वामी-कौमी से मैं आहत नहीं होता, अफवाहजन्य इतिहासबोध वाले बच्चों की समझ और सामाजिक चेतना के स्तर को लेकर चिंतित होता हूं। अब यह इडियम बन गया है। पहले कोल्हू के बैल का मुहावरा था, अब कोल्हू और बैल ही नहीं हैं। वैसे मार्क्स के भूत से पीड़ित भक्त पढ़ता [मैंने दो लेख पोस्ट किया था, 'सीपीयम में घमासान' (समयांतर, फरवरी, 2018) और 'कम्युनिस्ट तथा जाति' (समयांतर मई, 2016) किया था] तो समझता कि जिनको वे वामी-कौमी की गालियां दे रहे हैं, हम उन्हें वामी-कौमी मानते ही नहीं और वे हमें अराजक या उग्रवामी कहते हैं। हाय अल्ला पांडौ में पांड़ा। वामियों के बारे में कहा जा सकता है, 'हा अल्ला लालौ में लाल'। जैसा ऊपर मैंने कहा मुहावरे, कहावतें, उपमाएं ससंदर्भ निर्मित समाप्त होती हैं। फेसबुक पर भक्त उस प्रवृत्ति का मुहावरा है जो एक बार दिमाग में बैठी बातों को टटोलता नहीं बल्कि उन्ही का भजन गाता रहता है। बाभन से इंसान बनना, जन्मप्रदत्त अस्मिता से ऊपर उठकर विवेक से अर्जित अस्मिता निर्माण का मुहावरा है। इस मुहावरे की रचना का श्रेय प्रो. आसयस शर्मा को जाता है, जिन्होने किसी संदर्भ में अपने 'भूमिहार से इंसान' बनने का जिक्र किया। रूपांतर कर प्रचार करने का श्रेय मेरा है। सादर, जिसे लगे वह भी बुरा न माने होली है। हास्य का आननंद वही लेता है जो अपना मजाक बना सकता है। वैसे बचपन में मेरा उपनाम पागल था। ईश नाम रखने वाले दादा जी ने ही यह उपनाम भी दिया था। सादर।
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