बगावत की पाठशाला
संघर्ष और निर्माण
विषय: मार्क्सवाद
पाठ 9
टॉपिक:
मार्क्सवाद: एक विज्ञान
मार्क्सवाद क्या है?
जैसा कि इस श्रृंखला की शुरुआत में बताया गया है कि मार्क्सवाद वैज्ञानिक सिद्धांतो के आधार दुनिया को सनमझने और बदलने की एक चिंतनधारा है, जिसका नाम इस धारा के प्रवर्तक, कार्ल मार्क्स (1818-183) के नाम पर पड़ा। वे एक क्रांतिकारी बुद्धिजीवी थे जो पूंजीवादी विकास के शोषण-दमनकारी व्यवस्था को समझना ही नहीं, बदलना भी चाहते थे। उन्होंने बौद्धिक जीवन की शुरुआत में अपने विचारों की क्रांतिकारिता की घोषणा कर दिया था। “दार्शनिकों ने अन्यान्य तरीकों दुनिया की व्याख्या की है, लेकिन जरूरत इसे बदलने की है”[9]। उनके जीवन काल में ही उनके सिद्धांतों पर आधारित, मार्क्सवाद एक चिंतनधारा बन चुकी था। कई छोटे-छोटे मार्क्सवादी समूह बन चुके थे। मार्क्स की शवयात्रा में कम उपस्थिति के संदर्भ में, अपने अंत्येष्टि भाषण में एंगेल्स ने कहा था कि वह दिन दूर नहीं जब पूरी दुनिया मार्क्स के पक्ष-विपक्ष में खड़ी होगी। तीन दशक से कम समय में ही बॉलसेविक क्रांति ने इस भविष्यवाणी को सच कर दिया। सारी दुनिया दो खेमों में बंट गई मार्क्स के पक्ष और विपक्ष में -- राजनैतिक और बौद्धिक दोनों अर्थों में। मार्क्स के निधन के बाद 1889 में गठित दूसरे इंटरनेसनल के लगभग सभी घटक मार्क्सवाद को ही अपना वैचारिक श्रोत मानते थे, जैसे भारत की दर्जन से अधिक कम्युनिस्ट पार्टियां मानती हैं। एंगेल्स ने अपने उसी अंत्येष्टि भाषण में यह भी कहा था कि जिस तरह डार्विन ने जीवन के विकास के नियमों की व्याख्या किया उसी तरह मार्क्स ने इतिहास के नियमों की[10]। मार्क्सवाद विज्ञान है तथा मार्क्स विज्ञान को गतिशील मानते थे, इसीलिए यह कोई स्थिर आस्था नहीं गतिशील विचार है, जिसके बौद्धिक संसाधन मार्क्स तथा एंगेल्स की ही रचनाओं के भंडार तक सीमित नहीं है। ज्ञान की ही तरह विज्ञान भी एक निरंतर प्रक्रिया है, मार्क्सवादी परिप्रक्ष्य से अपनी परिस्थिति को समझने और बदलने के प्रयास करने वाले, लेनिन, माओ, भगत सिंह, ग्राम्सी, चे ग्वेयरा आदि की रचनाओं से यह भंडार लगातार संवृद्ध होता रहा है।
मार्क्स के जीवन के बारे में बहुत लिखा जा चुका है, उस पर चर्चा की यहां न तो गुंजाइश है न जरूरत। एकाध बातों का जिक्र यह रेखांकित करने के लिए जरूरी है कि शासक वर्ग और उनके भोंपू, सदा से ही वैज्ञानिक विचारों से आक्रांत होते रहे हैं और विचारों से भयभीत हो विचारक को कत्ल; दर-ब-दर और कैद करते रहे हैं। सुकरात से शुरू होकर बरास्ते ब्रूनो; गैलीलियो; दिदरो, रूसो; ब्लांकी; मार्क्स; भगत सिंह; ग्राम्सी; चे; ... की मिशालों की ऐतिहासिक निरंतरता है। मार्क्स 1841 में प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शन पर पीयचडी जमा करने करने के पहले ही सर्वहारा के रूप में इतिहास के नए नायक का अन्वेषण कर चुके थे[11] तथा छात्र जीवन में यंग हेगेलियन के सदस्य के रूप में छात्र-राजनीति में भी सक्रिय थे।