Friday, March 23, 2018

बगावत की पाठशाला 11 (द्वंद्वात्मक भौतिकवाद 6)


बगावत की पाठशाला
विषय: मार्क्सवाद क्या है?
पाठ 6
कोर्स: द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
5
अनुभवजन्य दृष्टांत

परिचित दृष्टांतो से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की व्य़ाख्या की कोशिस के बाद इसकी ऐतिहासिक उत्पत्ति से परिभाषित करने के बाद लिखित लेक्चरों के साथ होमवर्क दे दिया। अब लेक्चर लिखित मिल ही रहा है तो छात्र नोट क्यों लेंगे?  फोटोकॉपी की सुविधा है ही। किसी अवधारणा की व्य़ाख्या के कई उपादान हैं, एक है दृष्टांतो परिभाषा निआमित करना, दूसरा परिभाषा की दृष्टांतो से पुष्टि। माट्साहब ने होमवर्क की कोई डेड लाइन  दी नहीं है। मैं बचपन से ही सुबह 4-5 उठ ही जाता हूं। बहुत बचपन में उठकर बाबा की रजाई में घुस जाता था, उनके साथ रामचरित मानस के दोहे-चौपाइयां दोहराता था, हफ्ते में दो दिन गीता के श्लोक। मैं सोचता था कि इतना सब बाबा को कंठस्थ कैसे था? अब लगता है, रोज रोज कोई चीज दोहराओगे तो कंठस्थ हो ही जाएगा। हां बीच-बीच में जयराम-श्रीराम-जयजयराम कई बार दोहराते थे, मैं उसे छोड़ देता था, एक ही बात बार लबार कहने से उसका अर्थ तो वही रहेगा। बचपन से ही मेरी कहानी जानने में रुचि थी भजन गाने में नहीं। माट्साहब लोगों को विषय को व्याख्यायित करने के चक्कर में भूमिका बांधने की लत पड़ जाती है। स्कूल में मैं हॉस्टल के बरामदे में होमवर्क करने में करता था, लाइट जलाने से रूममेट की नींद खराब होती। जब से मास्टरी मिली है तब से इस समय का इस्तेमाल क्लास की तैयारी में करता हूं। कभी किसी साल सौभाग्य से कंप्टूटर पर भी तैयार कर पाता हूं, साथ-साथ दिमाग में अपने आप व्वस्थित हो जाता हूं, उस दिन छात्रों से कहता हूं, आज पेन डाउन क्लास।

खैर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद प्रकृति और प्रकृति की हर वस्तुओं और घटनाओं पर लागू होता है। दर्शन का सिद्धांत तो आजीवन अध्ययन-अध्यापन का मामला है, बीच-बीच में परिचित घटनाओं, दृष्टांतों और अनुभवों के क्षेपकों से उसकी पुष्टि के क्षेपक अप्रासंगिक नहीं हैं। द्वंद्वात्मक भौतिवाद का एक मूलमंत्र है कि सच वही जिसका हो प्रमाण; दार्शनिकों ने की है दुनिया की व्याख्या बहुत तरीकों से की है, दिए नहीं उसे बदलने के विचार। पहले और दूसरे पाठों में अलग अलग संदर्भों के माध्यम से बताया गया था कि चेतना (विचार) भौतिक परिस्थियों (वस्तु) का परिणाम है, और भौतिक परिस्थियां (वस्तु) सचेत मानव प्रयास से बदलती है। यानि वस्तु और विचार का निरंतर द्वंद्व इतिहास का संचालक है। हर बात में अंतर्निहित उद्देश्य होता है कोई भी बात मूल्य-निरपेक्ष नहीं होती। बचपन का दृष्टांत इसलिए दिया कि बाबा के साथ ‘भजन गाने मे’ वस्तु और विचार के द्वंद्व का ज्वलंत उदाहरण है। इस मामले में वस्तु भी एक विचारशील प्राणी है, उसकी चिंतन-शक्ति भ्रूणावस्था में है। वह न अच्छा है न बुरा, उसे मालुम ही नहीं अच्छा बुरा क्या होता है, यह