Sunday, March 25, 2018

बगावत की पाठशाला 19 (कॉमिंटर्न)


तीसरा इंटरनेसनल – कम्युनिस्ट इंटरनेसनल (कॉमिंटर्न)
दूसरा (सोसलिस्ट) इंटरनेसनल युद्ध की शुरुआत के साथ 1914 में बिखर गया था। मार्क्स का मानना था कि पूंजीवाद चूंकि अंतरराष्ट्रीय है इसलिए उसका विकल्प भी अंतर्राष्टीय होगा। पश्चिमी पूंजीवादी देशों तथा अमेरिका की सैन्य सहायता से प्रतिक्रांतिकारी सफेद सेना के साथ गृहयुद्ध के मध्य लेनिन ने इंटरनेसनल के पुनर्गठन की योजना बनाई और मार्च 2019 में कम्युनिस्ट इंटरनेसनल उद्घाटन सम्मेलन आयोजित किया गया। लेनिन का मानना था की समाजवाद को तभी सफल और दूरगामी बनाया जा सकता है यदि दुनिया में हर जगह समाजवादी क्रांतियां हों; समाजवादी प्रणाली की आर्थिक मागों और विकास को विश्व स्तर ही संरक्षित और प्रसारित किया जा सकता है। लेनिन मानते थे कि पूंजीवादी उत्पीड़न से दुनिया भर के सर्वहारा की मुक्ति अत्यंत आवश्यक है जिससे भविष्य को युद्धों के रक्तपात से बचाया जा सके; विकराल पूंजीवादी तंत्र से उनकी मानवता और आजादी बचाई जा सके। उद्घाटन सम्मेलन में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा कई अन्य यूरोपीय देशों और अमेरिका के कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट पार्टियों के प्रनिधियों ने सिरकत की। सम्मेलन में संगठन का संविधान और लक्ष्य और कार्यप्रणाली की आचार संहिता तथा घोषणा पत्र जारी किया। मौजूदा हालात और संभावनाओं पर लेनिन की रिपोर्ट सम्मेलन की केंद्रीय विषयवस्तु थी। ग्रेगरी ज़िनोवीव कॉमिंटर्न के पहले सचिव थे लेकिन इसके मुख्य सिद्धांतकार लेनिन ही रहे। कॉमिंटर्न का केंद्रीय सरोकार था, अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के लिए दुनिया भर के देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन। सम्मेलन में भागीदार पार्टियों ने लेनिन के जनतांत्रिक केंद्रीयतावाद , “मुक्त विमर्श और एकीकृत कार्रवाई” के सिद्धांत का अनुमोदन किया। कॉमिंटर्न को विश्वक्रांति की कार्यकारिणी के रूप में प्रतिष्ठित किया गया। कॉमिंटर्न के प्रयासों से 1920 में दूसरे सम्मेलन तक यूरोप, अमेरिका, लैटिन अमेरिका तथा एशिया के कई देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों का गठन हो चुका था। भारत के मानवेंद्रनाथ रॉय दूसरे सम्मेलन में मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में दूसरे सम्मेलन में शिरकत की थी और 1921 में ताशकंद में प्रवासी भारतीयों को लेकर 1921 में ताशकंद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की जिसका पहला सम्मेलन 1925 में कानपुर में हुआ।
दुनिया में समाजवादी आंदोलनों का संदर्भविंदु पेरिस कम्यून से हटकर रूसी क्रांति बन गयी। इसने राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों और समाजवादी आंदोलनों में एक नई ऊर्जा और आत्मविश्वास का संचार कर दिया। लेनिन ने दूसरे सम्मेलन के निमंत्रण के साथ पार्टियों को एक 21 सूत्री दस्तावेज भेजा था, जिनसे सहमति कॉमिंटर्न की सदस्यता की अनिवार्य शर्त थी। 