बगावत की पाठशाला
संघर्ष और निर्माण
विषय: मार्क्सवाद
पाठ 13
रूसी क्रांति
अध्याय 2
रूसी क्रांति (1917)
सर्वहारा की तानाशाही के सपने का सच
ईश मिश्र
2
मार्क्स का मानना था कि एक
तरफ पूंजीवाद के विकास के साथ इसके अंतरविरोध गहराते जाएंगे और दूसरी तरफ तकनीकी
विकास से श्रम की उत्पादकता में वृद्धि से उत्पादन के प्रतिष्ठानों का विस्तार
होगा और समानुपातिक तो नहीं फिर भी श्रमशक्ति में सापेक्ष वृद्धि होगी तथा
श्रम-सामाजिकरण यानि आपसी मेलजोल, निचार-विमर्श तथा संवाद के परिणामस्वरूप
वर्गचेतना का विकास होगा और वर्गहित के आधार पर सर्वहारा संगठन। इन स्थापनाओं के
आधार पर उनका आकलन था कि सर्वहारा क्रांति की शुरुआत विकसित पूंजीवादी देशों में
होगी। मार्क्स कोई ज्योतिषी तो थे नहीं। इतिहास आगे बढ़ने के साथ-साथ अपने
गतिविज्ञान के नियम गढ़ता जाता है। नवउदारवादी पूंजावाद में उत्पादन के
अनौपचारीकरण तथा आउटसोर्सिंग ने दानों ही मान्यताओं को अंशतः अमान्य कर दिया है[1]।
1881 में मार्क्स ने भविष्य के वर्गहीन समाज के खाके के पर में सवाल के जवाब में
एक पत्र में लिखा थी की भविष्य की पीढ़ियां अपना कार्यक्रम खुद बना लेंगी। भविष्य
की क्रांति के कार्यक्रम तथा क्रांति-उपरांत समाज की रूपरेखा में उलझना वर्तमान
संघर्षों से विषयांतर होता है।
उन्होने सोचा था कि पूंजीवाद के विकास के चरम पर उत्पादन की प्रचुरता
होगी और मुद्दा होगा प्रचुरता के बंटवारे का। लेकिन ऐतिहासिक कारणों से
क्रांतिकारी परिस्थितियां बनीं औद्योगिक रूप से पिछड़े एक कृषि प्रधान देश में
जहां प्रचुरता के बंटवारे की जगह अभावों में साझेदारी का मुद्दा था जिसे युद्ध,
गृहयुद्ध तथा महामारी की तबाहियों से और भी जटिल हो गया था। एटींथ ब्रुमेयर ऑफ
लुई बोर्नापार्ट में मार्क्स ने लिखा है कि मनुष्य अपने इतिहास का निर्माण खुद
करता है लेकिन अपनी इच्छानुसार नहीं, न ही अपनी पसंद की परिस्थितियों में, बल्कि
विरासत में मिली परिस्थितियों में[2]।
क्रांतियां कभी बेकार नहीं जातीं, वे भविष्य की क्रांतियों को
संदर्भविंदु और प्रेरणा श्रोत प्रदान करती हैं। डूमा (संसद) की पुनर्स्तापना, 1905
की क्रांति की उल्लेखनीय उपलब्धि थी। इस और अन्य रियायतों के चलते, 1905-07 की
क्रांति में भागीदार ज्यादातर दलों के समझौतावाद और डुमाओं (विधायिकाओं) में
भागीदारी से ज़ारशाही से सहयोग के संदर्भ में लेनिन ने कहा था कि रूस
प्रतिक्रियावाद के ऐसे दौर में पहुंच गया है जो य़दि युद्ध न हुआ तो कम से कम 20
साल चलेगा[3]।
मार्क्स ने एटींथ ब्रुमेयर ऑफ ऑफ लुई बोनापार्ट में लिखा है कि मनुष्य अपना
इतिहास स्वयं बनाता है लेकिन जैसा चाहे वैसा नहीं, न ही अपनी चुनी परिस्थिति में
बल्कि अतीत से विरासत में मिली परिस्थितियो में[4]।
जार ने देश को साम्राज्यवादी युद्ध (विश्वयुद्ध-1) में झोंक दिया, जिसके
उपपरिणामस्वरूप क्रांतिकारी परिस्थितियां पैदा हो गयीं। औद्योगिक रूप से पिछड़े
देश में युद्ध ने तबाही पैदा कर दी। 1917 मार्च तक जन-असंतोष का बांध टूट गया और
सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जो ज़ार निकोलस द्वितीय के सिंहासन को बहा ले गया।
1905 की ही तरह 1917 की
क्रांति भी स्वस्फूर्त थी, लेकिन क्रांतियां एकाएक किसी आसमान से नहीं टपकती,
बल्कि क्रांतिकारी परिस्थिथियों और शक्तियों की लंबी ऐतहासिक प्रक्रिया का परिणाम
होती हैं। जारशाही के कुशासन और भ्रष्टाचार तथा आर्थिक तंगी के चलते, जन-असंतोष
1890 के दशक से ही जोर पकड़ रहा था तथा मजदूर, किसान और बुद्धिजीवी अलग अलग
संगठनों में लामबंद हो रहे थे, जिसका पहला विस्फोट 1905 में हुआ[5]।
1907 में डूमा की बहाली के बावजूद ज़ार ने सुधार के या आर्थिक विकास का कोई सार्थक
काम नहीं किया। अमीरी-गरीबी की खाई गहराती गयी। युद्ध में शिरकत के ज़ार के
आत्मघाती कदम ने आग में घी का काम किया। शिकस्त-दर-शिकस्त से जार की शासन क्षमता
और पात्रता की विश्वसनीयता हर तपके में घटती गयी। 8 मार्च 1917 को अंतर्राष्ट्रीय
महिला दिवस के दिन लोगों के असंतोष की दरिया के तटबंध टूट गए पेट्रोग्राड (सेंट
पीटर्सबर्ग) की सड़कों पर जनसैलाब उमड़ पड़ा, जिसकी शुरुआत 4 मार्च को ही हो गयी
थी। मार्क्स ने इंटरनेसनल के पहले संबोधन में मजदूर अंतर्राष्ट्रीयता की प्रक्रिया
में धन-जन की अपूरणीय क्षति की कीमत पर युद्धोंमादी राष्ट्रवाद को प्रमुख रुकावट
के रूप में रेखांकित किया था। जैसा कि ऊपर जिक्र है कि युद्धोपरांत क्रांतिकारी
परिस्थितियों की संभावना बढ़ जाती है, खासकर पराजित देशों में। लोग शासकों और
प्रशासकों की गतिविधियों पर पैनी निगाह रखने लगते हैं[6]।
युद्ध में लाखों लोग मारे गए। जो मोर्चे पर नहीं थे उनकी भी हालत बहुत
बुरी थी। सैनिकों की पत्नियां 12-13 घंटे काम करके भी परिवार का पेट नहीं पाल पा
रहीं थी। मजदूर भी अपनी मजदूरी से भोजन का इंतजाम नहीं कर पा रहे थे। लंबी लड़ाई
की थकान, रसद की कमी, मोर्चे की कठिन परस्थियां और कड़ाके की ठंड और ईंधन का अभाव
आदि कारणों से सेना में विद्रोह शुरू हो गया था। आंदोलन के विस्तार में जाने की
आवश्यकता और गुंजाइश नहीं है, लेकिन प्रमुख घटनाक्रमों का संक्षिप्त विवरण जरूरी
है।
4 मार्च को शहर की सबसे बड़ी फैक्ट्री (पुटिलोव इंजीनियरिंग फैक्ट्री)
के मजदूरों ने मालिकों से मजदूरी में 50% वृद्धि की मांग की जिससे वे भरपेट भोजन
कर सकें। मालिकों ने उनकी मांग खारिज कर दी। मजदूरों ने हड़ताल कर दी। 8 मार्च को
तालाबंदी करके 30, 000 मजदूरों की बिना भुगतान के छंटनी कर दी गयी और उनके पास
भोजन के पैसे नहीं थे। हड़ताली मजदूरों ने और मजदूरों को भी समझा-बुझाकर हड़ताल
में शामिल किया। जार निकोलस-2, उस समय पेट्रोग्राड में ही था लेकिन इसे छोटा-मोटा
उपद्रव समझ तवज्जो नहीं दिया और सरहद पर सैन्य टुकड़ियों की निगरानी करने चला गया।
अगले दिन (9 मार्च) हालात बद से बदतर हो गए, पेट्रोग्राड और कई अन्य शहरों में
सारा आवाम ही सड़कों पर निकल आया। राशन की दुकानें लूटी जाने लगीं। डूमा ने
आपातकालीन खाद्यभंडार वितरण के लिए खोल देने का आग्रह के साथ जार को इस बारे में