वह परवरिश की परिस्थियों में विकासशील दिमाग के इस्तेमाल से सीखता बनता है। बच्चा महज एक मासूम जीव है, लेकिन विचारशीलता की संभावनाओं से परिपूर्ण। प्लेटो ने इसीलिए बच्चे को पैदा होते ही पाठशाला में भरती करने को कहता है क्योंकि बच्चे मोम की तरह होते हैं जो आकार चाहो दे सकते हो। इसीलिए आरयसयस भक्तिभाव का प्रशिक्षण शिशु स्वयंसेवक से शुरू करता है, मैं बाल स्वयंसेवक रहा हूं और किशोरावस्था में एबीवीपी जिला-स्तर का नेता। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता गया  भौतिक परिस्थियों (वस्तु) और विचार (सचेत प्रयास) की अदला-बदली हो गयी। बाबा के विचारों से बनी भौतिक परिस्थियों से उपजी चेतना वस्तु बन गयी और चिंतनशील बालक विचार। वस्तु-विचार के इस द्वंद्व ने 13 साल की उम्र तक ऐसे विचार पैदा किया कि एक कर्मकांडी ब्राह्मण बालक जनेऊविहीन हो गया। बाबा पंचांग के ज्ञाता माने जाते थे। जब मैं 10 में पढ़ता था, बाबा को उनकी जनेऊ कातती तकली और पेड़ की डाल पर लटकी बाल्टी की हवा से आवर्ती गति के माध्यम से न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत समझाने की कोशिस कर रहा था, उन्होंने कहा, “का, रे पगला, न्यूटनवा भगवानौ से बड़ा रहा”? इस बात को मैंने एक लेख में शामिल किया है। (का रे पगला, न्यूटनवा भगवानौ से बड़ा है का? www.hastakshep.com/.../brahmin-childs-empty-back-stone-age-cyb.)

मैं अपनी बात से शुरू करता हूं। भौतिक परिस्थिति और चेतना की गतिमान, द्वंद्वात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया में मैं 13 साल की उम्र में जनेऊ विहान हो गया और 17-18 तक ईशविहान। मैं अधार्मिक हो चुका था लेकिन ‘बाभन से’ पूरी तरह इंसान नहीं बन पाया था[1]। मैं भी जिन्ना और सावरकर की ही तरह धार्मिक नहीं था, सांप्रदायिक था, कम्युनिस्ट विरोधी और आरक्षणविरोधी भी। मेरे जितने (ज्यादा नहीं) मुसलमान दोस्त थे, सब मेरे ही जैसे थे, मेरे गांव के मुसलमान मेरी बहुत इज्जत करते थे। हमारे गांव के निकटस्थ चौराहे (पवई) से निकटस्थ बड़े स्टेसन की यात्रा इक्के में होती थी। दो नामी इक्केवान थे, दुधई यादव और अली। हाई स्कूल में फर्स्ट आने के इनाम में अली मुझसे पैसे नहीं लेते थे। मन में किसी अमूर्त मुसलमान की छवि थी जो हिंदू औरतों को उठा ले जाता था और हिंदू महिलाओं को परदे और घूंघट में रखा जाने लगा; तलवार से धर्म परिवर्तन कराते हैं वगैरह वगैरह....। मनुस्मृति के बारे में बस इतना जानता था की यह दुनिया की सबसे महान आचार संहिता है, इसमें क्या लिखा है नहीं जानता था। मनुस्मृति में औरतों की आज़ादी को इतना खतरनाक बताया गया है कि इससे ब्रह्मांड हिल जाएगा तथा यदि वे शिक्षा पाने की कोशिस करे तो उनके कान में पिघलता लाह डाल देना चाहिए।