21 सूत्रों में पार्टी की अन्य समाजवादी समूहों से अलग पहचान तथा पूंजीवादी राज्य की वैधानिकता पर अविश्वास। पार्टी संगठन का कार्य प्रणाली जनतांत्रित केंद्रीयता के ढर्रे पर होगी। दूसरे सम्मेलन में औपनिवेशिक सवाल भी एक प्रमुख मुद्दा था। जितने भी कम्युनिस्ट सरकारों पर अक्सर सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर पार्टी और पार्टी के सर्वोच्च नेता की तानाशाही के आरोप लगते रहे हैं, वर्ग संघर्ष और पाटी के अंतःसंबंधों पर एक संक्षिप्त चर्चा अप्रासंगिक नहीं होगी।
वर्ग-संघर्ष और पार्टी
      शासक वर्गों के पास अपना वर्चस्व और विशेषाधिकार बरकरार रखने के राज्य के दमनकारी और प्रोपगंडा उपकरणों समेत बहुत साधन हैं और सर्वहारा साधनविहीन। फिर सवाल उठता है इतने शक्ति-साधन संपन्न शत्रु से साधनविहीन कामगर वर्ग कैसे लड़े और नई सामाजिक व्यवस्था कायम करे? लेकिन मार्क्स संदेश की प्रमुख बात यही है कि यह हो सकता है लेकिन इसके लिए सजग प्रयास करना होगा। जैसा कि मार्क्स के हवाले से ऊपर कहा गया है कि यह प्रमुखतः पूंजीवादी अंतर्विरोधों की गहनता और रानैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक अधिसंरचनाओं पर इसके बहुआयामी प्रभाव पर निर्भर करता है। लेकिन अंततः यह बदलाव लोगों के हस्तक्षेप तथा कर्म से ही से ही संभव होगा। अपनी भूमिका कारगर रूप से अदा करने के लिए मजदूर वर्ग और इसके सहयोगियों को संगठित होना पड़ेगा। ‘अपने-आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ बनने के लिए मजदूर वर्ग को अपनी पार्टी बनानी पड़ेगी लेकिन लोगों के मुद्दों से अलग पार्टी का अपना कोई एजेंडा नहीं होगा। मार्क्स का जोर मजदूर वर्ग की मुक्ति पर तो था ही, लेकिन यह मुक्ति उनके स्वतः प्रयास से होनी चाहिए। मार्क्स ने 1864 में फर्स्ट इंटरनेसनल के संबोधन के प्राक्कथन में लिखा है, “मजदूर वर्ग की मुक्ति का संघर्ष मजदूर वर्ग को स्वयं करना होगा”[1]। अपने समस्त लेखन में मजदूरों के संगठन की जरूरत के ज़िक्र की बहुतायत के बावजूद मार्क्स संगठन के स्वरूप और संरचना के बारे में कुछ नहीं कहते। उनका मानना था कि अलग-अलग देशों के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे। एक बात वे जरूर बार बार कहते हैं कि मजदूरों का संगठन मजदूर वर्ग से अलग ‘पेशेवर साजिशकर्ताओं’ के किसी पंथ की तरह नहीं होना चाहिए। संगठन का स्वरूप जो भी हो मार्क्स का सरोकार अपनी मुक्ति के लिए मजदूर वर्ग में वर्गचेतना का विकास है। पार्टी वर्ग की राजनैतिक अभिव्यक्ति और संघर्ष का साधन है।
      मार्क्स और एंगेल्स मजदूरों की आत्म मुक्ति की क्षमता पर आश्वस्त थे। 1879 में उन्होंने जर्मन सोसल डेमोक्रेटिक पार्टी के कुछ नेताओं को फटकारते हुए एक सर्कुलर भेजा जिसमें उन्होने इस समझ को खारिज किया कि मजदूर वर्ग खुद अपनी मुक्ति का संघर्ष चलाने मे अक्षम है और उसे फिलहाल ‘पढ़े-लिखे’ और ‘संपत्तिवान’ बुर्जुआ वर्ग का नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए जिसके पास मजदूरों की समस्याएं समझने का अवसर होता है[2]। उनके लिए वर्ग पहले था पार्टी बाद में। लेनिन ज़ारकालीन रूस की विशिष्ट परिस्थियों में