रोह शुरू हो गया था। आंदोलन के विस्तार में जाने की
आवश्यकता और गुंजाइश नहीं है, लेकिन प्रमुख घटनाक्रमों का संक्षिप्त विवरण जरूरी
है।
4 मार्च को शहर की सबसे बड़ी फैक्ट्री (पुटिलोव इंजीनियरिंग फैक्ट्री)
के मजदूरों ने मालिकों से मजदूरी में 50% वृद्धि की मांग की जिससे वे भरपेट भोजन
कर सकें। मालिकों ने उनकी मांग खारिज कर दी। मजदूरों ने हड़ताल कर दी। 8 मार्च को
तालाबंदी करके 30, 000 मजदूरों की बिना भुगतान के छंटनी कर दी गयी और उनके पास
भोजन के पैसे नहीं थे। हड़ताली मजदूरों ने और मजदूरों को भी समझा-बुझाकर हड़ताल
में शामिल किया। जार निकोलस-2, उस समय पेट्रोग्राड में ही था लेकिन इसे छोटा-मोटा
उपद्रव समझ तवज्जो नहीं दिया और सरहद पर सैन्य टुकड़ियों की निगरानी करने चला गया।
अगले दिन (9 मार्च) हालात बद से बदतर हो गए, पेट्रोग्राड और कई अन्य शहरों में
सारा आवाम ही सड़कों पर निकल आया। राशन की दुकानें लूटी जाने लगीं। डूमा ने
आपातकालीन खाद्यभंडार वितरण के लिए खोल देने का आग्रह के साथ जार को इस बारे में
सूचित किया। जार ने उसका आग्रह ठुकराकर 24 घंटे में विद्रोह को कुलने का हुक्म दिया।
अगले दिन (10 मार्च) पुलिस की गोलीबारी में कई प्रदर्शनकारियों की मौत
हो गयी और प्रदर्शन उग्र हो उठा। प्रदर्शनकारियों ने जेल के दरवाजे तोड़कर कैदियों
को रिहा कर दिया। डूमा ने जार को धराशाई हो चुकी कानूम व्यवस्था की सूचना दी और
जारशाही के अंत की मांगें उठने लगीं। जिन सैनिकों को प्रदर्शन कुचलने के लिए भेजा
गया था, वे प्रदर्शनकारियों से जा मिले। इसके जवाब में जार ने एक और मूर्खता की,
डूमा की बैठकों पर पाबंदी लगा दी। डूमा के सदस्यों ने निकोलस के आदेश की अवहेलना
करते हुए, अगले दिन (11 मार्च) डूमा की बैठक कर क्रांति की उद्घोषणा कर दी। डूमा
के सदस्य केरेंस्की की कार्यवाही की सुरक्षा के लिए 25000 विद्रोही सैनिक बैठकस्थल
की तरफ कूच कर चुके थे। डूमा ने एक अंतरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पारित किया।
अगले दिन (12 मार्च) को कानून व्यवस्था की बागडोर संभालने निकोलस
पेट्रोगार्ड पहुंचा लेकिन उसकी गाड़ी को राजधानी के बाहर ही रोक दिया गया। डूमा
उनकी सशर्त वापसी की वार्ता करना चाहती थी। उसने उसके बेटे की ताजपोशी का प्रस्ताव
दिया जिसे निकोलस ने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अभी बहुत बच्चा था और उसके भाई ने
भी क्रांति के हालात देखते हुए जारशाही का ताज पहनने से इंकार कर दिया। इस तरह रूस
में सदियों पुरानी जारशाही के अंत की घोषणा हुई। शाही परिवार को नज़रबंद कर दिया
गया। लेनिन 1907 से ही रूस में नहीं थे लेकिन बोलसेविक पार्टी का मजदूरों में बड़ा
जनाधार था तथा इसने 1912 से 1917 के बीच कई बड़ी हड़तालों का नेतृत्व किया और
मजदूरों के पेट्रोग्राड सोवियत में बोलसेविकों का वर्चस्व था तो किसानों के
सोवियतों पर समाजवादी क्रांतिकारियों का प्रभाव था जो जमीन के सामूहिकीकरण की बजाय
किसानों में उसके पुनर्वितरण के पक्षधर थे। बोसलेविकों की धर-पकड़ और उत्पीड़न
लगातार चलता रहा जो अंतरिम सरकार के बनने के बाद थोड़ा थमकर फिर जारी रहा। लेनिन
इस क्रांति के दौरान देश में नहीं थे और इतनी जल्दी क्रांतिकारी परिस्थिति बनने की
उन्हें अपेक्षा नहीं थी। लेकिन इतिहास लीक पर नहीं चलता, अपने गतिविज्ञान के नियम
गढ़ते हुए आगे बढ़ता है। अप्रैल में लेनिन ने पेट्रोग्राड वापस आकर बोलसेविक दल की
कमान संभाला।
जारशाही खेमें भी पराजयों और आर्थिक दुर्गति के कारण जार से मोहभंग हो
रहा था। युद्ध से पहले हड़तालों और प्रदर्शनों का सिलसिला 1905 की क्रांति की याद
दिलाने वाला था। युद्ध से जारशाही को थोड़ी राहत मिली, लेकिन बकरे की मां कब तक
खैर मनाती? बोल्सेविक कार्यकर्त्ता युद्धविरोधी अभियान के तहत कहीं खुलकर कहीं
छिपकर क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार से जन-असंतोष को विप्लवी दिशा देने
में लगे रहे। वामपंथी खेमे में बोल्सेविक सबसे सशक्त थे। क्रांतिकारी नेतृत्व में
हड़तालों की अभूतपूर्व लहर चल पड़ी थी। 1912 में लेना गोल्डफील्ड नरसंहार में 276
मजदूर शहीद हो गए थे। इस नरसंहार के बाद हड़तालों का सिलसिला तेज और सघन होता गया
और पांच सालों में 30 बड़ी-बड़ी हड़तालें हुईं। जार के पुलिसतंत्र के कहर और
गुप्तचरों के सर्वव्यापी खौफ क्रांतिकारियों के हौसले पस्त करने में नाकाम रही।
1915-16 में पेट्रोगार्ड में गिरफ्तार वामपंथियों में सबसे अधिक बोलसेविक थे। कमोबेश लगभग सभी क्षेत्र के
उद्योगों में पार्टी का जनाधार था। 1905 की क्रांति में बने फैक्ट्री गार्डों के
दस्ते[30]
पार्टी के सशस्त्र दस्ते बन गए। 22 जनवरी (तब रूस में प्रचलित जूलियन कैलेंडर के
अनुसार (9 जनवरी), 1917 की खूनी इतवार[31]
की 12वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजिक हड़ताल में 142,000 मजदूरों नें शिरकत की।
शक्ति प्रदर्शन में 27 फरवरी को डूमा के सत्र की शुआत पर युद्ध समर्थक मेनसेविकों
के आह्वान पर 84000 मजदूरों ने हड़ताल की। मार्च क्रांति की खास बात थी महिलाओं की
अभूतपूर्व भागीदारी। खुफिया तंत्र रोटी की कतारों में लगी महिलाओं और पुलिस के बीच
झड़प की खबरें दे रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, क्रांति के उद्घाटन से एक
दिन पहले, बोल्सेविकों ने 7 मार्च 1917 को
हड़ताल न करने के पार्टी निर्देश को नजरअंदाज कर दिया। और अगले दिन 5 टेक्सटाइल
मिलों के मजदूर हड़ताल पर चले गए। युवा मजदूर और महिलाएं क्रांतिकारी गाने गाते हुए
रोटी की मांग कर रहे थे। 78000 प्रदर्शनकारियों में से लगभग 60,000, बोल्सेविक गढ़
समझे जाने वाले वीबोर्ग जिले के थे। जाशाही के अधिकारी इसे रोटी के लिए एक साधारण
उपद्रव समझ रहे थे लेकिन जब पुलिस और फौज की टुकड़ियां प्रदर्शनकारियों पर हमले के
हुक्म को नजरअंदाज करते नजर आए तो उनके कान खड़े हो गए। उसी रात वीबोर्ग के
बोल्सेविकों ने बैठक कर 3 दिन की आम हड़ताल और सरकार के मुख्यालय तक मार्च का
फैसला किया। अगले दिन की हड़ताल में आंदोलनकारियों की संख्या दोगुनी थी। इसमें 158,000
हजार लोगों ने शिरकत की[32]।
इन घटनाक्रमों की चर्चा का मकसद यह बताना है कि नवंबर की सशस्त्र क्रांति के पहले
क्रांतिकारी ताकतें जन आंदोलनों के जरिए जनाधार बनाकर क्रांतिकारी जनमत तैयार कर रही
थीं क्योंकि कोई सशस्त्र क्रांति तभी सफल और दीर्घजीवी हो सकती है जब वैचारिक
निष्ठा और स्पष्टता के साथ उसका व्यापक जनसमर्थन और जनाधार हो।
अंतरिम सरकार के पहले मुखिया एक उदारवादी, कुलीन
येवगेनीविच ल्वोव थे जिनकी असफलता के बाद समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी के
अलेक्जेंडर केरेंस्की ने सत्ता की बागडोर संभाली। उस वक्त पेट्रोगार्ड में सत्ता
के दो समानांतर केंद्र थे – अंतरिम सरकार और मजदूरों और सैनिकों की सोवियत (सोवियत
ऑफ वर्कर्स एंड सोल्जरर्स), के प्रतिनिधियों ने 14 मार्च को
अंतरिम सरकार के गठन के दिन अपने आदेश संख्या–1 में सैनिको को सोवियत की आज्ञा मानने
का निर्देश दिया गया तथा यह कि वे अंतरिम सरकार के वही आदेश मानें जो सोवियत के
आदेश से बेमेल न हो। सरकार निर्वाचित नहीं थी इसलिए इसकी प्राथमिकता संविधान सभा
का चुनाव था। और एक तरफ दक्षिणपंथियों और युद्ध के सहयोगी राष्टों का दबाव जर्मनी
के साथ युद्ध जारी रखने का था, दूसरी तरफ वामपंथियों, खासकर बोल्सेविकों का दबाव
युद्ध समाप्ति का था। मार्च और नवंबर के बीच अंतरिम सरकार का 4 बार पुनर्गठन हुआ।
पहली सरकार में केरेंस्की को छोड़कर ज्यादातर, धनिकों के हितों के पक्षधर,
उदारवादी थे। बाद की सरकारें गठबंधन सरकारें थीं[33]। कोई भी सरकार प्रमुख
समस्याओं – भूख, किसानों में जमीन-वितरण, गैर रूसी इलाकों में राष्ट्रीयता के सवाल
आदि – के समुचित समाधान में कामयाब नहीं रहीं।
सरकारी नीतियों और कार्रवाइयों की तुलना में पेट्रोग्राड सोवियत की
गतिविधियां और प्रस्ताव लोगों की भावनाओं के ज्यादा करीब थे। जुलाई में केरेंस्की
फिर से सरकार के मुखिया बने लेकिन राजनैतिक उथल-पुथल; आर्थिक समस्या; सेना में
अफरातफरी आदि समस्याएं घटने की बजाय बढ़ती गईं। केरेंस्की सरकार की विश्वसनीयता
घटती गयी तथा सोवियत की लोकप्रियता बढ़ती गयी। इसी बीच करेंस्की की सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी
पार्टी से वामपंथी धड़ा अलग होकर सोवियत में शामिल हो गया। पेट्रोग्राड सोवियत के
नक्शेकदम पर सभी बड़े-छोटे शहरों में सोवियतों का गठन हो रहा था। मॉस्को सोवियत
काफी सशक्त था। फैक्ट्री गार्ड्स रेड गार्ड बन गए जिसकी बुनियाद पर रेड आर्मी का
गठन हुआ। किसान अपने परंपरागत सामूहिकता वाले सोवियत की बुनियाद पर ग्रामीण सोवियत
को क्रांतिकारी इकाई में तब्दील कर रहे थे। मजदूरों और सैनिकों के ज्यादातर
सोवियतों पर बोलसेविकों का वर्चस्व था और ग्रामीण सोवियतों में सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी
दल का भी पर्याप्त प्रभाव था। नवंबर क्रांति के पहले की सबसे प्रमुख घटना है जुलाई
के जुझारू प्रदर्शन। सर्व्यापी जन-असंतोष ने अंतरिम सरकार को अपदस्थ करने की मांग
के साथ एक जुझारू विरोध प्रदर्शन ने ले लिया। बोल्सेविक नेतृत्व को लगता था कि अभी
सरकार से सीधे टकराव का वक्त नहीं था लेकिन मजदूरों की भावनाओं को देखते हुए इसका
नेतृत्व किया, वैसे भी बोलसेविक कार्यकर्ता पहले से ही तैयारी में लगे थे[34]।
प्रदर्शन को हिंसक होने से भी बचाना था। केरेंस्की सरकार ने दमन में जारशाही को भी
पीछे छोड़ दिया। बोलसेविक नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गय़ी। लेनिन और कई अन्य नेता
देश से बाहर निकलने में कामयाब रहे। 1907 की प्रतिक्रांति के बाद, प्रतिक्रियावादी
उफान के संदर्भ की परिस्थिति में, रूस छोड़ने के पहले लेनिन ने कॉमरेडों को
संबोधित करते हुए एक पर्चे में लिखा था कि अब विदेश में रहकर क्रांति की तैयारी
करनी पड़ेगी। प्रतिक्रियावाद के अस्त काल में भी वैसा ही हुआ। लेनिन ने समाजवादी
सरकार की रूपरेखा के तौर पर, प्रवास में ही राज्य और क्रांति शीर्षक से
राज्य की मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की कालजयी रचना की। शांति, जमीन
और रोटी – आवाम को शांति; किसान को जमीन और मजदूर को रोटी—तथा सोवियत को सारी
सत्ता; जमीनें किसानों की; कारखाने मजदूरों के, बोलसेविकों के ये प्रुख नारे,
बच्चे बच्चे की जबान पर थे[35]।
सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी के बोल्सेविक धड़े के नेतृत्व में जुलाई
आंदोलन तो बिना अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचे समाप्त हो गया लेकिन बोल्सेविकों की
लोकप्रियता और सदस्यता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। लेनिन फिनलैंड में रहते हुए
पार्टी के अखबारों में लेखों और पर्चों से बोलसेविक धड़े को नेतृत्व प्रदान करते
रहे। पहले पेट्रोग्राड और मॉस्को दोनों प्रमुख शहरों की सोवियतों में बोल्सेविक
अल्पमत में थे, मेनसेविक और सेसलिस्ट रिवल्यूसनरी उनसे आगे थे। सितंबर तक दोनों ही
जगह बोल्सेविकों का बहुमत हो गया। बोल्सेविक नियंत्रित पार्टी के मॉस्को क्षेत्रीय
ब्यूरो का मॉस्को के इर्द-गिर्द के 13 प्रांतों की पार्टियों पर भी नियंत्रण था।
जनरल कोर्लिनोव द्वारा सैनिक तख्ता पलट के प्रयास को विफल करने में बोल्सेविकों की
भूमिका से भी उनका समर्थन आधार बढ़ रहा था। सितंबर में पेट्रोग्राड सोवियत ने
ट्रोट्स्की समेत सभी बोल्सेविक कैदियों को रिहा कर दिया। ट्रोट्स्की पेट्रोग्राड
सेवियत के अध्यक्ष बन गए। किसानों, मजदूरों और निम्न मध्यवर्ग ने अंतरिम सरकार से
किसी सहायता की उम्मीद छोड़ दी। बोलसेविक पार्टी एकमात्र सुगठित विपक्ष थी, जिसे
लोगों की मेनसेविकों और सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी पार्टी से निराशा का लाभ भी मिला, जो
कि राष्ट्रीय एकता के नाम पर वर्ग-शत्रुता के बदले वर्ग-मित्रता के पक्षधर थे।
अजीबो-गरीब हालात थे, विधायिका और अंतरिम सरकार में क्रेंस्की के नेतृत्व में
मेनसेविकों और सोसलिस्ट रिवल्यूसलरी पार्टी के गठजोड़ का वर्चस्व था और मजदूरों
तथा सैनिकों के सोवियतों में बोल्सेविकों का। जून में सोवियतों का पहला अखिल रूसी
सम्मेलन पेट्रोग्राड में हुआ। पूर्ण मताधिकार के 784 प्रतिनिधियों में बोल्सेविकों
की संख्या 105 थी। अल्पमत के बावजूद उनके विचार स्पष्ट और आवाज बुलंद थी।
क्रांतिकारी परिस्थितियां और बोलसेविकों की बढ़ती शक्ति देख लेनिन कानूनी खतरों से
निश्चिंत अक्टूबर में पेट्रोगार्ड वापस आ गए। लेनिन के आंकलन में दूसरी (सर्वहारा)
क्रांति का समय परिपक्व था, उन्हें शीघ्र-से-शीघ्र सशस्त्र विद्रोह से राज्य
प्रतिष्ठानों पर अधिकार कर लेना चाहिए[36]।
नवंबर क्रांति
अंतरिम सरकार लोगों की हर समस्या के जवाब में दिसंबर में संविधान सभा
तक इंतजार करने की सलाह देती। लेकिन जैसा कि जॉन रीड ने उपरोक्त पुस्तक की भूमिका
मे लिखा है, “मजदूरों, सैनिकों और किसानों में प्रबल भावना व्याप्त थी कि क्रांति
अभी अधूरी थी। सरहद पर
सैनिक कमेटियों में अपने अधिकारियों के विरुद्ध रोष बढ़ रहा था, क्योंकि उन्हें
उनको इंसान मानने की आदत नहीं थी। जमीन से जुड़े सरकार के अध्यादेश लागू करने वाले
गांवों में निर्वाचित भूमि कमेटियों के सदस्यों की गिफ्तारा हो रही थी; कारखानों
में मजदूर काली सूची और लॉकऑउट से जूझ रहे थे। इतना ही नहीं वापस लौटे राजनैतिक
प्रवासियों पर 1905 की क्रांति में भागीदारी के आरोपों में मुदमे चलाए जा रहे थे”।
लोग शांति, जमीन और कारखानों पर मजदूरों के अधिकार की मांग पर अड़े रहे। जॉन रीड
लिखते हैं कि शांति का मुद्दा सैनिकों ने सेना छोड़कर हल करना शुरू कर दिया था और
किसानों ने कुलकों की हवेलिया जलाकर जमीन पर कब्जा करके जमीन का। मजदूरों ने
हड़ताल शुरू कर दिया। जमींदार और सेना के अधिकारी इस नई बयार को रोकने के लिए
जी-जान सो कोशिस कर रहे थे[37]।
लेकिन इंकलाब का जो दरिया झूम के उट्ठा था इन तिनकों से रुकने वाला नहीं था।
बढ़ती राजनैतिक कार्रवायियों के मद्देनजर, 23 अक्टूबर को बोलसेविक
पार्टी की केंद्रीय कमेटी ने फौरी दिशा-निर्देश के लिए लेनिन, स्टालिन और
ट्रॉट्स्की समेत 7 सदस्यों की एक छोटी कमेटी, पोलिटिकल ब्यूरो (पॉलिटब्यूरो) का
गठन किया जिसे क्रांति के बाद विघटित कर दिया। बोलसेविक पार्टी ने जब सोवियत संघ
की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीयसयू) नाम से अपना पुनर्गठन किया तो सांगठनिक संरचना में
पोलिटब्यूरो शीर्ष निर्णय़कारी कमेटी बन गया और जैसा हम आगे देखेंगे, तीसरे
इंटरनेसनल, कम्युनिस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न) के गठन के बाद, उसके तत्वाधान
में बनी सभी देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों की शीर्ष कमेटी का नाम पॉलिटब्यूरो ही
है। ज़िनोवीव
और कमेनेव नामक दो सदस्यों को छोड़कर सारी केंद्रीय कमेटी ने सशस्त्र विद्रोह के
लेनिन के प्रस्ताव का अनुमोदन किया। पेरिस कम्यून के अनुभव के आधार पर लेनिन ने राज्य
और क्रांति में राज्य मशीनरी को नष्ट करने की हिमायत की है[38]।
2 नवंबर को मिलिटरी रिवल्यूसनरी कमेटी की पहली
बैठक हुई। सर्वहारा क्रांति की परिस्थितियां और बोलसेविक दल के रूप में
क्रांतिकारी शक्तियां मार्च क्रांति के बाद से शक्ति अर्जित कर रही थीं। सर्वहारा
की तानाशाही की स्थापना के घोषित लक्ष्य के साथ 2 नवंबर को बोलसेविक दल ने
सर्वहारा की जंग-ए-आजादी का ऐलान कर दिया। क्रांति के 10 दिनों के घटनाक्रम के
विस्तार में जाने की जरूरत और गुंजाइश नहीं है, जॉन रीड की उपरोक्त पुस्तक इसका
सजीव चित्रण करती है। लेनिन के आदेश से रेड गार्ड्स, (रेड आर्मी) ने सारे सरकारी
संस्थानों और केंद्रीय बैंक पर घेरा डाल दिया। केरेंस्की चुपके से पेत्रोग्राद से
भाग गये। बोल्सेविक पार्टी और वामपंथी रिवल्यूसनरी पार्टी ने 6-7 नवंबर के दौरान विंटर पैलेस समेत सारी
सरकारी इमारतों, बैंक और टेलीग्राफ ऑफिस पर आसानी से कब्जा कर लिया। 6 नवंबर की
शाम तक विंटर पैलेस पर कब्जा चल ही रहा था कि सोवियतों का दूसरा सम्मेलन हुआ। समाजवाद की
स्थापना के लिए समय की उपयुक्तता और भविष्य के शासन की संरचना को लेकर
सहमति-असहमतियों के साथ वाद-विवाद रात भर चला। 7 नवंबर को केरेंस्की की अपदस्थ
अंतरिम सरकार की जगह सब सत्ता सोवियतों के नारे को चरितार्थ करते हुए, दूसरे नारे,
शांति, जमीन और रोटी को चरितार्थ करने के मकसद से सोवियत ऑफ पीपुल्स कॉमीसार्स की
अंतरिम सरकार गठन हुआ, जिसके मुखिया लेनिन थे। सोवियत ऑफ पीपुल्स कॉमीसार्स के सभी
सदस्य बोल्सेविक थे[39]।
यह मार्क्सवादी सिद्धांतों की पहली सर्वहारा क्रांति थी और सर्वहारा की तानाशाही