कम्युनिस्ट रूसी एजेंट होता है जिसका कोई ईमान-धरम नहीं होता और हमारी संस्कृति के लिए खतरनाक है। ‘पंजीरी खाकर’ मुसलमानों से नफरत का ‘भजन गाता’ रहता था[2]। संस्कृति क्या होती है, नहीं जानता था। इसमें शाखा के बौद्धिकों का भी योगदान रहा होगा। बीयस्सी में हमारा एक मुसलमान सहपाठी था, एक बार कुछ एबीवीपी वालों ने मालवीय कैफे (विज्ञान संकाय में स्वीमिंगपूल की कैंटीन में हम चाय पी रहे थे। हमारे एक सीनियर एबीवीपी में हमारे साथी (नाम बताने की आवश्यकता नहीं है) के नेतृत्व में एबीवीपी के कई लोगों ने उसे पकड़कर जबरन बंदेमातरम् बुलवा रहे थे, वह बोला नहीं तो उसको काफी मौखिक प्रताड़ना देकर अपमानित करके चले गए। मुझे भी लगा था कि बंदे मातरम् तो उसे बोलना ही चाहिए था। यह चेतना सामाजिक परिस्थियों से उपजी चेतना थी और सामाजिक परिस्थियों को बदले बिना चेतना नहीं बदलेगी। न्यूटन के गति के दूसरे नियम के अनुसार बिना वाह्य बल के प्रयोग के कुछ नहीं बदलता, सामाजिक परिस्थितियां बदलने के लिए मेरे चैतन्य प्रयास (वाह्य-बल) से बदलेगी।
मुझे छात्रसंघ के तत्कालीन (1972) महासचिव बृजेशकुमार ने क्यों, कैसे खोजकर एबीवीपी में भरती करने के साथ पदाधिकारी बना दिया, यह कहानी फिर कभी। वस्तु और विचार का द्वंद्व चलता रहा और नई चेतना की नई परिस्थितियां बनती रहीं। एबीवीपी के सदस्यों और अधिकारियों की कूपमंडूकता बेचैन करने लगी। मैं एबीवीपी के ऑफिस से उतर, ठाकुर की दुकान से सिगरेट लेकर 4 दुकान छोड़कर पीपीयच की किताबकी दुकान में चला जाता। प्रोग्रेस प्रकाशन की 5-10-15-20 पैसे की कोई पतली किताब बैठकर पढ़ता, मन लगता तो खरीद लेता। कृष्णप्रताप सर (दिवंगत), विभूति राय, वियोगीजी आदि कतिपय लोगों के साथ उठना-बैठना था तथा उनके कार्यक्रमों मे शरीक होता था। धीरे धीरे पीपीयच में बैठकी से किताबों की लत लग गयी। सबसे मंहगी किताब (दोस्तोवस्की का क्राइम एंड पनिशमेंट) 3 रुपए में खरीदा था। बदलती भौतिक परिस्थितियों में चेतना बदलने लगी और आरयसयस मार्का विखंडनवादी राष्ट्रवाद और बौद्धिकों में अफवाहजन्य इतिहासबोध से मोहभंग होने लगा। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का एक नियम यह भी कि नवीन, पुरातन की जगह लेता है, पुरातन को स्वतः रास्ता देना चाहिए नहीं तो ढकेल दिया जाएगा। एबीवीपी में पनपी चेतना पुरातन पड़ गई, उसे ढकेलकर उसकी जगह नवीन वैज्ञानिक चेतना ने ले लिय़ा।
पुरातन से मोह भंग का अंतिम विंदु था परिषद के कार्यकर्ताओं के लिए जिला प्रचारक वीरेश्वरजी का एक बौद्धिक। विषय था ‘युवाओं में राष्ट्रवादी भावनाओं (विचारों नहीं) का प्रसार’। गुरू जी के किसी उद्धरण से शुरूकर औरंगजेब की क्रूरता बताने लगे। मेरे मन में सवाल उठा कि राष्ट्रवाद में औरंगजेब की क्रूरता की क्या भूमिका होगी? 2 दिन पहले मध्ययुगीन इतिहास के एक छात्र ने इवि के किसी प्रो. की लिखी पुस्तक में औरंगजेब के मंदिर-मठों की सहायता के फरमान दिखाया था। उन्होंने बताया कि जिन हिंदुओं ने धर्मांतरण से इंकार कर दिया, औरंगजेब ने सबका कत्ल-ए-आम करवा दिया। अकेले आगरा में 40 मन जनेऊ जलाया गया। मैं गणित का विद्यार्थी था, दिमाग में आया 40 मन का मतलब हुआ लगभग 2 क्विंटल और जनेऊ सिर्फ सवर्ण पहनता है तथा एक जनेऊ का वजन 4-5 ग्राम