एक विशिष्ट किस्म की पार्टी बनाना चाहते थे जो मजदूरों से यथासंभव संपर्क में रहे। उन्हें भय था, जो उनके बाद सही साबित हुआ कि पार्टी में यदि मजदूर वर्ग लगातार जान न फूंकता रहे तो वह आमजन से कट कर एक नौकरशाही में तब्दील हो जाएगी। बहुत पहले से वे एक केंद्रीकृत अधिनायकवादी शासन के विरुद्ध, ‘पेशेवर क्रांतिकारियों’ का संगठन बनाना चाहते थे जिसकी परिणति बाद में ‘जनतांत्रिक केंद्रीयता’ (डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म’) के सिद्धांत में हुई। इस सिद्धांत के तहत नीतिगत प्रस्ताव निचली इकाइयों विमर्श से निकले प्रस्ताव केंद्राय नेतृत्व के विचारार्थ जाना था जो उन्हें समायोजित कर पुन: अंतिम संस्तुति के लिए निचली इकाइयों को वापस भेजता। सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और कॉमिंटर्न के तत्वाधान में बनी दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों में यह सिद्धांत विकृत हो कर अधिनायकवादी केंद्रीयता में तब्दील हो गया. कई मार्क्सवादी चिंतक इसे ऊपर से थोपी राजनीति (पॉलिटिक्स फ्रॉम एबव) कहते हैं। एरिक हाब्सबॉम ने दुनियां की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को मार्क्स पढ़ने की सलाह दी थी।
1914 के पहले लेनिन ने कभी नहीं कहा कि वे ऐसी पार्टी बनाना चाहते थे जो उन देशों के लिए उपयुक्त हो जहां पहले से ही ‘राजनैतिक स्वतंत्रता’ हासिल कर ली गई है। क्रांतिकारी प्रक्रिया की प्रगति के लिए संगठन और दिशा निर्देश की परमावश्यकता पर जोर  मार्क्सवाद में लेनिन का विशिष्ट योगदान है। वे मजदूरों की निष्क्रियता को लेकर चिंतित नहीं थे, बल्कि इसके चलते संघर्ष के राजनैतिक प्रभाव में कमी और क्रांतिकारी उद्देश्य में भटकाव को लेकर चिंतित थे। इसीलिए पार्टी की परमावश्वयकता को विशेष रूप से रेखांकित करते हैं जिसके दिशा निर्देश और नेतृत्व के बिना मजदूर वर्ग का संघर्ष विसंगतियों और दिशाहीनता का शिकार हो जाएगा। गौरतलब है रूस पश्चिमी यूरोप के विकसित पूंजीवादी देशों की तरह बुर्जुआ जनतांत्रिक क्रांति या मार्क्स के शब्दों में ‘राजनैतिक मुक्ति’ के दौर से नहीं गुजरा था। इसीलिए जारशाही को उखाड़ फेंक समाजवादी फतेह के लिए मजदूरों की एक अनुशासित हिरावल दस्ते के निर्माण पर बल दिया।
इसके बावजूद लेनिन भली भांति जानते थे कि जनता के अनुभवों में घुले-खपे-जुड़े बिना  पार्टी अपना क्रांतिकारी उद्देश्य नहीं पूरा कर सकती। जब भी पार्टी में खुली बहस का मौका मिला – 1905; 1917 और उसके बाद – उन्होने पार्टी में नौकरशाही प्रवृत्ति पर करारा प्रहार किया। क्या करना है? (व्हाट इज़ टू बी डन?) और राज्य और क्रांति में अनुशासित संगठन की जरूरत पर जोर देने के बावजूद कामगर आवाम से पार्टी के जैविक संबंधों की बात को उन्होने हमेशा तवज्जो दिया। 