आपने वाजिब सवाल पूछा है कि जब जब भी आंदोलन क्रांतिकारी मोड़ पर पहुंचा, गांधी ने वापस ले लिया। इस पर 1987 में एक लेख लिखा था, दुर्गा भाभी के इंटरविव के साथ, उनकी इस बात के संदर्भ में कि गांधी एक बनिया थे, सभी फैसले जोख कर करते थे। खोजकर टाइप कराकर शॉफ्ट कॉपी सेव करूंगा। गांधी अपने समय की सामाजिक चेतना के साथ थे, भगत सिंह आगे। गांधी के पीछे जनता थी, भगत सिंह के साथ क्रांति के विचार। जो भी समय से आगे होता है वह उस समय अल्पमत में होता है लेकिन भविष्य का नायक बनता है। जब सुकरात पर मुकदमा चल रहा था तो बाहर जनता उनकी मौत के नारे लगा रही थी, 1600 में पादरियों के हुक्म से रोम में चौराहे पर जब वैज्ञानिक ब्रूनो को जिंदा जलाया जा रहा था, जनता गद गद हो तमाशा देख रही थी। धर्म संवेदनशीलता को बर्बर और क्रूर बनाता है, हत्या को बध कह कर उत्सव मनाता है। गैलीलियो को भी सार्वजनिक तौर पर गिलेटिन पर चढ़ाया गया था। पादरियों की रूसो को मारने की सुपाड़ी से आखिरी दिनों में भगोड़ा बना दिया था, मार्क्स को 3 देशों से भागना पड़ा था, चौथे परदेश में जिंदगी बिताया। आज इस चुंगी पर भगवान के बारे में कुछ कह देने पर लोग गालियों (शाब्दिक अर्थों में ही नहीं) की खंजर खींचकर खून के प्यासे हो जाते हैं, भगत सिंह तो भगवान की अवधारणा की चीड़-फाड़ के साथ लिख कर बताते हैं कि वे नास्तिक क्यों थे? बुतपरस्त समाज आज उन्हें माला भले पहनाए, अगर चुंगी पर होते तो भक्त उनकी मुझसे भी बुरी गत करते। होली पर भी उनके कमेंट्स में मन का कलुष झलक रहा है।
बुरा न मानो होली है।
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