होता होगा। मैंने मन ही मन मोटा-मोटा हिसाब लगाकर पूछा क्या आगरा के आसपास उस समय इतनी सवर्ण आबादी रही होगी? संघ में सवाल की परंपरा नहीं थी। कहा गया बौद्धिक के बीच में सवाल नहीं पूछा जाता, लेकिन अब तो पूछ चुका था। उन्होने जवाबी सवाल किया कि मेरी राय में औरंगजेब महात्मा था क्या? लेकिन यह मेरे सवाल का जवाब नहीं था। उन्होंने संशय जाहिर किया मैं कम्युनिस्टों के संपर्क में होऊंगा। मैंने कहा कुछ पढ़े-लिखे लोगों के साथ उठता-बैठता हूं, उनसे सीखने को मिलता है, पता नहीं वे कम्युनस्ट हैं कि नहीं। हां पीपीयच की किताबों के संपर्क में हूं। भौतिक परिस्थितियों के बदलने से मेरी चेतना सांप्रदायिक से वैज्ञानिक हो गयी, तत्थ्य-तर्कों के आधार पर दुनिया की व्याख्या और इंसानों की मूलभूत समानता में विश्वास के आधार पर मैं मार्क्सवादी बन गया। निजी चेतना के गतिविज्ञान की ही तरह सामाजिक चेतना का भी गतिविज्ञान है। इस पर विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी।
भूमिका और पूर्वकथ्य ने काफी समय लग गया लेकिन अब संक्षेप में  आत्म-कथ्यामक द्वंद्वात्मक यात्रा समेट दूं। आपातकाल के दौरान सफाया लाइन (एनीहिलेसन ऑफ क्लास एनिमी) से मोहभंग हो गया था। 1976 में भूमिगत अस्तित्व की संभावनाओं की तलाश में दिल्ली आ गया। इलाहाबाद के सीनियर और जेयनयू छात्रसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष (अभी राज्यसभा सदस्य), डीपी त्रिपाठी (वियोगी जी) को तलाशते जेयनयू पहुंचा। त्रिपाठीजी तो जेल में थे, एक अन्य अपरिचित सीनियर रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी, रहने की छत मिल गई।  नई भौतिक परिस्थितियां बदलने लगी और तदनुरूप चेतना। इलाहाबाद विवि के सामंती, रूढ़िवादी कैंपस से आकर जेयनयू का उंमुक्त कैंपस सुखद आश्चर्य था। उसके बाद जो जेयनयू अपना घर-गांव सा हो गया। ढाबों पर विचार-विमर्श; गीत-संगीत और साहित्य का माहौल, परिस्थियां बदली, नए द्वंद्व शुरू हुए और नई वैचारिक यात्रा जो आजीवन जारी रहेगी। कैंपस में यसयफआई राजनैतिक और बौद्धिक रूप से सक्रिय थी। मेरा इन लोगों के साथ ही ज्यादा उठना-बैठना था।
डीपी त्रिपाठी की यसयफआई में ‘गॉड फादर’ की हैसियत थी। अंग्रेजी-हिंदी में धारा प्रवाह 2-3 घंटे लंबा भाषण देते थे। आपातकाल के बाद इन्ही की टीम के साथ भिवानी बंसीलाल के खिलाफ चुनाव प्रचार करने गया। जैसा कि ऊपर बताया कि सफाया लाइन से मोहभंग हो चुका था तथा सापीआई कांग्रेस का पुछल्ला थी। सापीयम ही स्वर्णम मध्यमार्ग लगी और यसयफआई में भरती हो गया। नई परिस्थिति, नए द्वंद्व, नया वैचारिक आत्म-संघर्ष। शीघ्र ही नेतृत्व का अमार्क्सवादी चरित्र और संभ्रांत-असंभ्रांत के बीच विभाजन रेखा नजर आने लगी।