एक कहावत है, ‘होवहार विरवान के होत चीकनो पात’। विश्वविद्याय में नौकरी मिलने से रही। कोलोन में एक पत्रिका में नौकरी कर लिया और संपाक बन गए। ‘सत्य वही जो प्रमाणित हो व्यवहार में’[12] लिखने के पहले ही पत्रकार के रूप में प्रमाणित कर सत्य लिखने लगे थे। एक कहावत है, ‘जंह-जंह पांव पड़ैं, संतन कै, तंह तंह बंटाधार’। तो शासकवर्गों के कानों में ‘राष्ट्र की सुरक्षा’ और ‘शांति’ के लिए खतरे की घंटी बजने लगी और अखबार बंद कर दिया गया तथा मार्क्स ने भाग कर फ्रांस में शरण ली। कहने का मतलब, हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा में एक योगदान [1843-44] तथा आर्थिक और दार्शनिक मैनुस्क्रिप्ट (पेरिस मैनुस्क्रिप्ट) [1844] के प्रकाशन के साथ यूरोप के बौद्धिक जगत में क्रांतिकारी लहजे में प्रवेश के पहले ही, 24 साल के एक युवक के कलम का इतना आतंक कि उसका अपनी धरती पर मौजूदगी ही राष्ट्र के लिए खतरा बन गया। वह ताजिंगी इंकिलाब की अलख जलाते दर-बदर भटकता रहा। 1848 तक उनका फ्रांस में भी रहना खतरनाक हो गया और भागकर बेल्जियम गए, जहां उन्होने एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट मैन्फैस्टो की रचना की। राष्ट्र की सुरक्षा के खतरे का भूत वहां भी नहीं साथ छोड़ा, उन्हें बेल्जियम भी छोड़ना पड़ा। राज्यविहीन विचारक के रूप में लंदन में बीती। वैसे भी उनका सपना राज्य-विहीन दुनिया का था, व्यक्ति की राज्य विहीनता का नहीं। भूमंडलीय लूट के प्रमुख औजार हैं, राष्ट्र-राज्य की सरकारें, क्रांति भी राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमा में ही होगी। युगचेतना की धारा के विपरीत विचार जल्दी पचते नहीं। समकालीन शासक वर्गों तथा उदारवादी और अराजकतावादी बुद्धिजीवियों के कोप-पात्र बन गए। तरह-तरह के कुप्रचार तथा विचारों पर सवाल होने लगे। जिसका वाजिब समझते थे जवाब देते थे, बाकी नजर-अंदाज कर देते थे। अराजकतावादी दार्शनिक, जोसेफ पियरे प्रूधों ने सर्वहारा के नायकत्व की मारक्स की अवधारणा का मजाक उड़ाते हुए, एक किताब लिख मारा, गरीबी का दर्शन[13] जो नवीनता के अभाव में, कोई खास प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही। मार्क्स ने जवाब में दर्शन की गरीबी[14] लिखा जो एक कालजयी कृति बन गयी। सब रचनाएं अपनी परिस्थितियों को ही संबोधित करती हैं, अतः समकालिक होती हैं, महान रचनाएं, सर्वकालिक, कालजयी बन जाती हैं। इसमें ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान की पहली स्पष्ट झलक मिलती है। “आर्थिक परिस्थितियों ने आम ग्रामीण जनता को मजदूर बना दिया। पूंजी के प्रभुत्व ने सबकी परिस्थितियां और हित एकसमान कर दिया है। अतः पूंजी की विरुद्ध अधीनता की समान स्थिति को अर्थ में अपने आप में वर्ग है, लेकिन अपने लिए नहीं। संघर्षों के दौरान यह जनसमूह एकता बद्ध रूप से संगठित होता है तथा अपने लिए वर्ग बन जाता है। जिन हितों की यह रक्षा करता है, वर्ग हित बन जाता है”[15]। ‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ की यात्रा का वाहन है, वर्गचेतना। वर्ग और वर्ग चेतना पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश तो नहीं है, लेकिन एक अतिसंक्षिप्त विवरण आवश्यक लगता जिसकी कोशिस आगे की जाएगी। इतिहास के विरले चरित्रों के जीवन बहुत रोचक होते हैं। लालच समेटते हुए मार्क्स की जीवनी उनके लेखन काल के शैशवकाल में ही छोड़, मार्क्सवाद की इस लेख के लिए प्रासंगिक, कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा के साथ, रूसी क्रांति के मूल विषय पर आते हैं। मार्क्स बुद्धिजीवी-क्रांतिकारी नहीं थे, क्रांतिकारी-बुद्धिजीवी थे। पूंजी लिखना पूरा करने के लिए फर्स्ट इंटरनेसनल की गतिविधियों से समय चुराते थे[16]। व्यवस्था बदलने के लिए उसके के गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दार्शनिक आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान का अन्वेषण किया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद इसका विज्ञान। इन पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेकिन कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक न होगी।
मार्क्स के जीवन के बारे में बहुत लिखा जा चुका है, उस पर चर्चा की यहां न तो गुंजाइश है न जरूरत। एकाध बातों का जिक्र यह रेखांकित करने के लिए जरूरी है कि शासक वर्ग और उनके भोंपू, सदा से ही वैज्ञानिक विचारों से आक्रांत होते रहे हैं और विचारों से भयभीत हो विचारक को कत्ल; दर-ब-दर और कैद करते रहे हैं। सुकरात से शुरू होकर बरास्ते ब्रूनो; गैलीलियो; दिदरो, रूसो; ब्लांकी; मार्क्स; भगत सिंह; ग्राम्सी; चे; ... की मिशालों की ऐतिहासिक निरंतरता है। मार्क्स 1841 में प्राचीन यूनानी प्रकृतिवादी दर्शन पर पीयचडी जमा करने करने के पहले ही सर्वहारा के रूप में इतिहास के नए नायक का अन्वेषण कर चुके थे[11] तथा छात्र जीवन में यंग हेगेलियन के सदस्य के रूप में छात्र-राजनीति में भी सक्रिय थे।एक कहावत है, ‘होवहार विरवान के होत चीकनो पात’। विश्वविद्याय में नौकरी मिलने से रही। कोलोन में एक पत्रिका में नौकरी कर लिया और संपाक बन गए। ‘सत्य वही जो प्रमाणित हो व्यवहार में’[12] लिखने के पहले ही पत्रकार के रूप में प्रमाणित कर सत्य लिखने लगे थे। एक कहावत है, ‘जंह-जंह पांव पड़ैं, संतन कै, तंह तंह बंटाधार’। तो शासकवर्गों के कानों में ‘राष्ट्र की सुरक्षा’ और ‘शांति’ के लिए खतरे की घंटी बजने लगी और अखबार बंद कर दिया गया तथा मार्क्स ने भाग कर फ्रांस में शरण ली। कहने का मतलब, हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा में एक योगदान [1843-44] तथा आर्थिक और दार्शनिक मैनुस्क्रिप्ट (पेरिस मैनुस्क्रिप्ट) [1844] के प्रकाशन के साथ यूरोप के बौद्धिक जगत में क्रांतिकारी लहजे में प्रवेश के पहले ही, 24 साल के एक युवक के कलम का इतना आतंक कि उसका अपनी धरती पर मौजूदगी ही राष्ट्र के लिए खतरा बन गया। वह ताजिंगी इंकिलाब की अलख जलाते दर-बदर भटकता रहा। 