के मार्क्सवादी सिद्धांत को चरितार्थ करने के दूसरे प्रयोग की शुरुआत। पेरिस
कम्यून को मार्क्स मार्क्स ने लगातार रेखांकित किया है कि वर्गविहीन साम्यवाद का
रास्ता सर्वहारा के वर्ग-शासन के रास्ते से होकर गुजरता है। लेनिन ने कहा, पार्टी
सर्वहारा की तानाशाही की हरावल दस्ता (वेनगॉर्ड) है[40]।
क्रांति के बाद की अव्यवस्था और उहापोह के बीच विशाल रूसी
साम्राज्य को व्यवस्थित करना लेनिन के नेतृत्व में सोवियतों के दूसरे सम्मेलन
(यसपीसी) के लिए एक जटिल काम था। पूर्वी यूरोप के कई देशों ने साम्राज्य से
स्वतंत्रता घोषित कर दी। लेनिन ने संविधान सभा का चुनाव कराया, जिसमें बोल्सेविक
अल्पमत में थे। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी और मेनसेविक बहुमत में थे। मेनसेविक और
सेसलिस्ट रिवल्यूसनरी सरकार के लिए सोवियत के अंदर बोलसेविक किस्म की सरकार पर
सवाल खड़े कर रहे थे। संविधान सभा की पहली और आखिरी बैठक 5 जनवरी 1918 को हुई
जिसके अगले दिन इसे भंग कर दिया गया। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी और मेनसेविक मौखिक
विरोध के अलावा कोई हंगामा नहीं खड़ी कर सके क्योंकि जनता शांति, जमीन, रोटी के
नारे को सच होते देखने को लालायित थी। 1918 में बोल्सेविक पार्टी का नया नामकरण
हुआ, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन (सीपीयसयू)। इस नए किस्म के शासन
के स्वरूप, जटिलताओं और अंतर्विरोधों की संक्षिप्त चर्चा आगे की जाएगी, क्रांति के
बाद ही प्रतिक्रांति शुरू हो गयी और नव गठित सोवियत संघ लंबे गृहयुद्ध में फंस
गया, जिसमें जान-माल की विशाल क्षति हुई। इस बारे में दो शब्द अप्रासंगिक नहीं
होंगे।
गृहयुद्ध
मैक्यावली ने नवजागरण कालीन संदर्भ में लिखा है कि विजय, राजनैतिक
अभियान का अंत नहीं, बल्कि शुरुआत है। सबसे पहला काम होता है विजय की उपलब्धियों को
सुरक्षित और समेकित करना, जिसके लिए सबसे बड़ा खतरा प्रतिक्रांति का होता है। 1789
(फ्रांसी क्रांति); 1848 (फ्रांस की दूसरी क्रांति[41])
और 1871 की क्रांतियां प्रतिक्रांतियों की बलि चढ़ गयीं थी। लेनिन तथा अन्य
बोलसेविक नेता इस इतिहास से परिचित और सजग थे, जिसका जिक्र लेनिन ने राज्य और
क्रांति में की है। अपदस्थ और वंचित शक्तियां चुप नहीं बैठतीं। वे विशेषाधिकारों
को अधिकार समझने लगते हैं और वापस पाने के सारे प्रयास करते हैं। इस युद्ध में एक
तरफ बोलसेविक थे दूसरी तरफ सारी प्रतिक्रियावादी और अतिक्रांतिकारी ताकतें।
बोलसेविक ‘खतरे’ से दोनों अलग अलग लड़ रहे थे। प्रमुख प्रतिद्वंद्वी पक्ष थे, रेड
आर्मी (लाल सेना) और व्हाइट आर्मी (सफेद सेना)। 1917 के मध्य तक रूसी सेना बिखरना
शुरू हो गई। सेना छोड़कर आए कई सैनिक बोल्सेविकों से मिल गए। स्वैच्छिक रेड गार्ड
तथा बोल्सेविक राज्य सुरक्षा बल मिलकर बोलसेविक सशस्त्र बल थे। ट्रॉट्सी के
नेतृत्व में ग्रामीण क्षेत्रों से भरती कर मजदूरों और किसानों की लाल सेना का गठन किया।
सफेद सेना में राजशाही के समर्थक, धनिक और जमींदार वर्ग थे तथा सोसलिस्ट
रिवल्यूसनरी एवं संवैधानिक जनतंत्रवादी थे। सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी बोल्सेविकों
द्वारा की जा रही व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के विरुद्ध थे। बोल्सेविक खतरे
से आतंकित पश्चिमी देश, अमेरिका और जापान सफेद सेना के समर्थन में थे लेकिन लाल
सेना के साथ किसान-मजदूरों का आवाम था, इसी लिए वह ज्यादा कारगर हो रही थी। यह
गृहयुद्ध 1920 तक चला वैसे तो सदूर पूर्व में सफेद सेना के प्रतिक्रांतिकारी
अवशेषों को 1923 में समाप्त किया जा सका। सोवियत संघ में सीपीयसयू के नेतृत्व में
एक अनजाने नए निजाम का आगाज हुआ और पूंजीवादी विकास और पूंजीवादी (संसदीय) जनतंत्र
के वैकल्पिक ढांचे का ईज़ाद। यही साम्रज्यवादी पूंजीवाद की आंख की किरकिरी बन गया
और 1991 में विघटन के पहले तक बना रहा। गृहयुद्ध की विभिन्न परिघटनाओं के विस्तार
में न जाकर इतना कहना काफी है कि पिछली क्रांतियों में अंततः प्रतिक्रांतिकारी
ताकतें विजयी रही थीं, इस बार वे पराजित हुईं तथा लेनिन और उनके साथियों के
सर्वहारा की तानाशाही के प्रयोग का निर्विरोध और निर्बाध अवसर प्राप्त हुआ। समाजवाद
के प्रयोगों के बीच 1924 में लेनिन का निधन हो गया और स्टालिन सीपीयसयू और सोवियत
संघ के मुखिया बने। वर्ग और पार्टी पर आगे संक्षिप्त चर्चा की जाएगी। कालांतर में,
आंतरिक और वाह्य कारणों के दबाव में सर्वहारा की तानाशाही वस्तुतः पार्टी की
तानाशाही में तब्दील हो गयी।
नवनिर्माण
छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के संस्थापक, शहीद शंकर गुहा नियोगी का
एक नारा और सिद्धांत है, संघर्ष और निर्माण । संघर्ष से सत्ता हासिल करने के बाद
अब निर्माण की बारी थी। सत्ता पर कब्जा करने के बाद, नवनिर्मित सोवियत संघ 3 साल
भीषण और अगले 3 साल छिट-पुट गृहयुद्ध में फंसा रहा। पुरानी राज्य प्रशासन मशीनरी
ध्वस्त की जा चुकी थी, नई के निर्माण की कोई नई मिशाल नहीं थी। मार्क्स और एंगेल्स
पेरिस कम्यून को सर्वहारा की तानाशाही बताया था[42]।
लेकिन अल्पजीवी कम्यून अपेक्षाकृत उच्चतर सामाजिक चेतना के एक शहर के मजदूरों या
उनके प्रामाणिक प्रतिनिधियों के स्वशासन का प्रयोग प्रयोग था। यहां मामला केंद्रीय
नियंत्रण में विशाल भूखंड में फैले, कृषिप्रधानता के ग्रामीण, पिछड़ी पारंपरिक
सामाजिक चेतना वाले 15 गणराज्यों में सर्वहारा की तानाशाही की स्थापना का मामला
था। क्रांति की उस लहर और धुन में ज्यादातर बोल्सेविक आश्वस्त थे कि पेट्रोग्राड
से निकली विप्लवी धारा जल्द ही जर्मनी, इंगलैंड और अंततः अमेरिका तक पहुंच जाएगी,
इसलिए उन्हें समाजवादी ढ़ाचा के निर्माण की जल्दी थी। उन्होंने, लगता है, इसीलिए
अंर्राष्ट्रीय मामलों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया क्योंकि उन्हें लगा कि पूंजीवाद
तो अब चंद दिनों का मेहमान है। 1920 तक सभी ऐसे उद्यमों और उद्योगों का
राष्ट्रीयकरण कर लिया गया जिसमें 20 या अधिक कर्मचारी काम करते हों। 1921 में नई
आर्थिक नीति (यनईपी) लागू की गयी जिसके तहत राज्य नियंत्रित औद्योगीकरण त्वरित हुआ
और जमीन पर सामंती उत्पादन संबंधों के खात्में से कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व
वृद्धि हुई। राज्य नियंत्रित औद्योगीकरण का नतीजा यह हुआ कि 10 सालों में सोवियत
संघ एक पिछड़े अर्ध सामंती पूंजीवादी स्थिति से एक आर्थिक शक्ति बन गया।
1924 से ही साम्राज्यवादी देशों के हमले के संकेत मिलने लगे और
काफी ऊर्जा औक संसाधन सैन्य सशक्तीकरण में लग गया, नतीजतन दूसरे विश्वयुद्ध तक
सोवियत संघ एक सैनिक शक्ति भी बन गया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में भूमिका, शीतयुद्ध
और सेवियत संघ का विघटन इतिहास बन चुका है तथा अलग लेखन का विषय है। यहां मकसद यह
रेखांकित करना है कि लाभोंमुख निजी स्वामित्व की उद्पादन प्रणाली की तुलना में
राज्य नियोजित जनोन्मुख उत्पादन और वितरण प्रणाली में उत्पादकता काफी बढ़ जाती है।
इस आर्थिक नीति के तहत काम का अधिकार मौलिक अधिकार था। मार्क्स के शब्दों में
मजदूरों की आरक्षित बल (बेरोजगारी) का विलोप हो गया जो कि पूंजीवाद में असंभव है।
सर्वहारा की तानाशाही और इसके उपकरणों, जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद तथा पार्टी लाइन
पर चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, इस लेख का समापन तीसरे इंटरनेसनल की स्थापना और
अंतर राष्ट्रीय समाजवादी तथा राष्ट्रीय मुक्ति के आंदोलनों पर प्रभाव से करना
अप्रासंगिक नहीं होगा।
तीसरा इंटरनेसनल – कम्युनिस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न)
दूसरा (सोसलिस्ट) इंटरनेसनल युद्ध की शुरुआत के साथ 1914 में
बिखर गया था। मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद चूंकि अंतरराष्ट्रीय है इसलिए उसका
विकल्प भी अंतर्राष्टीय होगा। पश्चिमी पूंजीवादी देशों तथा अमेरिका की सैन्य
सहायता से प्रतिक्रांतिकारी सफेद सेना के साथ गृहयुद्ध के मध्य लेनिन ने इंटरनेसनल
के पुनर्गठन की योजना बनाई और मार्च 2019 में कम्युनिस्ट इंटरनेसनल उद्घाटन सम्मेलन
आयोजित किया गया। लेनिन का मानना था की समाजवाद को तभी सफल और दूरगामी बनाया जा
सकता है यदि दुनिया में हर जगह समाजवादी क्रांतियां हों; समाजवादी प्रणाली की