जेयनयू में, शुरू-शुरू में मैं जिन लोगों से प्रभावित हुआ उनमें दिलीप उपाध्याय (दिवंगत) का नाम सर्वोपरि है। अद्भुत हास्य-व्यंग्य से लैश बहुत प्रतिभाशाली व्यक्ति था। कहता था कि वह हमेशा अगला अध्यक्षीय उम्मीदवार है। उसके बारे में फिर कभी, मेरी मार्क्सवादी प्रशिक्षण में उसका भी योगदान है। आपात काल के बाद विपक्षी संगठन ‘फ्री-थिंकर्स’ अप्रैल (1977) में चुनाव चाहता था तथा यसयफआई सामान्य समय (अक्टूबर) जिससे त्रिपाठी जी की अध्यक्षता का कार्यकाल थोड़ा बढ़ जाए। वैसे यह अनुचित भी नहीं था क्योंकि अपने कार्यकाल (1974-77) का काफी हिस्सा तो जेल में बीता। खैर चुनाव पर जनमतसंग्रह हुआ और बहुमत चुनाव के पक्ष में था। रमाशंकर सिंह का (मेरा कमरा) सीताराम येचूरी के हगल में था। दिलीप की तुलना में सीताराम को चेहरे-मोहरे, अंग्रेजी और लड़कियों में स्वीकार्यता के चलते उम्मीदवार बनाया गया। मैं मतदाता नहीं था क्योंकि तब तक छात्र नहीं था, 3 महीने बाद नये सत्र में प्रवेश लिया। मैंने अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान दोनों में प्रवेश-परीक्षा इंटरविव दिया, दोनों में प्रवेश मिल गया और मैंने राजनीति विज्ञान पढ़ने का निर्णय लिया, जो अब लगता है गलत था (अब लगने का क्यामतलब) क्योंकि जो रानीति विज्ञान में पढ़े वह तो वैसे भी पढ़ सकता था। (वैसे तो कुछ भी वैसे भी पढ़ा जा सकता है।) सीताराम और तथा कौंसिल में यसयफआई के ज्यादातर सदस्य जीत गए। स्कूल ऑफ इंटरनेसनल स्टडीज तथा साइंस स्कूलों में कुछ फ्री थिंकर्स जीते। उस समय पुराने संविधान के तहत चुनाव होता था जिसमें अध्यक्ष का चुनाव सीधे होता था महासचिव तथा कोषाध्यक्ष के चुनाव कौंसिलर्स करते थे। चुनाव के बाद आपातकाल के दोषियों के खिलाफ ‘गिल्टी 4’ और ‘गिल्टी 3’ पर लंबा विवाद चला। मूनिस रजा रेक्टर थे और छात्रों के मुद्दों पर उनके रवैया मैत्रीपूर्ण था तथा वे जवानी में सीपीआई के पूर्णकालिक कार्यकर्ता रह चुके थे। (मैं अनके साथ अपना अनुभव कहीं और अलग से शेयर करूंगा।) यसयफआई-एआईयसयफ मूनिस रजा को दोषियों में नहीं जोड़ना चाहते थे और ‘गिल्टी 3’ के खिलाफ आंदोलित होना चाहते थे, फ्रीथिंकर्स (सभी दक्षिणपंथी छात्रों का जमावड़ा) और चंद ट्रॉट्स्कीवादी मूनिस को जोड़कर ‘गिल्टी 4’ के। इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं थी, विलिंगटन क्रिसेंट में रहती थीं। हमलोग सीता के नेतृत्व में जुलूस में उनसे त्यागपत्र की मांग करने गए थे। सबसे पहले विद्याचरण शुक्ल आते दिखे हमने हूट करके भगा दिया। आज तो जुलूस लेकर जाओ तो डीयम का चपरासी मेमोरेंडम लेता है। इंदिरा गांधी आई बिना किसी सुरक्षा के। हम गेट के बाहर थे किसी ने दरवाजा खोल दिया, इंदिराजी सीताराम के पास आकर खड़ी हो गयीं। मैने कभी सोचा नहीं था कि इंदिरा गांधी को इतने नजदीक से, बल्कि बगलमें खड़े होकर उन्हें देखने का मौका मिलेगा। हमने नारे लगाना बंद कर दिया। सीता विनम्र स्वर में मेमोरंडम पढ़ा और हाथ में दे दिया। उन्होंने पूछा, अभी प्रतिक्रिया दें या बाद में? 5 मिनट खड़ी रहीं, किसी ने कुछ कहा ही नहीं और वे अंदर चली गयीं। उनके बाद के प्रधानमंत्रियों में मैं नहीं सोचता कि जुलूस में आए छात्रों से बिना कमांडों के मिलने की हिम्मत होगी। मामला द्वद्वात्मक भौतिकवाद का है। दोनों अलग-अलग भौतिक परिस्थितियों से निकली चेतना अलग-अलग होती है।
