बगावत की पाठशाला
संघर्ष और निर्माण
विषय: मार्क्सवाद
पाठ 12
रूसी क्रांति
अध्याय 1
रूसी क्रांति (1917)
सर्वहारा की तानाशाही के सपने का सच
ईश मिश्र
रूस की नवंबर 1917 में बोल्सेविक क्रांति एक युगकारी क्रांति थी, जिसने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की धारा ही बदल दी। सदियों पुरानी ज़ारशाही और उसके सामंती लाव-लश्कर का नामोनिशान मिट गया और रूसी साम्राज्य की जगह सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीयसयू) के नेतृत्व में यूनियन ऑफ सोवियत सोसलिस्ट रिपब्लिक (सोवियत समाजवादी गणराज्यों का संघ) या सोवियत संघ की स्थापना हुई। बोल्सेविक शब्द दुनिया के सभी साम्राज्यवादी, प्रतिक्रियावादी खेमों में पूंजीवाद के विनाश के खतरे के रूप में प्रतिध्वनित होने लगा। उसके विरुद्ध साम्राज्यवादी लामबंदी और साजिशों का सिलसिला इतिहास बन चुका है।
1917 में रूस में ताबड़तोड़ दो क्रांतियां हुईं – मार्च में पूंजीवादी जनतांत्रिक क्रांति जिसमें समाज के लगभग सभी तपकों का प्रतिनिधित्व था और नवंबर में बोसलेविक पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा क्रांति। पहली क्रांति के बाद सदियों पुरानी जारशाही को मटियामेट कर नई संविधान सभा का चुनाव कराने के मकसद से अंतरिम सरकार का गठन किया गया। बोलसेविकों के अलावा मार्च क्रांति के सारे दावेदार उसे अब विश्रामावस्था में रखकर, पश्चिमी देशों के नक्शेकदम पर संसदीय जनतंत्र के निर्माण के पक्षधर थे। मेनसेविक और नोरोडनिक लोकवाद के वैचारिक उत्तराधिकारी समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी का दक्षिणपंथी घड़ा भी अंतरिम सरकार में शामिल था। लेनिन क्रांतिकारी परिस्थितियों के महत्व को लगातार रेखांकित करते रहे थे, लेकिन उन्होंने 1905-07 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बाद लिखा था कि क्रांतिकारी परिस्थिति अपने आप में क्रांति की गारंटी नहीं हैं । मार्क्स ने थेसेस ऑन फॉयरवाक में लिखा है कि चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली परिस्थियों की। लेकिन परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं, उन्हें मनुष्य का सचेतन प्रयास बदलता है । लेनिन के नेतृत्व में बोलसेविक पार्टी क्रांतिकारी परिस्थितियों का सदुपयोग करते हुए मार्च क्रांति को सर्वहारा क्रांति में तब्दील करने की पक्षधर थी। इस तरह रूस में बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति अल्पजीवी रही, नवंबर क्रांति तक। सर्वहारा क्रांति और सर्वहारा-स्वशासन (सर्वहारा की तनाशाही) के सिद्धान्तकी संभावनाओं को हकीकत में बदलने का पहले प्रयास, पेरिस कम्यून (18710) को ‘राष्ट्रीय शत्रुता’ भूलकर यूरोप की सभी प्रतिक्रियावादी ताकतों ने मिलकर बर्बरता से कुचल दिया था। लेकिन सर्वहारा विद्रोह की ज्वाला की चिंगारियां सारे भूमंडल की बयार में घुल-मिल गयीं । पूरे यूरोप में जहां-तहां गिरती और धधकती रही। लगभग सभी देशों में समाजवादी संगठनों का गठन हो रहा था। पेरिस की सर्वहारा क्रांति तथा अल्पजीवी पेरिस कम्यून को तो यूरोप के सभी पूजावादी देसों की संयुक्त शक्कि से कुचल दिया गया, लेकिन 1871 की यह क्रांति भविष्य की क्रांतियों का संदर्भविंदु बन गया और क्मयून सर्वहारा की मिशाल। कम्यूनार्डों की शहादत से निकली चिंगारियां यूरोप के आसमान में ज्वाला बन फैल गयी जो में छा गयीं। एक चिंगारी 1917 मार्च में रूसी धरती पर गिरी और भभक कर, अपराजेय दावानल बन गयी।
पेरिस की सर्वहारा-क्रांति एक नगर के सर्वहारा का विद्रोह था। विकास के उस स्तर, पर कम्यून के नेतृत्व की दुनिया के मजदूरों एकता की क्रांतिकारी भावना विश्व गणतंत्र निर्माण के प्रति अगाध प्रतिबद्धता के बावजूद सैद्धांतिक और रणनीतिक स्पष्टता का अभाव था। नेतृत्व में अराजकतावादी (प्रूदों के अनुयायी) तथा बब्वॉयफ के आदिम साम्यवाद के सपने के लिए समानता की साजिश के उत्तराधिकारी, ब्लांकी के अनुयायियों का बहुमत था। पहले इंटरनेसनल के मार्क्स के अनुयायियों की संख्या नगण्य थी। दरअसल मार्क्स ने क्रांति को नेताओं को सशस्त्र क्रांति के लिए वक्त की अपरिपक्वता के विश्लेषण के साथ और क्रांति को टालने के संदेश भी भेजे थे। लेकिन जब क्रांति हो ही गयी तो जी-जान से उसके साथ हो गए। यह मार्क्सवादी अर्थों में समाजवादी क्रांति नहीं थी। यहां पेरिस कम्यून के उत्थान-पतन के विश्लेषण की न तो गुंजाइश है, न जरूरत । मार्क्स ने फ्रांस में गृहयुद्ध में इसका सटीक विश्लेषण किया है।