आर्थिक मागों और विकास को विश्व स्तर ही संरक्षित और प्रसारित किया जा सकता है।
लेनिन मानते थे कि पूंजीवादी उत्पीड़न से दुनिया भर के सर्वहारा की मुक्ति अत्यंत
आवश्यक है जिससे भविष्य को युद्धों के रक्तपात से बचाया जा सके; विकराल पूंजीवादी
तंत्र से उनकी मानवता और आजादी बचाई जा सके। उद्घाटन सम्मेलन में रूसी कम्युनिस्ट
पार्टी के अलावा कई अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट
पार्टियों के प्रनिधियों ने सिरकत की। सम्मेलन में संगठन का संविधान और लक्ष्य और
कार्यप्रणाली की आचार संहिता तथा घोषणा पत्र जारी किया। मौजूदा हालात और संभावनाओं
पर लेनिन की रिपोर्ट सम्मेलन की केंद्रीय विषयवस्तु थी। ग्रेगरी ज़िनोवीव
कॉमिंटर्न के पहले सचिव थे लेकिन इसके मुख्य सिद्धांतकार लेनिन ही रहे। कॉमिंटर्न
का केंद्रीय सरोकार था, अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के लिए दुनिया भर के
देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन। सम्मेलन में भागीदार पार्टियों ने लेनिन
के जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद , “मुक्त विमर्श और एकीकृत कार्रवाई” के सिद्धांत का
अनुमोदन किया। कॉमिंटर्न को विश्वक्रांति की कार्यकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित
किया गया। कॉमिंटर्न के प्रयासों से 1920 में दूसरे सम्मेलन तक यूरोप, अमेरिका,
लैटिन अमेरिका तथा एशिया के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन हो चुका था।
भारत के मानवेंद्रनाथ रॉय दूसरे सम्मेलन में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के
प्रतिनिधि के रूप में दूसरे सम्मेलन में शिरकत की थी और 1921 में ताशकंद में
प्रवासी भारतीयों को लेकर 1921 में ताशकंद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की
स्थापना की जिसका पहला सम्मेलन 1925 में कानपुर में हुआ।
दुनिया में समाजवादी आंदोलनों का संदर्भविंदु पेरिस कम्यून से
हटकर रूसी क्रांति बन गयी। इसने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों और समाजवादी आंदोलनों
में एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास का संचार कर दिया। लेनिन ने दूसरे सम्मेलन के
निमंत्रण के साथ पार्टियों को एक 21 सूत्री दस्तावेज भेजा था, जिनसे सहमति
कॉमिंटर्न की सदस्यता की अनिवार्य शर्त थी। 21 सूत्रों में पार्टी की अन्य
समाजवादी समूहों से अलग पहचान तथा पूंजीवादी राज्य की वैधानिकता पर अविश्वास।
पार्टी संगठन का कार्य प्रणाली जनतांत्रित केंद्रीयता के ढर्रे पर होगी। दूसरे
सम्मेलन में औपनिवेशिक सवाल भी एक प्रमुख मुद्दा था। जितने भी कम्युनिस्ट सरकारों
पर अक्सर सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर पार्टी और पार्टी के सर्वोच्च नेता की
तानाशाही के आरोप लगते रहे हैं, वर्ग संघर्ष और पाटी के अंतःसंबंधों पर एक
संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी।
वर्ग-संघर्ष और
पार्टी
शासक वर्गों के पास अपना वर्चस्व और विशेषाधिकार बरकरार रखने के राज्य
के दमनकारी और प्रोपगंडा उपकरणों समेत बहुत साधन हैं और सर्वहारा साधनविहीन। फिर
सवाल उठता है इतने शक्ति-साधन संपन्न शत्रु से साधनविहीन कामगर वर्ग कैसे लड़े और
नई सामाजिक व्यवस्था कायम करे? लेकिन मार्क्स संदेश की प्रमुख बात यही है कि यह हो
सकता है लेकिन इसके लिए सजग प्रयास करना होगा। जैसा कि मार्क्स के हवाले से ऊपर
कहा गया है कि यह प्रमुखतः पूंजीवादी अंतर्विरोधों की गहनता और रानैतिक,
सांस्कृतिक और बौद्धिक अधिसंरचनाओं पर इसके बहुआयामी प्रभाव पर निर्भर करता है।
लेकिन अंततः यह बदलाव लोगों के हस्तक्षेप तथा कर्म से ही से ही संभव होगा। अपनी
भूमिका कारगर रूप से अदा करने के लिए मजदूर वर्ग और इसके सहयोगियों को संगठित होना
पड़ेगा। ‘अपने-आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ बनने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी
पार्टी बनानी पड़ेगी लेकिन लोगों के मुद्दों से अलग पार्टी का अपना कोई एजेंडा
नहीं होगा। मार्क्स का जोर मजदूर वर्ग की मुक्ति पर तो था ही, लेकिन यह मुक्ति
उनके स्वतः प्रयास से होनी चाहिए। मार्क्स ने 1864 में फर्स्ट इंटरनेसनल
के संबोधन के प्राक्कथन में लिखा है, “मजदूर वर्ग की मुक्ति का संघर्ष मजदूर
वर्ग को स्वयं करना होगा”[43]।
अपने समस्त लेखन में मजदूरों के संगठन की जरूरत के ज़िक्र की बहुतायत के बावजूद
मार्क्स संगठन के स्वरूप और संरचना के बारे में कुछ नहीं कहते। उनका
मानना था कि अलग-अलग देशों के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन
बनाएंगे। एक बात वे जरूर बार बार कहते हैं कि मजदूरों का संगठन मजदूर वर्ग से अलग
‘पेशेवर साजिशकर्ताओं’ के किसी पंथ की तरह नहीं होना चाहिए। संगठन का स्वरूप जो भी
हो मार्क्स का सरोकार अपनी मुक्ति के लिए मजदूर वर्ग में वर्गचेतना का विकास है।
पार्टी वर्ग की राजनैतिक अभिव्यक्ति और संघर्ष का साधन है।
मार्क्स और एंगेल्स मजदूरों की आत्म मुक्ति
की क्षमता पर आश्वस्त थे। 1879 में उन्होंने जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी
के कुछ नेताओं को फटकारते हुए एक सर्कुलर भेजा जिसमें उन्होने इस समझ को खारिज किया
कि मजदूर वर्ग खुद अपनी मुक्ति का संघर्ष चलाने मे अक्षम है और उसे फिलहाल
‘पढ़े-लिखे’ और ‘संपत्तिवान’ बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए जिसके
पास मजदूरों की समस्याएं समझने का अवसर होता है[44]।
उनके लिए वर्ग पहले था पार्टी बाद में। लेनिन ज़ारकालीन रूस की विशिष्ट
परिस्थियों में एक विशिष्ट किस्म की पार्टी बनाना चाहते थे जो मजदूरों से यथासंभव
संपर्क में रहे। उन्हें भय था, जो उनके बाद सही साबित हुआ कि पार्टी में यदि मजदूर
वर्ग लगातार जान न फूंकता रहे तो वह आमजन से कट कर एक नौकरशाही में तब्दील हो
जाएगी। बहुत पहले से वे एक केंद्रीकृत अधिनायकवादी शासन के विरुद्ध, ‘पेशेवर
क्रांतिकारियों’ का संगठन बनाना चाहते थे जिसकी परिणति बाद में ‘जनतांत्रिक
केंद्रीयता’ (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म’) के सिद्धांत में हुई। इस सिद्धांत के तहत
नीतिगत प्रस्ताव निचली इकाइयों विमर्श से निकले प्रस्ताव केंद्राय नेतृत्व के
विचारार्थ जाना था जो उन्हें समायोजित कर पुन: अंतिम संस्तुति के लिए निचली
इकाइयों को वापस भेजता। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉमिंटर्न के तत्वाधान
में बनी दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में यह सिद्धांत विकृत हो कर
अधिनायकवादी केंद्रीयता में तब्दील हो गया. कई मार्क्सवादी चिंतक इसे ऊपर से
थोपी राजनीति (पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव) कहते हैं। एरिक हाब्सबॉम ने दुनियां की
कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी।
1914 के
पहले लेनिन ने कभी नहीं कहा कि वे ऐसी पार्टी बनाना चाहते थे जो उन देशों के लिए
उपयुक्त हो जहां पहले से ही ‘राजनैतिक स्वतंत्रता’ हासिल कर ली गई है। क्रांतिकारी
प्रक्रिया की प्रगति के लिए संगठन और दिशा निर्देश की परमावश्यकता पर जोर मार्क्सवाद में लेनिन का विशिष्ट योगदान है।
वे मजदूरों की निष्क्रियता को लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि इसके चलते संघर्ष के राजनैतिक
प्रभाव में कमी और क्रांतिकारी उद्देश्य में भटकाव को लेकर चिंतित थे। इसीलिए
पार्टी की परमावश्वयकता को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जिसके दिशा निर्देश और
नेतृत्व के बिना मजदूर वर्ग का संघर्ष विसंगतियों और दिशाहीनता का शिकार हो जाएगा।
गौरतलब है रूस पश्चिमी यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों की तरह बुर्जुआ जनतांत्रिक
क्रांति या मार्क्स के शब्दों में ‘राजनैतिक मुक्ति’ के दौर से नहीं गुजरा था।
इसीलिए जारशाही को उखाड़ फेंक समाजवादी फतेह के लिए मजदूरों की एक अनुशासित हिरावल
दस्ते के निर्माण पर बल दिया।
इसके बावजूद
लेनिन भली भांति जानते थे कि जनता के अनुभवों में घुले-खपे-जुड़े
बिना पार्टी अपना क्रांतिकारी उद्देश्य
नहीं पूरा कर सकती। जब भी पार्टी में खुली बहस का मौका मिला – 1905; 1917 और उसके बाद –
उन्होने पार्टी में नौकरशाही प्रवृत्ति पर करारा प्रहार किया। क्या करना है?