 चूंकि सीता के पहले चुनाव का कार्यकाल अधूरा था इसलिए 1977 में जब सामान्य समय रक चुनाव हुआ तो फिर सीता को ही दुबारा उम्मीदवार बनाया गया। उसके इस कार्यकाल में दो काम हुए – एक तो जेयनयू का नया संविधान लिखा गया और दूसरा कैंपस में पहली बार हिंसा की कोई घटना हुई। जेयनयू का संविधान अनूठा दस्तावेज है। कई बैठकों में प्रस्तावित दस्तावेज तैयार हुआ। सभी स्कूलों और हॉस्टलों की जीबीयम (जनरलबॉडी) में लंबी बहस के बाद संशोधनों को ध्यान में रखकर संविधान को अंतिम रूप दिया गया जिसे संविधान सभा ( विवि की जीबीयम) ने लंबी बहस के बाद पारित किया। अपने ढंग का अनूठा दस्तावेज है, जिसे जेयनयू को बर्बाद करने के लिए भेजा गया तड़ीपार मानसिकता का मौजूदा बजरंगी कुलपति जगदेश कुमार अप्रासंगिक बनाने की फिराक में है, लेकिन वहां की माटी और हवा में तर्क-विवेक के इतनी चिंगारियां हैं कि उन्हें खत्म नहीं किया जा सकता है।
सांगठनिक संरचना और कार्यप्रणाली में एबीवीपी तथा यसयफआई में बहुत गुणात्मक फर्क नहीं था। लेकिन एक बहुत बड़ा फर्क यह था कि एबीवीपी में ज्यादातर अपढ़ थे तथा अटलबिहारी बाजपेयी की शैली में लफ्फाजी करते थे (मैं भी) तथा आस्था और अफवाहजन्य इतिहासबोध के आधार पर मुसलमानों के प्रति बोलते थे, लिखने की आदत किसी की थी नहीं। जेयनयू में पढ़ाई-लिखाई पर आधारित तथ्य-तर्कों के आधार पर बोलते-लिखते थे। कई चुनावी सभाओं में लड़के-लड़कियां क्लासरूम की तरह नोट लेते थे। एक चुनाव का मुद्दा तो स्टालिन बनाम ट्रॉट्स्की था। जेयनयू में एक छोटा सा ट्रॉट्स्कीवादी समूह था। उस चुनाव (1980 या 1981) में ट्रॉट्स का फ्रीथिंकर्स के साथ समझौता था। जैरस बानाजी इनके प्रमुख भाषणबाज थे तथा यसयफआई के डीपी त्रिपाठी। इन 3-4 सालों में इवि जैसे सामंती माहौल में जो सोच (चेतना) बनी थी यहां की बदली परिस्थियों में वे बिल्कुल बदल गयीं और चैतन्य प्रयास से परिस्थियों को बदलने में लग गया।
1980 में बदली चेतना ने परिस्थियां बदलने के लिए संगठन में पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव की जगह जनतांत्रिक और पारदर्शी कार्यप्रणाली मे बदलाव की मांग संगठन को बर्दाश्त नहीं हुई और मुझ समेत 35-40 लोगों को यसयफआई से निकाल दिया गया जिन्होंने अलग संगठन बनाया, वह कहानी फिर कभी।
बदलाव व्यवस्था बर्दाश्त नहीं करती चाहे संगठन की व्यवस्था हो या सत्ता की और 1983 के प्रवेशनीति के मसले पर लंबे आंदोलन को कुचलने के लिए विवि अनिश्चिककाल के लिए बंद कर दिया गया और 1983-84 को जीरो ईयर घोषित कर दिया गया। लोगों से कहा गया कि कैंपस में रहना है तो नतमस्तक होकर रहना पडेगा यानि आंदोलन में शिरकत के लिए मॉफी मांगना पड़ेगा। गलती की मॉफी मांगना वांछनीय है। लेकिन इस मामले में मॉफी मांगने का मतलब था आंदोलन को खारिज करना। नतमस्क समाज में सिर उठाकर चलने की कीमत काफी ऊंची होती है। दाव पर परिसर की जिंदगी के अलावा बहुत कुछ था। यूजीसी की फेलोशिप; पीयचडी की