सूचित किया। जार ने उसका आग्रह ठुकराकर 24 घंटे में विद्रोह को कुलने का हुक्म दिया।
अगले दिन (10 मार्च) पुलिस की गोलीबारी में कई प्रदर्शनकारियों की मौत
हो गयी और प्रदर्शन उग्र हो उठा। प्रदर्शनकारियों ने जेल के दरवाजे तोड़कर कैदियों
को रिहा कर दिया। डूमा ने जार को धराशाई हो चुकी कानूम व्यवस्था की सूचना दी और
जारशाही के अंत की मांगें उठने लगीं। जिन सैनिकों को प्रदर्शन कुचलने के लिए भेजा
गया था, वे प्रदर्शनकारियों से जा मिले। इसके जवाब में जार ने एक और मूर्खता की,
डूमा की बैठकों पर पाबंदी लगा दी। डूमा के सदस्यों ने निकोलस के आदेश की अवहेलना
करते हुए, अगले दिन (11 मार्च) डूमा की बैठक कर क्रांति की उद्घोषणा कर दी। डूमा
के सदस्य केरेंस्की की कार्यवाही की सुरक्षा के लिए 25000 विद्रोही सैनिक बैठकस्थल
की तरफ कूच कर चुके थे। डूमा ने एक अंतरिम सरकार के गठन का प्रस्ताव पारित किया।
अगले दिन (12 मार्च) को कानून व्यवस्था की बागडोर संभालने निकोलस
पेट्रोगार्ड पहुंचा लेकिन उसकी गाड़ी को राजधानी के बाहर ही रोक दिया गया। डूमा
उनकी सशर्त वापसी की वार्ता करना चाहती थी। उसने उसके बेटे की ताजपोशी का प्रस्ताव
दिया जिसे निकोलस ने यह कहकर ठुकरा दिया कि वह अभी बहुत बच्चा था और उसके भाई ने
भी क्रांति के हालात देखते हुए जारशाही का ताज पहनने से इंकार कर दिया। इस तरह रूस
में सदियों पुरानी जारशाही के अंत की घोषणा हुई। शाही परिवार को नज़रबंद कर दिया
गया। लेनिन 1907 से ही रूस में नहीं थे लेकिन बोलसेविक पार्टी का मजदूरों में बड़ा
जनाधार था तथा इसने 1912 से 1917 के बीच कई बड़ी हड़तालों का नेतृत्व किया और
मजदूरों के पेट्रोग्राड सोवियत में बोलसेविकों का वर्चस्व था तो किसानों के
सोवियतों पर समाजवादी क्रांतिकारियों का प्रभाव था जो जमीन के सामूहिकीकरण की बजाय
किसानों में उसके पुनर्वितरण के पक्षधर थे। बोसलेविकों की धर-पकड़ और उत्पीड़न
लगातार चलता रहा जो अंतरिम सरकार के बनने के बाद थोड़ा थमकर फिर जारी रहा। लेनिन
इस क्रांति के दौरान देश में नहीं थे और इतनी जल्दी क्रांतिकारी परिस्थिति बनने की
उन्हें अपेक्षा नहीं थी। लेकिन इतिहास लीक पर नहीं चलता, अपने गतिविज्ञान के नियम
गढ़ते हुए आगे बढ़ता है। अप्रैल में लेनिन ने पेट्रोग्राड वापस आकर बोलसेविक दल की
कमान संभाला।
जारशाही खेमें भी पराजयों और आर्थिक दुर्गति के कारण जार से मोहभंग हो
रहा था। युद्ध से पहले हड़तालों और प्रदर्शनों का सिलसिला 1905 की क्रांति की याद
दिलाने वाला था। युद्ध से जारशाही को थोड़ी राहत मिली, लेकिन बकरे की मां कब तक
खैर मनाती? बोल्सेविक कार्यकर्त्ता युद्धविरोधी अभियान के तहत कहीं खुलकर कहीं
छिपकर क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार से जन-असंतोष को विप्लवी दिशा देने
में लगे रहे। वामपंथी खेमे में बोल्सेविक सबसे सशक्त थे। क्रांतिकारी नेतृत्व में
हड़तालों की अभूतपूर्व लहर चल पड़ी थी। 1912 में लेना गोल्डफील्ड नरसंहार में 276
मजदूर शहीद हो गए थे। इस नरसंहार के बाद हड़तालों का सिलसिला तेज और सघन होता गया