(व्हाट इज़ टू बी डन?) और राज्य और क्रांति में अनुशासित संगठन की
जरूरत पर जोर देने के बावजूद कामगर आवाम से पार्टी के जैविक संबंधों की
बात को उन्होने हमेशा तवज्जो दिया। 1920 में वामपक्षी साम्यवाद: एक बचकानी
उहापोह (लेफ्टविंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेंटाइल डिसॉर्डर[45])
में लेनिन लिखते हैं, “इतिहास, खासकर क्रांतियों का इतिहास अपनी अंतर्वस्तु
में सर्वाधिक वर्ग चेतना से लैस, सर्वाधिक उन्नत वर्गों के हरावल दस्ते से अधिक विविधतापूर्ण, अधिक
बहुआयामी, अधिक जीवंत और अधिक निष्कपट है”[46]।
इसके बावजूद उन्होंने क्रांतिकारी प्रक्रिया में पार्टी की अहम भूमिका को उन्होने
नहीं नकारा, न ही मजदूर वर्ग के साथ इसके संबंधों को कमतर करके आंका। वे रोज़ा
लक्ज़म्बर्ग की ही तरह पार्टी की केंद्रीय समिति को गलतियों से परे न मानने के
बावजूद एक सुगठित संगठन के पक्षधर थे। ज़ारकालीन रूस की परिस्थियों में लेनिन एक
विशिष्ट तरह की पार्टी के पक्षधर थे, लेकिन सर्वहारा की तानाशाही या पार्टी
(नेतृत्व) की तानाशाही के जवाब में उन्होंने कहा, “मौजूदा हालात में वर्ग का
प्रतिनिधित्व पार्टी ही कर सकती है”।
रोज़ा लक्ज़म्बर्ग ने 1918 में रूसी
क्रंति नाम शीर्षक से लिखी पुस्तिका में रूस की खास परिस्थियों में बॉलसेविक दल
की प्रशंसा करते हुए लिखा था, “बॉलसेविकों ने प्रमाणित कर दिया है कि ऐतिहासिक
संभावनाओं की सीमा में एक सच्ची क्रांतिकारी पार्टी जो भी कर सकती है उसमें वे
सक्षम हैं। उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए”।
साथ ही उन्होंने आगाह किया था कि खास परिस्थियों में अपनाई गई रणनीति
को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के मॉडल के रूप में नहीं पेश करना चाहिए[47]। लेकिन जैसा कि अब
इतिहास बन चुका है, सवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और तदनुसार कॉमिंटर्न ने उनकी
सलाह दरकिनार कर रूसी क्रांति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा मॉडल की तरह पेश किया और
सर्वहारा की तानीशाही को पार्टी और पार्टी नेतृत्व की तानाशाही में तब्दील हो गयी।
कॉमिंटर्न ने लेनिन की सलाह को दरकिनार कर पार्टी में नौकरशाही को पनपने दिया
जिसकी अंतिम परिणति सोवियत संघ के पतन में हुई[48]।
चूंकि रूस में पूंजीवादी क्रांति के अभाव में
सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की दुहरी जिम्मेदारी थी, औद्योगिक विकास और
समाजवाद का निर्माण। पहली जिम्मेदारी इसने बखूबी निभाकर साबित कर दिया कि राज्य
नियंत्रित पूंजीवाद में निजी मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद से तेज आर्थिक विकास होता
है। दूसरे विश्वयुद्ध तक सोवियत संघ सर्वाधिक शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका के
समतुल्य आर्थिक और सैनिक शक्ति बन गया। पार्टी में वैचारिक विवाद, दूसरे
विश्वयुद्ध के खतरे की विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट नीतियों; कृषि के
सामूहिककरण के गुण-दोष; क्रांति के कुछ नेताओं पर जन अदालतों के आयोजन; कॉमिंटर्न
की छठीं कांग्रेस में औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय आंदोलनों से असहयोग की नीति
आदि की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, वे अलग-अलग चर्चा के विषय हैं। न ही दूसरे
विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद से
प्रतिस्पर्धात्मक वर्चस्व के संघर्ष पर चर्चा की। ये अलग चर्चा के विषय हैं तथा इन
पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रंधीर सिंह की पुस्तक समाजवाद का संकट में इसका सटीक
विश्लेषण किया गया है। सोवियत संघ में बेरोजगारी, भिखमंगाई, वेश्यावृत्ति आदि गधे
की सींग की तरह गायब हो गयी थीं। सोवियत संघ की उपलब्धियों और राष्ट्रीय मुक्ति
आंदोलनों तथा साम्राज्यवादी शोषण को नियंत्रित करने में उसकी भूमिका भी अलग विमर्श
के विषय हैं। स्टालिन की मृत्यु के बाद
पार्टी नेतृत्व ने 1961 में 22वीं पार्टी कांग्रेस में, मबम्मद साहब के अंतिम
पैगंबर होने की तर्ज पर, नया सोवियत समाज: सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का
अंतिम दस्तावेज पारित कर सोवियत संघ को सब लोगों का राज्य, यानि वर्गविहीन राज्य
घोषित कर दिया तथा पूंदीवादी पुनर्स्थापना का पथ प्रशस्त किया[49]। माओ ने सोवियत संघ को सामाजिक साम्राज्यवादी
घोषित कर दिया[50] तथा
सोवियत संघ के विघटन के बाद साम्राज्यवादी भोपुओं ने इतिहास का ही अंत कर दिया[51]।
भारत के संदर्भ में
औपनिवेशिक सवाल
बंगाल की
भूमिगत क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन के युवा सदस्य मानवेंद्रनाथ रॉय जर्मनी से आने वाले जहाज से हथियार प्राप्त करने के लिए
निकले थे लेकिन हथियार तो उन्हें मिले नहीं और वे जावा, सुमात्रा, जापान होते हुए
अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को पहुंच गये। वहां उनकी मुलाकात एवलिन से हुई जिनके जरिए
वे मार्क्सवाद से परिचित हुए और बाद में उनके साथ बैवाहिक संबंध बने। एवलिन रॉय के
साथ रॉय मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कॉंग्रेस में भाग लेने गए और
जैसा उपर कहा गया है, मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में
कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में शिरकत की। लेनिन के नेतृत्व में गठित औपनिवेशिक
मुद्दों की समिति में, उन्हे भारतीय प्रतिनिधि कें रूप में शामिल किया गया।
औपनिवेशिक
देशों में मुख्य अंतर्विरोध उपनिवेशवाद का था और कांग्रेस के नेतृत्व में
राष्ट्रीय आंदोलन के के बारे में रॉय ने
लेनिन की थेसिस की वैकल्पिक थेसिस पेश की जिसे अनुपूरक थेसिस के रूप में स्वीकृत
किया गया। यहां लेनिन-रॉय बहस पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेनिन की
औपनिवेशिक समस्या की समझ ज्यादा तथ्य परक थी। उनका मानना था कि उपनिवेशों के
राष्ट्रीय आंदोलन प्रगतिशील हैं और कम्युनिस्टों को अपनी अलग अस्मिता के बनाए रखते
हुए उनमें शिरकत करके उसके जनवादीकरण की कोशिस करनी चाहिए। रॉय का मानना था कि जिस
तरह यूरोप के जिन देशों में पूंजीवादी विकास देर से हुआ वहां के पूंजीपति वर्ग ने
सामंतवाद को खत्म करने के बजाय उससे समझौता कर लिया था उसी तरह राष्ट्रीय आंदोलन
के नेता भी अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेंगे। और यह कि भारत का सर्वहारा
अपने दम पर उपनिवेशवाद और सामंतवाद से लड़ने में सक्षम है। गौरतलब है कि सर्वहारा
की राजनैतिक और आर्थिक मौजूदगी नगण्य थी। 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में
राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाने की रॉय की थेसिस को अपनाया लेकिन रॉय को कॉमिंटर्न
से निकाल दिया गया। लेनिन की थेसिस के अनुरूप भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने
वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी (डब्लूपीपी) बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में जी-जान से
शिरकत की। साइमन कमीसन के विरुद्ध प्रदर्शन में पार्टी ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई
और औद्योगिक शहरों में ट्रेड यूनियनों और गांवों में किसान संगठनों का गठन शुरू
किया। रॉय के कॉमिंटर्न से निष्कासन के साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन भी दो फाड़ हो
गया। 1921 में रॉय ने प्रवासी भारतीयों के साथ ताशकंद में भारत की कम्युनस्ट
पार्टी का गठन किया था जिसका पहला अधिवेशन कानपुर में 1925 में हुआ जिससे औपनिवेशिक सरकार के कान
खड़े हो गए और देश भर में कम्युनिस्टों की धर-पकड़ शुरू हो गयी। इस मुकदमें को
कानपुर षड्यंत्र मामले के नाम से जाना जाता है। 1928 में कॉमिंटर्न का फैसला मानकर
कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग हो गई और डब्लूपीपी भंग। कांग्रेस
के वामपंथी सदस्यों को सामाजिक फासीवादी करार दिया। 1929 में औपनिवेशिक सरकार को लगा कि
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) कॉमिंटर्न के विचारों का प्रसार करके हड़ताल और
सशस्त्र विद्रोह के जरिए सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिस कर रही है। सरकार ने
सीपीआई को अवैध घोशित करके ट्रेडयूनियन नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दिया। 1929 से
1933 तक चले मुकदमें को मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से जाता था। गिरफ्तार लोगों में
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन(सीपीजीबी) के तीन अंग्रेज सदस्य भी थे। इन
केसों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है लेकिन मार्क्स की इस बात को दरकिनार कर
कि हर देश के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे, कॉमिंटर्न
के निर्देश में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन से अलग होकर लोगों
में विश्वनीयता खोया और सरकार ने इसे अवैध घोषित कर दिया।
कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा
कि पूंजीवाद ने समाज को दो विरोधी खेमों—पूंजीपति और सर्वहारा खेमों में बांट कर
वर्ग विभाजन को सरल बना दिया[52]। यह
बात मार्क्स यूरोप, खासकर पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देशों के संदर्भमें कहा था
जहां नवजागरण और प्रबोधन काल(एज ऑफ एन्लाइटेनमेंट) ने जन्मजात योग्यता को खत्म कर
दिया था। भारत में जाति आधारित सामाजिक विभाजन आज भी नहीं खत्म हुआ है। कबीर के
साथ शुरू हुआ नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच पाया।
सीपीआई ने मार्क्सवाद को समाज को समझने और बलदने के उपादान के रूप में न अपनाकर
मॉडल के रूपमें अपनाया। यहां विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, जो भी अलग
विमर्श का विषय है[53]। भारत
में 1920 के दशक में 3 प्रमुख अंतर्विरोध थे :
1. आवाम और औपनिवेशिक
शासन का राजनैतिक अंतर्विरोध;
2. जातिगत सामाजिक
अंतर्विरोध;
3. पूंजी और श्रम का
आर्थिक अंतर्विरोध जिसमें दोनों ही पक्ष अविकसित थे। कम्युनिस्टों ने जाति के सवाल
को अलग एजेंडा नहीं बनाया, जो अंबेडकर ने
किया। इस मुद्दे पर बहस की गुंजाइश यहां नहीं है, वह एक अलग चर्चा का विषय है। चूंकि
औपनिवेशिक हस्तक्षेप के चलते पूंजीवाद का भारत में स्वाभाविक विकास नहीं हुआ और
पलस्वरूप न ही कोई बुर्जुआ-जनतांत्रिक क्रांति, यह भी कम्युनिस्टों का ही
उत्तरदायित्व था।
1934 में “मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित
आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की
स्थापना की जिसमें अवैध कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी शामिल थे। ईयमयस नंबूदरीपाद
इसके संस्थापर सह सचिव थे। किसान-मजदूरों
की दृष्टिकोण से 1934-42 का दौर एक तरह से स्वर्णिम दौर था जिसमें सीयसपी के
नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा और ट्रेड यूनियन एक सशक्त ताकत बन गए। सीयसपी
के युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म को झटका देते हुए सोवियतसंघ पर नाजी हमले से सीयसपी के
कम्युनिस्ट सदस्य युद्ध के समर्थक हो गए।
आजादी के बाद सीपीआई और सोसलिस्ट पार्टियां
नेहरू सरकार के साथ सहयोग और विरोध पर बहस करते रहे। कई कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट
कांग्रेस में चले गए। विचारों के प्रसार के लिए चुनाव में शिरकत करने की नीति ने
सीपीआई को चुनावी पार्टी में तब्दील कर दिया। 1960 के दशक से शुरू कम्युनिस्ट
आंदोलन में फूट और धीरे-धीरे हासिए पर चले जाने की कहानी इतिहास बन चुकी है। लगभग
डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स ने हेगेल को उल्टा खड़ा कर दिया था, भारत क्
कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को उलट दिया।
मार्क्सवादी सिद्धांतो पर हुई चीन, क्यूबा,
वियतनाम आदि क्रांतियों पर भी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। यह लेख इस उम्मीद के
साथ खत्म करता हूं कि रूसी क्रांति के शताब्दी वर्ष में ऐसे हालात बनें कि कि चिर
प्रतीक्षित एक नए इंटरनेसनल के हालात बनें और दुनिया के हर देश में ऐसे विप्लवी दस
दिन आएं जिससे दुनिया एक बार फिर हिल उठे। आज भारत तथा कई अन्य देशों में 1917 में
रूस जैसी परिस्थितियां बन रही हैं, लेकिन बोल्सेविक पार्टी सी किसी सुसंगठित
क्रांतिकारी मंच की जरूरत है, जो लोगों के असंतोष को क्रांतिकारी जज्बात में बदल
सके।
अंत में अपनी शक्ति की सीमाओं
के मूल्यांकन के बिना मार्क्सवाद के मूलभूत सिंद्धांतों की चर्चा के परिप्रेक्ष्य
में रूसी क्रांति के विश्लेषण की गागर में सागर भरने की महात्वाकांक्षी योजना में
कितनी कामयाबी मिली यह तो पाठक ही बताएंगे। हाल में त्रिपुरा में सीपीयम की हार,
या संशोधनवाद के अंतिम द्वीप के पतन के बाद, संघी गिरोहों की उत्पात और लेनिन की
मूर्ति-भंजन के संदर्भ में आजकल भारत में, खासकर टीवी चैनलों की ‘मृदंग’ मीडिया और
सोसल मीडिया में लेनिन के बहाने मार्क्सवाद और आजादी पर बहस छिड़ गयी है।
भाजपा के एक स्वनामधन्य सांसद सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने लेनिन को आतंकवादी करार
दिया। इस संदर्भ में इस लेख का समापन, परिशिष्ट के तौर पर वर्ग और वर्ग-चेतना तथा मार्क्सवाद और
आजादी पर छोटी-छोटी चर्चाओं से करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
परिशिष्ट 1
मार्क्सवाद और आजादी
मार्क्सवाद के बारे में
पूंजीवादी (उदारवादी) और अराजकतावादी दोनों किस्म के बुद्धिजीवी अधिनायकवादी और
निजी आजादी के दुश्मन के रूप में प्रोपगंडा करते रहे हैं। कार्ल पॉपर ने प्लेटो से
वाया रूसो मार्क्स तक अधिनायक की एक कड़ी निर्मित करते हुए दो खंडो में खुला
समाज और उसके दुश्मन[54] लिख
मारा, यद्पि 1945 में प्लेटो के कम्युनिज्म का कतरा नहीं था, मार्क्स का
कम्युनिज्म सोवियत संघ के रूप में समक्ष था, जिसकी विश्वयुद्ध में निर्णायक भूमिका
फासीवादी मंसूबों को नेश्त-नाबूत कर दिया था। सबसे पहले तो संसदीय (बुर्जुआ)
जनतंत्र में आजादी का क्या मतलब है। रूसो ने संसदीय जनतंत्र के शैशवकाल में ही कह
दिया था कि यह एक झूठा जनतंत्र है और झूठी आजादी। “इंगलैंड में लोग मतदान करते समय
स्वतंत्र होते हैं, फिर बेड़ियों में जकड़ दिए जाते हैं, यह आजादी नहीं है, यह कुछ
भी नहीं है”[55]।
समानता
और सामूहिकता को जोड़कर आजादी की रूसो की नई परिभाषा की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश
नहीं है, उनका लोकमत (जनरलविल) का सिधांत एक नए राजनैतिक दर्शन की बुनियाद है, जिसे इसइया बर्लिन
सकारात्मक स्वतंत्रता का सिद्धांत कहते हैं[56]।
रूसो, गुलाम समाज में व्यक्तिगत आजादी भ्रम तथा लोकमत के आदेशपालन को आजादी बताकर
आजादी की मार्क्सवादी अवधारणा, पूंजी की गुलामी तथा सर्वहारा की तानाशाही के
सिद्धांत का पूर्वाभास देते हैं।
मार्क्सवाद और स्वतंत्रता को विरोधाभाषी
बताने वाले, यह नहीं बताते कि स्वतंत्रता है क्या? उसी तरह जैसे देशद्रोह की सनद
बांटने वालों से देशभक्ति की परिभाषा पूछने पर बोलते हैं, बंदेमातरम्।बंदे मातरम्
क्या हैवबंदे मातरम्। अपरिभाषित अवधारणाएं, शासक वर्गों के भोंपुओं के कुप्रचार के
लिए अनुकूल होती है। मैं अपनी बात इतिहास के सुविदित तीन दृष्टांतों से शुरू करके
बुर्जुआ जनतंत्र की औपचारिक स्वतंत्रता और मानव-मुक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता की
अतिसंक्षिप्त तुलनात्मक विश्लेषण की कोशिस करूंगा। क्रिस्टोफर कॉडवेल एक अंग्रेज
युवक थे, कवि, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी। कम उम्र में ही कम्युनिस्ट पार्टी
ऑफ ग्रेट ब्रिटेन के सदस्य बने। भगत सिंह की ही तरह युवावस्था में अद्भुत बौद्धिक
परिपक्वता और मौलिक चिंतन। दोनों 1907 में पैदा हुए थे। 1930 के दशक में आजादी के
लिए शहीद होने वाले तीसरे मार्क्सवादी, क्रांतिकारी, छोटे कद के 20वीं शदी के
महानतम् क्रांतिकारी विचारक, एंटोनियो ग्राम्सी इन दोनों से 16 साल पहले पैदा हुए
थे। क्रिस्टोफर कॉडवेल एक खांटी मार्क्सवादी और प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे। वे
जनतांत्रिक आजादी के लिए अपने देश में लिखते-लड़ते रहे और जब जनतांत्रिक आजादी पर
किसी अन्य देश, स्पेन पर आजादी पर फासवादी खतरा आया तो कलम के साथ बंदूक भी उठा
लिया और अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की तरफ से लड़ते हुए, 1937 में शहीद हो गए, भगत
सिंह की शहादत के 6 साल बाद। भगत सिंह की ही तरह अनमोल वैचारिक खजाना छोड़ गए,
भविष्य की पीढ़ियों के लिए। उनकी रचनाएं कालजयी हैं। स्टडीज एंड फर्दर स्टडीज
इन अ डाइंग कल्चर में शामिल 35 पेज का निबंध, स्वतंत्रता[57],
इस विषय पर मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य का अपने आप में एक समग्र पाठ है। युवा
कॉडवेल अपने देश में कलम से आजादी का अलख जगाते रहे और एक अन्य देश में आजादी पर
फासीवादी खतरा आया तो बंदूक भी उठा लिया और आजादी के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए।
भगत सिंह
और साथियों ने गुलामी की जिंदगी की बजाय आजादी के लिए इंकलाब जिंदाबाद के नारे के
साथ हंसते हंसते फांसी का फंदा चूमा। स्पेन के क्रांतिकारी कवि गार्सिया लोर्का की
वह तस्वीर आंखों से ओझल ही नहीं होती। सामने तनावग्रस्त भाव में बंदूकें ताने
फासीवादी शूटर खड़े थे और यह बंदा मौत के खौफ से बेफिक्र, हंसते हुए फासीवाद
मुर्दाबाद तथा आजादी जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। समाज की आजादी के लिए अपनी
भौतिक आजादी को दांव पर लगाने वाले क्रांतिकारियों की लंबी फेहरिस्त है। एक गुलाम
समाज में निजी आजादी एक छलावा है, आजाद होने के लिए समाज आजाद करना पड़ेगा।
इटली की
कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया तथा सांसद, एंटोनियो ग्राम्सी से फासीवादी शासक इतने
खौफजदा थे, कि 1926 में फासीवादी एटार्नी ने अदालत से “इस दिमाग को 20 साल के लिए
काम करने से रोक देने की गुजारिश की थी”[58]।