1848 तक उनका फ्रांस में भी रहना खतरनाक हो गया और भागकर बेल्जियम गए, जहां उन्होने एंगेल्स के साथ मिलकर कम्युनिस्ट मैन्फैस्टो की रचना की। राष्ट्र की सुरक्षा के खतरे का भूत वहां भी नहीं साथ छोड़ा, उन्हें बेल्जियम भी छोड़ना पड़ा। राज्यविहीन विचारक के रूप में लंदन में बीती। वैसे भी उनका सपना राज्य-विहीन दुनिया का था, व्यक्ति की राज्य विहीनता का नहीं। भूमंडलीय लूट के प्रमुख औजार हैं, राष्ट्र-राज्य की सरकारें, क्रांति भी राष्ट्र-राज्य की भौगोलिक सीमा में ही होगी। युगचेतना की धारा के विपरीत विचार जल्दी पचते नहीं। समकालीन शासक वर्गों तथा उदारवादी और अराजकतावादी बुद्धिजीवियों के कोप-पात्र बन गए। तरह-तरह के कुप्रचार तथा विचारों पर सवाल होने लगे। जिसका वाजिब समझते थे जवाब देते थे, बाकी नजर-अंदाज कर देते थे। अराजकतावादी दार्शनिक, जोसेफ पियरे प्रूधों ने सर्वहारा के नायकत्व की मारक्स की अवधारणा का मजाक उड़ाते हुए, एक किताब लिख मारा, गरीबी का दर्शन[13] जो नवीनता के अभाव में, कोई खास प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही। मार्क्स ने जवाब में दर्शन की गरीबी[14] लिखा जो एक कालजयी कृति बन गयी। सब रचनाएं अपनी परिस्थितियों को ही संबोधित करती हैं, अतः समकालिक होती हैं, महान रचनाएं, सर्वकालिक, कालजयी बन जाती हैं। इसमें ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान की पहली स्पष्ट झलक मिलती है। “आर्थिक परिस्थितियों ने आम ग्रामीण जनता को मजदूर बना दिया। पूंजी के प्रभुत्व ने सबकी परिस्थितियां और हित एकसमान कर दिया है। अतः पूंजी की विरुद्ध अधीनता की समान स्थिति को अर्थ में अपने आप में वर्ग है, लेकिन अपने लिए नहीं। संघर्षों के दौरान यह जनसमूह एकता बद्ध रूप से संगठित होता है तथा अपने लिए वर्ग बन जाता है। जिन हितों की यह रक्षा करता है, वर्ग हित बन जाता है”[15]। ‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ की यात्रा का वाहन है, वर्गचेतना। वर्ग और वर्ग चेतना पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश तो नहीं है, लेकिन एक अतिसंक्षिप्त विवरण आवश्यक लगता जिसकी कोशिस आगे की जाएगी। इतिहास के विरले चरित्रों के जीवन बहुत रोचक होते हैं। लालच समेटते हुए मार्क्स की जीवनी उनके लेखन काल के शैशवकाल में ही छोड़, मार्क्सवाद की इस लेख के लिए प्रासंगिक, कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा के साथ, रूसी क्रांति के मूल विषय पर आते हैं। मार्क्स बुद्धिजीवी-क्रांतिकारी नहीं थे, क्रांतिकारी-बुद्धिजीवी थे। पूंजी लिखना पूरा करने के लिए फर्स्ट इंटरनेसनल की गतिविधियों से समय चुराते थे[16]। व्यवस्था बदलने के लिए उसके के गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के दार्शनिक आधार पर ऐतिहासिक भौतिकवादी उपादान का अन्वेषण किया। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद मार्क्सवाद का दर्शन है तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद इसका विज्ञान। इन पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेकिन कुछ प्रमुख अवधारणाओं की संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक न होगी।
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