और पांच सालों में 30 बड़ी-बड़ी हड़तालें हुईं। जार के पुलिसतंत्र के कहर और
गुप्तचरों के सर्वव्यापी खौफ क्रांतिकारियों के हौसले पस्त करने में नाकाम रही।
1915-16 में पेट्रोगार्ड में गिरफ्तार वामपंथियों में सबसे अधिक बोलसेविक थे। कमोबेश लगभग सभी क्षेत्र के
उद्योगों में पार्टी का जनाधार था। 1905 की क्रांति में बने फैक्ट्री गार्डों के
दस्ते[7]
पार्टी के सशस्त्र दस्ते बन गए। 22 जनवरी (तब रूस में प्रचलित जूलियन कैलेंडर के
अनुसार (9 जनवरी), 1917 की खूनी इतवार[8]
की 12वीं वर्षगांठ के अवसर पर आयोजिक हड़ताल में 142,000 मजदूरों नें शिरकत की।
शक्ति प्रदर्शन में 27 फरवरी को डूमा के सत्र की शुआत पर युद्ध समर्थक मेनसेविकों
के आह्वान पर 84000 मजदूरों ने हड़ताल की। मार्च क्रांति की खास बात थी महिलाओं की
अभूतपूर्व भागीदारी। खुफिया तंत्र रोटी की कतारों में लगी महिलाओं और पुलिस के बीच
झड़प की खबरें दे रहे थे। अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, क्रांति के उद्घाटन से एक
दिन पहले, बोल्सेविकों ने 7 मार्च 1917 को
हड़ताल न करने के पार्टी निर्देश को नजरअंदाज कर दिया। और अगले दिन 5 टेक्सटाइल
मिलों के मजदूर हड़ताल पर चले गए। युवा मजदूर और महिलाएं क्रांतिकारी गाने गाते हुए
रोटी की मांग कर रहे थे। 78000 प्रदर्शनकारियों में से लगभग 60,000, बोल्सेविक गढ़
समझे जाने वाले वीबोर्ग जिले के थे। जाशाही के अधिकारी इसे रोटी के लिए एक साधारण
उपद्रव समझ रहे थे लेकिन जब पुलिस और फौज की टुकड़ियां प्रदर्शनकारियों पर हमले के
हुक्म को नजरअंदाज करते नजर आए तो उनके कान खड़े हो गए। उसी रात वीबोर्ग के
बोल्सेविकों ने बैठक कर 3 दिन की आम हड़ताल और सरकार के मुख्यालय तक मार्च का
फैसला किया। अगले दिन की हड़ताल में आंदोलनकारियों की संख्या दोगुनी थी। इसमें 158,000
हजार लोगों ने शिरकत की[9]।
इन घटनाक्रमों की चर्चा का मकसद यह बताना है कि नवंबर की सशस्त्र क्रांति के पहले
क्रांतिकारी ताकतें जन आंदोलनों के जरिए जनाधार बनाकर क्रांतिकारी जनमत तैयार कर रही
थीं क्योंकि कोई सशस्त्र क्रांति तभी सफल और दीर्घजीवी हो सकती है जब वैचारिक
निष्ठा और स्पष्टता के साथ उसका व्यापक जनसमर्थन और जनाधार हो।
अंतरिम सरकार के पहले मुखिया एक उदारवादी, कुलीन
येवगेनीविच ल्वोव थे जिनकी असफलता के बाद समाजवादी क्रांतिकारी पार्टी के
अलेक्जेंडर केरेंस्की ने सत्ता की बागडोर संभाली। उस वक्त पेट्रोगार्ड में सत्ता
के दो समानांतर केंद्र थे – अंतरिम सरकार और मजदूरों और सैनिकों की सोवियत (सोवियत
ऑफ वर्कर्स एंड सोल्जरर्स), के प्रतिनिधियों ने 14 मार्च को
अंतरिम सरकार के गठन के दिन अपने आदेश संख्या–1 में सैनिको को सोवियत की आज्ञा मानने
का निर्देश दिया गया तथा यह कि वे अंतरिम सरकार के वही आदेश मानें जो सोवियत के
आदेश से बेमेल न हो। सरकार निर्वाचित नहीं थी इसलिए इसकी प्राथमिकता संविधान सभा
का चुनाव था। और एक तरफ दक्षिणपंथियों और युद्ध के सहयोगी राष्टों का दबाव जर्मनी
के साथ युद्ध जारी रखने का था, दूसरी तरफ वामपंथियों, खासकर बोल्सेविकों का दबाव