दिमाग की उड़ान पर रोक तो नामुमकिन था, 10 साल जेल के कष्ट और बिना उचित दवा-दारू
के शरीर जर्जर हो गयी तथा दिमाग के काम करने या जीने अवधि कम हो गयी। 11 साल बाद
जेल से छूटने के कुछ ही दिनों में 27
अप्रैल 1937 में उनका निधन हो गया। धीरे-धीरे मरते हुए क्रांतिकारी का कलम कभी
नहीं रुका और मरते वक्त क्लीनिक में घनी लिखावट में 2,848 हस्तलिखित पन्ने, अपनी
मौत के बाद चोरी-छिपे देश से भेजने के छोड़ गए, जो भविष्य की क्रांतिकारी पीढ़ियों
के लिए दुनिया को समझने का ज्ञान; इंकलाब की मिशाल तथा आचारसंहिता बन गयी, उस पर
टनों शोध हो चुके हैं[59]। 1926
में जब उनकी गिरफ्तारी अवश्यंभावी लगी तो उन्होने देश से बाहर जाने की सलाह नहीं
माना, “यह नियम है कि कप्तान डूबते जहाज से उतरने वाला आखिरी व्यक्ति होता है;
.... ।[60]”
क्यों ग्राम्सी ने फासीवाद के विरुद्ध समाज की आजादी के लिए निजी जिंदगी और आजादी
खतरे में डाल दिया? क्योंकि गुलाम समाज में निजी आजादी एक भ्रम है जो एक अन्य
मिथ्या संकल्पना पर आधारित है कि व्यक्ति का अस्तित्व एक स्वायत्त इकाई है जबकि वह
जो है वह एक स्वायत्त व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि समाज में, समाज के जरिए होता
है। समाज के भौतिक उत्पादन के दौरान वह कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ एक
अनचाहे रिश्ते में बंध जाता है, जिसे समाज का उत्पादन संबंध कहते हैं[61]।
बड़े
स्वतंत्र, लंबे लेख के विषय को परिशिष्ट के रूप में पेश करने का दुस्साहसी प्रयास
को विराम देने के पहले एक और दृष्टांत। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘मेरठ षड्यंत्र
मामले’ (1929-33) में भारतीय मजदूर तथा कम्युनिस्ट नेताओं के साथ, ग्रेट
ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीजीबी) के 3 सदस्य भी बंद थे, हचिंसन, ब्रैडले
और स्प्रैट। उन्होंने अपनी निजी भौतिक आजादी के लिए अंग्रेज शासकों की कोई शर्त
नहीं मानी, उनके लिए, उस समय आजादी का मतलब था, औपनिवेशिक गुलामी से आजादी, जिसकी
अगली कड़ी है पूंजी की गुलामी से आजादी[62]।
उपरोक्त
दृष्टांतों का मकसद यह है कि मार्क्सवाद और स्वतंत्रता में कोई विहोधाभास नहीं है,
मार्क्सवाद व्यक्तिवाद और निजी मुनाफे पर आधारित लूट-खसोट और श्रम बेचने की मजबूरी
के अभिशाप की स्वतंत्रता को औपचारिक स्वतंत्रता मानता है। मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं,
सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का हिमायती है।
के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त
अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे
नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत,
समाज
के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है। व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर
निजी इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है,
यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है। उदारवादी
(पूंजीवादी) आज़ादी औरों से मिलकर रहने की नहीं बल्कि अलगाव की
आजादी है। दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की,
बेरोक-टोक लूट और संचय की अजादी है. सवाल उठाता है
क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी रूप स स्वंतत्र हो सकता है?
निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है.
आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल
मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो,
व्यक्तिगत आज़ादी सामाजिक आजादी का अंग है।
यह परिशिष्ट अपरिभाषित आजादी का
डंका पीटने वालों से क्रिस्टोफर कॉडवेल के सवाल-जवाब से, समाप्त करना चाहूंगा। क, ख और ग तीन अलग-अलग इंसान हैं। मान लीजिए क
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, अंग्रेजों के जमाने की बाग-बगीचे वाली
कोठी में रहते हैं, सुविधा-संपन्न जीवन लायक आमदनी है, समाज में सम्मान है। वैसे
तो अपना छोटा हेलीकाफ्टर होता, हिमालय की वादियों में, छुट्टियों प्रकृति की छठा
में बौद्धिक विलास के लिए एक सुंदर सा कॉटेज होता तो और अच्छा होता लेकिन जब चाहें
जहाज से छुट्टी मनाने कोदईकनाल जा सकते हैं। वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय
पत्र-पत्रिकाओं में , साम्यवाद पर; पूंजीवाद पर; सांप्रदायिकता पर; वामी
इतिहासकारों द्वारा पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को नजरअंदाज करने पर; देशभक्ति और
गोरक्षा पर जो चाहे लिख सकते हैं, लिखते हैं कि नहीं यह अलग बात है। क से पूछिए कि
क्या वे स्वतंत्र हैं, उनका जवाब होगा, “और नहीं तो क्या?”
ख, मान लीजिए मां-बाप की मदद के लिए कमाने झारखंड
से दिल्ली आया किसी ढाबेपर काम करने वाला कोई छोटू है। उसके मां-बाप ने कुछ और नाम रखा होगा लेकिन दिल्ली आकर उसका नाम
व्यक्तिवाचक संज्ञा से जातिवाचक संज्ञा बन गया। उसकी सुबह शुरू होती है सुबह 5 बजे
और खत्म होती है, अंतिम ग्राहक के जाने के बाद। उसके पास स्वतंत्रता-परतंत्रता
(अस्वतंत्रता) के बारे में न कोई जानकारी है, न सोचने का समय। उसका ज्ञान गांव में
सीखा पाप-पुण्य तक सीमित है और ग्राहक न होने पर मालिक के मनोरंजन के लिए ढाबे में
रखे टीवी पर जी न्यूज या सास भी बहु थी किस्म के सीरियल ही उसके ज्ञानवर्धन के
श्रोत हैं। उसकी एक ही चिंता है कि मालिक कहीं किसी बात पर नाराज होकर निकाल न दे,
ढाबे की रोटी और छत से महरूम हो जाएगा।
ख की समस्या है कि उसके पास
सोचने के समय का अभाव है, ग की वह समस्या नहीं है,उसके पास समय ही समय है। वह एक
उच्चशिक्षित बेरोजगार है। वह कुछ भी लिखने-बोलने-करने को स्वतंत्र है। लेकिन हम
जानते हैं कि वह यह सब कुछ नहीं करता वह अच्छो पदों पर प्रतिष्ठित अपने मित्रों के
प्रति ईर्श्या और कटुता की भावना रखता है और परिवार के साथ चिडचिड़ापन महसूस करता
है, जो उसे नाकारा समझते हैं। किसी शाम जब घर वाले कहीं गए हों तो कमरे से लटककर
आत्महत्या कर लेता है, जिसके लिए वह बिल्कुल स्वतंत्र है।
कॉडवेल पूछते हैं कि यदि क
स्वतंत्र है तो क्या ख औग ग भी स्वतंत्र हैं। “मुझे लगता है, क का जवाब होगा नहीं।
....... वेल्स, फोस्टर या रसेल हम से सहमत होंगे कि यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि
परिस्थितिजन्य अपमानजनक गुलामी है। ख और ग की परतंत्रता कैसे समाप्त की जा सकती
है? उनका जवाब होगा उन्हे क के बराबरी पर लाने से”। यह पूंजीवाद में संभव नहीं है,
क्रांति की जरूरथ होगी। फिर सर्वहारा की आजादी का क्या? “उसकी वैतनिक गुलामी के
लिए जिम्मेदार पूंजीवादी संस्थानों और सामाजिक संबंधों के उन्मूलन में उसकी आजादी
है। ....... स्वतंत्रता की दोनों अवधारणाओं का अंतर्विरोध असाध्य है। सर्वहारा के
सत्ता में आने के बाद पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की पुरस्थापना का प्रयास सर्वहारा
की आजादी पर हमला है। उसका प्रतिकार उसी तरह किया जाता है जैसे कोई भी अपनी
स्वतंत्रता पर हमले का करता है। यही है सर्वहारा की तानाशाही”[63]। अतः
संसदीय जनतंत्र का जनवादी विकल्प है, सर्वहारा की तानाशाही तथा औपचारिक आजादी की
जगह वास्तविक आजादी यानि वर्ग-शासन से आजादी, वर्गविहीन समाज यानि राज्यविहीन समाज
की तरफ प्रस्थान तथा क्षमता के अनुसार काम तथा आवश्यकतानुसार आपूर्ति की वैतनिक
गुलामी से मानव-मुक्ति का संक्रंण, सर्वहारा की तानाशाही संक्रमण काल है। ऐतिहासिक
कम्युनिस्ट पार्टी शासित राज्यों में इसके प्रयोग के गुण-दोष की चर्चा अलग विमर्श
का विषय है।
परिशिष्ट 2
वर्ग और वर्ग चेतना
परिशिष्ट 1 बहुत लंबा हो गया, इसे अतिसंक्षिप्त रखने की कोशिस करूंगा।
क्रांति के दो कारक होते हैं, आंतरिक और वाह्य। आंतरिक कारण है व्यवस्था का संकट,
यानि व्यवस्था के अंतर्विरोधों की परपक्वता। वाह्य कारण है, सत्ता संभालने की
तैयारी के साथ वैकल्पिक क्रांतिकारी शक्ति की मौजूदगी। फ्रांस में वर्ग-संघर्ष में
1848 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बीच बोनापार्टवाद के उदय के बारे में मार्क्स ने
लिखा कि पूंजीपति वर्ग हार चुका था और सर्वहारा वर्ग की सत्ता पर काबिज होने की
तैयारी नहीं कर पाया था।[64] यह
तैयारी क्या है? मार्क्स और
एंगेल्स अपनी लगभग सब रचनाओं में इस बात को लगातार रेखांकित किया है कि सर्वहारा
अपनी मुक्ति की लड़ाई खुद लड़ेगा। लेकिन कैसे? ‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए
वर्ग’ बन कर यानि संख्या बल से जनबल बन कर, वर्ग हित के आधार पर अपने को संगठित
करके। संख्याबल से जनबल में संक्रमण की कठिन कड़ी है वर्गचेतना। मार्क्स ने जर्मन
विचारधारा में लिखा है, ““हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार
ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है वही
बौद्धिक शक्तियों पर भी शासन करता है. भौतिक उत्पादन के शाधन जिसके नियंत्रण में
होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों
पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं
विचारों के आधीन रहते हैं”[65]। मार्क्स इसे युग का विचार या युग चेतना
कहते हैं। यह युग चेतना सामाजिक चेतना का स्वरूप निर्धारित करती है। “हर युग का
शासक वर्ग व्यवस्था के वैधीकरण के लिए वैचारिक वर्चस्व निर्मित करता है जो शोषण
दमन पर आधारित व्यवस्था को न्यायपूर्ण बताता है जिसे शोषित भी आत्मसात कर लेता है।
यही मिथ्या चेतना, युग चेतना बन जाती है।
शोषित युग चेतना के प्रभाव में शोषण को पनी कमियों का परिणाम और नियति मान लेता
है”[66]। हर
युग का शासक वर्ग अपने आंतरिक तथा गौड़ एवं प्रायः कृतिम अंतर्विरोधों को समाज का
प्रमुख अंतर्विरोध प्रचारित कर मुख्य अंर्विरोध की धार कुंद करने की कोशिस करता है
और काफी हद तक सफल भी होता है। साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की दो सेवक
पार्टियों, भाजपा तथा कांग्रेस के आपसी अंतर्विरोध को प्रमुख राष्ट्रीय, राजनैतिक
अंर्विरोध प्रचारित किया जा रहा है। शासक वर्ग वर्गचेतना के अभियान की गति के
विरुद्ध धर्म, जाति, उपजाति आदि पर आधारित विचारधाराओं को हवा देता है।
जैसा कि ऊपर मार्क्स के हवाले से कहा गया है कि भौतिक जीवन की उत्पादन
प्रणाली सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक प्रक्रियाओं का सामान्य निरूपण करती हैं।
“अपने विकास के खास चरण में समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियों और मौजूदा उत्पादन संबंधों का टकराव
होता है” जो उत्पादक शक्तियों के “विकास में बाधक बन जाते हैं। तब शुरू होता है
सामाजिक क्रांति का एक युग” । इस तरह हम देखते हैं कि सामाजिक क्रांति की दो शर्ते
हैं। पहली शर्त विकास का चरण और दूसरी वर्ग चेतना से लैश सर्वहारा संगठन।
मार्क्स सोचते थे कि विकास के अपने चरम पर
पूंजीवाद के अंतर्विरोध परिपक्व हो जाएंगे तथा श्रम-समाजीकरण के जरिए मजदूरों में
वर्गचेतना का
प्रसार होगा तथा सर्वहारा अपने लिए वर्ग बनेगा। वह इन अंतर्विरोधों को समझेगा और
संगठित जनबल से उसे समाप्त कर नए युग का प्रारंभ करेगा। यदि क्रांति की स्थिति ऐसे
देश में बनी जहां पूंजीवाद का विकास न हुआ हो, जैसा रूस या चीन में हुआ, तो यह
क्रांति की नेतृत्वकारी पार्टी का उत्तरदायित्व बनता है कि पूंजीवाद के विकास के
वह शिक्षा, सभा तथा संघर्षों के जरिए युग चेतना के मिथ को बेनकाब करें और उनके
अंदर पूंजीवाद की व्यक्तिवादी सामाजिक चेतना का जनवादीकरण करे। चीनी सास्कृतिक
क्रांति का यही मकसद था। 1960 के दशक तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की उल्लेखनीय
संसदीय उपस्थिति थी, लेकिन पार्टी इस कदर संसदीय समीकरणों में उलझ गयी कि क्रांति
और वर्गसंघर्ष की बातें कर्मकांडी कथा बनकर रह गयीं। अन्य पार्टियों की ही तरह
कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने के प्रयास की बजाय
उन्हें पार्टी लाइन से हांकते रहे। वर्ग चेतना के अभाव में उनके चुनावी जनाधार का
संख्याबल, भाजपाई या सपाई संख्याबल बन गया। यह परिशिष्ट इस बात से खत्म करता हूं
कि पूंजीवाद की ही तरह समाजवाद भी सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। दुनिया के हर
देश में पूंजीवाद से जन-असंतोष है, उसे संख्याबल से जनबल में तब्दील करने के
सिद्धांत और रणनीति असंतोष के इसी उहापोह से निकलेगा।
उपसंहार
क्रांति एक निरंतर प्रक्रिया है, रास्ते में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।
समाजवाद पूंजीवाद का विकल्प है और सामूहिकता वर्ग चेतना पूंजीवादी व्यक्तिवादी
चेतना का। पूंजीवाद के विभिन्न चरणों के अनुरूप समाजवादी सिद्धांत भी बदलते हैं।
उदारवादी पूंजीवाद के विरुद्ध, फ्रासीसी क्रांतियों (1789, 1848, 1871); रूसी
क्रांतियों (1905, 1917); चीन (1949), क्यबा (159), वियतनाम की क्रांतियों के
प्रयोगों से क्रांति का एक दौर खत्म हुआ नवउदारवादी पूंजीवाद के विरुद्ध तमाम
देशों में स्वस्फूर्त विरोध हो रहे हैं जिन्हें एक संगठित रूप देने से क्रांति के
नए दौर की शुरुआत होगी। भूमंडलीय पूंजी का कहर भूमंडलीय है, प्रतिरोध भी भूमंडलीय
होनी चाहिए। इस वक्त साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी से लड़ने के लिए एक नए इंटरनेसनल
के गठन की जरूरत है।
22.03.2018
[1]
ईश मिश्र, समाजवाद का इतिहास भाग 8,
समयांतर, अक्टूबर 2017
[3]
ईश मिश्र, समाजवाद का इतिहास भाग 8, समयांतर, अक्टूबर, 2017
[4]
इस पर विस्तृत चर्चा के लिए देखें, ईश
मिश्र, समयांतर, सिंबर 2016
[5]
Karl Marx, Civil War in France published with other write-ups on the
rise and fall of the commune by him and Engels in Marx and Engels On Paris
Commune, Progress, Moscow, 1971.
[7]
टीवी चैनलों, फेसबुक और ट्वीट पर लेनिन को
एक विदेशी कह कर त्रिपुरा में उनकी मूर्ति तोड़ने तथा उत्पात को वाजिब बता रहे थे।
[9]
Theses on Feuerbach
[12] Theses on Feuerbach op. cit.
[14]
उपरोक्त
[15]
उपरोक्त पृ.265
[16] Preface
to Address to 1st International , Inaugural
Address of the International Working Men's Association
https://www.marxists.org/archive/marx/works/1864/10/27.htm
[17]
Theses on Feuerbach op.cit.
[18]
Engels, Ludwig Feuerbach and the End of Classical German Philosophy, in
Karl Marx & Frederic Engels, Selected Woks (in one Vol.), Progress,
Publishers, Moscow, 1978, pp. 586-87
[19]
Communist Manifesto
[22]
Karl Marx, Preface to A Contribution to the Critique of Political Economy
, Progress pblishers, Moascow, 1984,
pp.19-23
[24]
मार्क्स ने सोचा था कि एकाधिकारवादी
पूंजीवाद में विशाल उत्पादन प्रतिष्ठान होंगे जहां श्रम-सामाजिककरण के दौरान
वर्गचेतना तथा मजदूर एकता का विकास होगा, लेकिन नवउदारवादी उत्पादन पद्धति ने
आकलित समीकरण को बिगाड़ दिया, श्रम सामाजिककरण के नए उपाय खोजने होंगे।
[26]
ईश मिश्र, समाजवाद का इतिहास, समयांतर, अक्टूबर, 2017
[28]
ईश मिश्र, उपरोक्त
[30]
1905 में फैक्ट्रियों के मजदूरों ने
हड़तालों पर दमन रोकने के लिए मजदूरों ने सशस्त्र फैक्ट्री गार्ड के दस्तों का गठन
किया था, देखें, ईश मिश्र, उपरोक्त
[31]
1905 के जन आंदोलन पर जार की पुलिस और
सेना की अंधाधुंध गोलीबारी से हजारों आंदोनकारियों का कत्लेआम कर दिया था, उस दिन
इतवार था तभी से उसे खूनी इतवार कहा जाने लगा। देखें उपरोक्त
[33]
उपरोक्त
[34]
उपरोक्त
[35]
उपरोक्त
[36] Lenin,
The Tasks of the Proletariat in the Present Revolution(The
April Theses), Collected Works, Vol.24, pp. 19-24
[37]
John Reed, उपरोक्त
[38]
Lenin, State and Revolution , उपरोक्त
[40]
Paul LeBlanc. Lenin
and the Revolutionary Party. Humanities Press International, 1990.
pp.49-50, 260-64, 306-09
[41]
उपरोक्त
[44] Letters:
Marx-Engels Correspondence 1891 - Marxists Internet Archive
https://www.marxists.org/archive/marx/works/1891/letters/91_11_01.htm
[45]
Lenin, https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1920/lwc/
[48]
Randhir Singh, Crisis of Socialism
[49]
Roger E Kanet, The Rise and Fall of ‘All ;people’s State: Recent Changes in
Soviet Theory of State, Soviet Studies, Vol. 20, No.1, July, 1968,
pp. 81-93
[50] I Wor Kuen, Soviet Social Imperialism and the International Situation
Today, Getting Together, Vol. VII, No. 2, July
1976.
[52]
कम्यनिस्ट मेनीफेस्टो
[53]
ईश मिश्र, कम्युनिस्ट और जाति का सवाल,
समयांतर, मई, 2016; ईश मिश्र, समाजवाद की समस्याएं समकालीन
तीसरी दुनिया, मई 2016
[54]
Karl Popper, Open Society and its Enemies, Vol 1: Spell of Plato; Volume 2.
Spell of Marx.
[55]
Jean Jacks Rousseau, Social Contract, p.
[56]
Isaiah Berlin Two Concepts of Liberty, Four essays on Liberty, OUP,
1969.
[57]
Christopher Caudwell, Studies and Further Studies in A Dying Culture, Monthly
Review Press, London, 1972, pp.193-228
[58]
Quoted in Carmel Borg; Joseph Buttigieg; Peter Mayo (Eds), Gramsci and
Education, Roma and Littlefield, New York, 2002, p. 153
[59]
Antonio Gramsci, Selections from Prison Notebooks (edited by Quintine
Hore & Geoffery N Smith), Lawrence & Wishart, London, 1978, p. xviii
[61]
The preface, op.cit.
[62]
Sumit Sarkar, History of Modern India
[63]
Christopher Caudwell, उपरोक्त
[64] The
Class Struggles in France, 1848 to 1850 - Marxists Internet Archive
https://www.marxists.org/archive/marx/works/1850/class-struggles-france/
[65]
Karl Marx, German Ideology, Pregress, Moscow, 1968, p. 26
[66]
ईश मिश्र, उपभोक्ता संस्कृति बनाम
जनसंस्कृति: युगचेतना बनाम युग चेतना, डॉ. सुनीत सिंह एवं पीयूष त्रिपाठी
(सं), स्वराज, लोकतंत्र एवं टिकाऊ विकास, पीयूसीयल, इलाहाबाद, 2014, पृ.
16-19
No comments:
Post a Comment