डिग्री; मेरी बेटी पैदा होने वाली थी और मैरिड हॉस्टल में मेरा नंबर आने वाला था। ज्यादातर लोगों ने नतमस्तक रह कर जीना पसंद किया। लेकिन बदली परिस्थियों से बदली चेतना ने सर उठाकर चलने की आदत डाल दी थी। उर्मिलेश, मुझे और छात्रसंघ अध्यक्ष, नलिनी रंजन मोहंती को 3 साल के लिए तथा 17-18 लोगों को 2 साल के लिए निकाल दिया गया। तीनों बड़े संगठनों – यसफ आई, फ्रीथिंकर्स तथा एआईयसयफ में सब सदाचरण वाले थे, इनका कोई सदस्य नहीं निकाला गया। मोहंती के सदाचरण के चलते कुछ महीनों में वापस ले लिया गया। मैं भी कुलपति से अपने सदाचरण के सबूतों के साथ कुलपति से मिलने गया, लेकिन वे तो मेरी शकल देखकर खफा होने लगे। मैंने कहा कि हो सकता है हमारे बीच कुछ गलतफहमी हो गयी हो, “कोई गलतफहमी नहीं हुई है, चीजें क्रिस्टल की तरह स्पष्च हैं, मैं जल्दबाजी में कोई काम नहीं करता (There is no confusion, I am crystal clear, I don’t act in haste)”। विवि से निष्कासन ने जिंदगी ही पटरी से उतार दी, कारणों के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है परिवार के साथ रहना 4 साल टल गया और मैं बेटी के बचपन के साथ जीने के सुख से वंचित रहा और उसका बचपन बाप के साथ जीने से। वह मुझसे 4 साल गांव में छोड़ने की एवज में 5 हजार रूपया पॉकेटमनी लेती थी, मंगाई बढ़ने से 10 हजार। पैसे से अपराधबोध नहीं मिटाया जा सकता। एक इंसान के कृत्यों की सजा उससे जुड़े लोगों को भी प्रभावित करती है। सोचता हूं कितनी जहालत भरी नाक की ऊंचाई होती है, कुर्सीधारियों की, माफी मांगकर रहने दे सकते हो तो मतलब मेरा कैंपस में अस्तित्व राष्ट्र की सुरक्षा के लिए इतना खतरनाक नहीं है, बिना मॉफी के ही रहने देते। बाद की कहानी फिर कभी।
जिंदगी की शुरुआती दौर के इस लंबे आत्मकथात्मक विवरण से यही कहना चाहता हूं कि मनुष्य की चेतना उसकी भौतिक परिस्थियों का परिणाम है तथा बदली चेतना बदली परिस्थियों का, मगर परिस्थितियां अपने आप नहीं बदलतीं बल्कि मनुष्य के चैतन्य प्रयास से। इतिहास की यात्रा की गति का निर्धारण इनकी  द्वंद्वात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया से होता है।    
           
 http://ishmishra.blogspot.com/2017/04/communist-and-parliamentarianism.html  


[1]  ‘बाभन से इंसान बनना’ जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घटना की अस्मिता से ऊपर उठकर अपने काम-विचारों से स्वअर्जित, विवेकसम्मत अस्मिता के निर्माण का मुहावरा है। यह किसी खास जाति पर नहीं, बल्कि सभी जाति-धर्म पर लागू होता है। इसमें अहिर से या हिंदू मुसलमान से भी इंसान होना शामिल है।
[2] ‘पंजीरी खाकर भजन गाना’ दिमाग में बैठे पूर्वाग्रहों पर सवाल किए बिना, हर बात पर भजन की तरह उन्हे रटे रटाए भजन की तरह दुहराते रहना, उसी तरह जैसे सत्यनारायण की कथा सुनकर, भक्त यह सोचता ही नहीं कि पंडित जी से पूछे कि इसमें कथा कहां है। इसे भक्तिभाव भी कहा जाता है।

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