युद्ध समाप्ति का था। मार्च और नवंबर के बीच अंतरिम सरकार का 4 बार पुनर्गठन हुआ।
पहली सरकार में केरेंस्की को छोड़कर ज्यादातर, धनिकों के हितों के पक्षधर,
उदारवादी थे। बाद की सरकारें गठबंधन सरकारें थीं[10]। कोई भी सरकार प्रमुख
समस्याओं – भूख, किसानों में जमीन-वितरण, गैर रूसी इलाकों में राष्ट्रीयता के सवाल
आदि – के समुचित समाधान में कामयाब नहीं रहीं।
सरकारी नीतियों और कार्रवाइयों की तुलना में पेट्रोग्राड सोवियत की
गतिविधियां और प्रस्ताव लोगों की भावनाओं के ज्यादा करीब थे। जुलाई में केरेंस्की
फिर से सरकार के मुखिया बने लेकिन राजनैतिक उथल-पुथल; आर्थिक समस्या; सेना में
अफरातफरी आदि समस्याएं घटने की बजाय बढ़ती गईं। केरेंस्की सरकार की विश्वसनीयता
घटती गयी तथा सोवियत की लोकप्रियता बढ़ती गयी। इसी बीच करेंस्की की सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी
पार्टी से वामपंथी धड़ा अलग होकर सोवियत में शामिल हो गया। पेट्रोग्राड सोवियत के
नक्शेकदम पर सभी बड़े-छोटे शहरों में सोवियतों का गठन हो रहा था। मॉस्को सोवियत
काफी सशक्त था। फैक्ट्री गार्ड्स रेड गार्ड बन गए जिसकी बुनियाद पर रेड आर्मी का
गठन हुआ। किसान अपने परंपरागत सामूहिकता वाले सोवियत की बुनियाद पर ग्रामीण सोवियत
को क्रांतिकारी इकाई में तब्दील कर रहे थे। मजदूरों और सैनिकों के ज्यादातर
सोवियतों पर बोलसेविकों का वर्चस्व था और ग्रामीण सोवियतों में सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी
दल का भी पर्याप्त प्रभाव था। नवंबर क्रांति के पहले की सबसे प्रमुख घटना है जुलाई
के जुझारू प्रदर्शन। सर्व्यापी जन-असंतोष ने अंतरिम सरकार को अपदस्थ करने की मांग
के साथ एक जुझारू विरोध प्रदर्शन ने ले लिया। बोल्सेविक नेतृत्व को लगता था कि अभी
सरकार से सीधे टकराव का वक्त नहीं था लेकिन मजदूरों की भावनाओं को देखते हुए इसका
नेतृत्व किया, वैसे भी बोलसेविक कार्यकर्ता पहले से ही तैयारी में लगे थे[11]।
प्रदर्शन को हिंसक होने से भी बचाना था। केरेंस्की सरकार ने दमन में जारशाही को भी
पीछे छोड़ दिया। बोलसेविक नेताओं की धरपकड़ शुरू हो गय़ी। लेनिन और कई अन्य नेता
देश से बाहर निकलने में कामयाब रहे। 1907 की प्रतिक्रांति के बाद, प्रतिक्रियावादी
उफान के संदर्भ की परिस्थिति में, रूस छोड़ने के पहले लेनिन ने कॉमरेडों को
संबोधित करते हुए एक पर्चे में लिखा था कि अब विदेश में रहकर क्रांति की तैयारी
करनी पड़ेगी। प्रतिक्रियावाद के अस्त काल में भी वैसा ही हुआ। लेनिन ने समाजवादी
सरकार की रूपरेखा के तौर पर, प्रवास में ही राज्य और क्रांति शीर्षक से
राज्य की मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य में व्याख्या की कालजयी रचना की। शांति, जमीन
और रोटी – आवाम को शांति; किसान को जमीन और मजदूर को रोटी—तथा सोवियत को सारी
सत्ता; जमीनें किसानों की; कारखाने मजदूरों के, बोलसेविकों के ये प्रुख नारे,
बच्चे बच्चे की जबान पर थे[12]।
सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी के बोल्सेविक धड़े के नेतृत्व में जुलाई