नवंबर, 1917 की बॉलसेविक क्रांति सैद्धांतिक और रणनीतिक स्पष्टता के साथ, मार्क्सवादी अर्थ में पहली सामाजवादी, सर्वहारा क्रांति थी। बोलसेविक क्रांति रूसी साम्राज्य के सर्वहारा और किसानों का क्रांतिकारी उद्गार था। पेरिस कम्यून यूरोप की प्रतिक्रियावादियों ताकतों की आंखों की किरकिरी बन गया था जिसे उन्होंने राष्ट्रीय शत्रुता’ भूल, मिलजुल कर अमानवीय बर्बरता से निकाल दिया , लेकिन जॉन रीड के शब्दों में, 10 दिनों में दुनिया को हिला देने वाली बोलसेविक क्रांति, अजेय साबित हुई और उससे उपजा सोवियत संघ वीसवीं सदी की संध्या तक दुनिया की सभी तरह के प्रतिक्रियावादियों और साम्राज्यवादी ताकतों को चुनौती देते हुए उनकी आंखों की किरकिरी बना रहा। साम्राज्यवादी हमले के खतरों और अंतर्राष्ट्रीय वर्चस्व की प्रतिस्पर्धा एवं अपने अंतर्विरोधों के भार से सोवियत संघ के विघटन और पूंजावाद की पुनर्स्थापना के पहले अमेरिका साहस नहीं कर सकता था कि जिस-किसी बहाने जहां चाहे, जितने बम गिरा दे। जब भी ऐसा किया मुंहकी खायी, चाहे क्यूबा रहा हो या उत्तरी कोरिया या वियतनाम। गौरतलब है कि 1971 के बांग्लादेश युद्ध के समय अमेरिकी सरकार ने पाकिस्तान की मदद में जब परमाणु शस्त्रों से लैस सातवां बेड़ा रवाना किया था तो सोवियत संघ ने महज घोषणा की कि उनका सत्ताइसवां बेड़ा प्रतिकार के लिए तैयार है। थूक कर चाटते हुए अमेरिकी सरकार को अपने युद्धपोत को बीच रास्ते रोक देना पड़ा। बोलसेविक क्रांति पर जॉन रीड की आंखो-देखे विवरण, वो दस दिन जब दुनिया हिल उठी से शुरू करके अनगिनत ग्रंथ लिखे जा चुके हैं इसलिए क्रांति की परिघटनाओं और गृहयुद्ध (1917-23) की जटिलताओं के विस्तार में जाने की थोड़ी जरूरत तो है, लेकिन ज्यादा गुंजाइश नहीं है। क्रांति की प्रमुख घटनाओं और प्रतिक्रियाओं की संक्षिप्त चर्चा; सामंती अवशेषों पर, समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया और बाधाओं तथा सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत और व्यवहार के अंतरविरोध; तीसरे अंतरराष्टीय के गठन और अंतर्राष्टीय समाजवादी तथा राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों पर इसके प्रभाव की संक्षिप्त समीक्षा का प्रयास किया जाएगा।
मार्क्सवादी अर्थों में यह पहली समाजवादी, सर्वहारा क्रांति थी, ऊपर यह बात पेरिस कम्यून के सापेक्ष कही गयी है। मार्क्सवादी राजनीति को वर्ग संघर्ष की राजनीति भी कहा जाता है तथा व्यापक अर्थों में शासक वर्ग के किसी भी अन्याय के विरुद्ध शासित वर्ग का कोई भी संघर्ष वर्ग संघर्ष की कोटि में आता है। ऊपर कहा गया है कि मार्क्सवादी सिद्धांतो पर आधारित यह पहली सर्वहारा क्रांति है। हिंदी पट्टी के उन पाठकों के लिए, जिनको मार्क्सवाद की जानकारी है, या कहासुनी पर आधारित है, मार्क्सवाद क्या है, सवाल का संक्षिप्त जवाब लाजमी बनता है। अफवाहजन्य इतिहासबोध के प्रतिक्रियावादी भोंपू मीडिया-सोसल मीडिया में, संशोधनवाद के अंतिम द्वीप, त्रिपुरा के पतन के बाद, मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ रहे हैं । सोवियत संघ के पतन के बाद, भूमंडलीय पूंजी के इनके अग्रज भोंपू इतिहास के अंत की घोषणा कर रहे थे । मार्क्सवाद वैज्ञानिक विचारों का एक समुच्चय है । विचार मरते नहीं, आगे बढ़ते हुए इतिहास रचते हैं। इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता, अंततः आगे ही जाती है, छोटे-मोटे यू टर्नों के बावजूद।
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