आंदोलन तो बिना अपनी तार्किक परिणति तक पहुंचे समाप्त हो गया लेकिन बोल्सेविकों की
लोकप्रियता और सदस्यता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। लेनिन फिनलैंड में रहते हुए
पार्टी के अखबारों में लेखों और पर्चों से बोलसेविक धड़े को नेतृत्व प्रदान करते
रहे। पहले पेट्रोग्राड और मॉस्को दोनों प्रमुख शहरों की सोवियतों में बोल्सेविक
अल्पमत में थे, मेनसेविक और सेसलिस्ट रिवल्यूसनरी उनसे आगे थे। सितंबर तक दोनों ही
जगह बोल्सेविकों का बहुमत हो गया। बोल्सेविक नियंत्रित पार्टी के मॉस्को क्षेत्रीय
ब्यूरो का मॉस्को के इर्द-गिर्द के 13 प्रांतों की पार्टियों पर भी नियंत्रण था।
जनरल कोर्लिनोव द्वारा सैनिक तख्ता पलट के प्रयास को विफल करने में बोल्सेविकों की
भूमिका से भी उनका समर्थन आधार बढ़ रहा था। सितंबर में पेट्रोग्राड सोवियत ने
ट्रोट्स्की समेत सभी बोल्सेविक कैदियों को रिहा कर दिया। ट्रोट्स्की पेट्रोग्राड
सेवियत के अध्यक्ष बन गए। किसानों, मजदूरों और निम्न मध्यवर्ग ने अंतरिम सरकार से
किसी सहायता की उम्मीद छोड़ दी। बोलसेविक पार्टी एकमात्र सुगठित विपक्ष थी, जिसे
लोगों की मेनसेविकों और सोसलिस्ट रिवल्यूसनरी पार्टी से निराशा का लाभ भी मिला, जो
कि राष्ट्रीय एकता के नाम पर वर्ग-शत्रुता के बदले वर्ग-मित्रता के पक्षधर थे।
अजीबो-गरीब हालात थे, विधायिका और अंतरिम सरकार में क्रेंस्की के नेतृत्व में
मेनसेविकों और सोसलिस्ट रिवल्यूसलरी पार्टी के गठजोड़ का वर्चस्व था और मजदूरों
तथा सैनिकों के सोवियतों में बोल्सेविकों का। जून में सोवियतों का पहला अखिल रूसी
सम्मेलन पेट्रोग्राड में हुआ। पूर्ण मताधिकार के 784 प्रतिनिधियों में बोल्सेविकों
की संख्या 105 थी। अल्पमत के बावजूद उनके विचार स्पष्ट और आवाज बुलंद थी।
क्रांतिकारी परिस्थितियां और बोलसेविकों की बढ़ती शक्ति देख लेनिन कानूनी खतरों से
निश्चिंत अक्टूबर में पेट्रोगार्ड वापस आ गए। लेनिन के आंकलन में दूसरी (सर्वहारा)
क्रांति का समय परिपक्व था, उन्हें शीघ्र-से-शीघ्र सशस्त्र विद्रोह से राज्य
प्रतिष्ठानों पर अधिकार कर लेना चाहिए[13]।
[1]
मार्क्स ने सोचा था कि एकाधिकारवादी
पूंजीवाद में विशाल उत्पादन प्रतिष्ठान होंगे जहां श्रम-सामाजिककरण के दौरान
वर्गचेतना तथा मजदूर एकता का विकास होगा, लेकिन नवउदारवादी उत्पादन पद्धति ने
आकलित समीकरण को बिगाड़ दिया, श्रम सामाजिककरण के नए उपाय खोजने होंगे।
[3]
ईश मिश्र, समाजवाद का इतिहास, समयांतर, अक्टूबर, 2017
[5]
ईश मिश्र, उपरोक्त
[7]
1905 में फैक्ट्रियों के मजदूरों ने
हड़तालों पर दमन रोकने के लिए मजदूरों ने सशस्त्र फैक्ट्री गार्ड के दस्तों का गठन
किया था, देखें, ईश मिश्र, उपरोक्त
[8]
1905 के जन आंदोलन पर जार की पुलिस और
सेना की अंधाधुंध गोलीबारी से हजारों आंदोनकारियों का कत्लेआम कर दिया था, उस दिन
इतवार था तभी से उसे खूनी इतवार कहा जाने लगा। देखें उपरोक्त
[10]
उपरोक्त
[11]
उपरोक्त
[12]
उपरोक्त
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