1920 में वामपक्षी साम्यवाद: एक बचकानी उहापोह (लेफ्टविंग कम्युनिज्म: ऐन इन्फेंटाइल डिसॉर्डर[3]) में लेनिन लिखते हैं, “इतिहास, खासकर क्रांतियों का इतिहास अपनी अंतर्वस्तु में सर्वाधिक वर्ग चेतना से लैस, सर्वाधिक उन्नत वर्गों के हरावल दस्ते से अधिक विविधतापूर्ण, अधिक बहुआयामी, अधिक जीवंत और अधिक निष्कपट है”[4]। इसके बावजूद उन्होंने क्रांतिकारी प्रक्रिया में पार्टी की अहम भूमिका को उन्होने नहीं नकारा, न ही मजदूर वर्ग के साथ इसके संबंधों को कमतर करके आंका। वे रोज़ा लक्ज़म्बर्ग की ही तरह पार्टी की केंद्रीय समिति को गलतियों से परे न मानने के बावजूद एक सुगठित संगठन के पक्षधर थे। ज़ारकालीन रूस की परिस्थियों में लेनिन एक विशिष्ट तरह की पार्टी के पक्षधर थे, लेकिन सर्वहारा की तानाशाही या पार्टी (नेतृत्व) की तानाशाही के जवाब में उन्होंने कहा, “मौजूदा हालात में वर्ग का प्रतिनिधित्व पार्टी ही कर सकती है”।  
रोज़ा लक्ज़म्बर्ग ने 1918 में रूसी क्रंति नाम शीर्षक से लिखी पुस्तिका में रूस की खास परिस्थियों में बॉलसेविक दल की प्रशंसा करते हुए लिखा था, “बॉलसेविकों ने प्रमाणित कर दिया है कि ऐतिहासिक संभावनाओं की सीमा में एक सच्ची क्रांतिकारी पार्टी जो भी कर सकती है उसमें वे सक्षम हैं। उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए साथ ही उन्होंने आगाह किया था कि खास परिस्थियों में अपनाई गई रणनीति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के मॉडल के रूप में नहीं पेश करना चाहिए[5]। लेकिन जैसा कि अब इतिहास बन चुका है, सवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी और तदनुसार कॉमिंटर्न ने उनकी सलाह दरकिनार कर रूसी क्रांति को अंतर्राष्ट्रीय सर्वहारा मॉडल की तरह पेश किया और सर्वहारा की तानीशाही को पार्टी और पार्टी नेतृत्व की तानाशाही में तब्दील हो गयी। कॉमिंटर्न ने लेनिन की सलाह को दरकिनार कर पार्टी में नौकरशाही को पनपने दिया जिसकी अंतिम परिणति सोवियत संघ के पतन में हुई[6]
चूंकि रूस में पूंजीवादी क्रांति के अभाव में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की दुहरी जिम्मेदारी थी, औद्योगिक विकास और समाजवाद का निर्माण। पहली जिम्मेदारी इसने बखूबी निभाकर साबित कर दिया कि राज्य नियंत्रित पूंजीवाद में निजी मुनाफे पर आधारित पूंजीवाद से तेज आर्थिक विकास होता है। दूसरे विश्वयुद्ध तक सोवियत संघ सर्वाधिक शक्तिशाली पूंजीवादी देश अमेरिका के समतुल्य आर्थिक और सैनिक शक्ति बन गया। पार्टी में वैचारिक विवाद, दूसरे विश्वयुद्ध के खतरे की विशिष्ट परिस्थितियों में विशिष्ट नीतियों; कृषि के सामूहिककरण के गुण-दोष; क्रांति के कुछ नेताओं पर जन अदालतों के आयोजन; कॉमिंटर्न की छठीं कांग्रेस में औपनिवेशिक देशों में राष्ट्रीय आंदोलनों से असहयोग की नीति आदि की चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है, वे अलग-अलग चर्चा के विषय हैं। न ही दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शीतयुद्ध के दौर में पूंजीवादी साम्राज्यवाद से प्रतिस्पर्धात्मक वर्चस्व के संघर्ष पर चर्चा की। ये अलग चर्चा के विषय हैं तथा इन पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। रंधीर सिंह की पुस्तक समाजवाद का संकट में इसका सटीक विश्लेषण किया गया है। सोवियत संघ में बेरोजगारी, भिखमंगाई, वेश्यावृत्ति आदि गधे की सींग की तरह गायब हो गयी थीं। सोवियत संघ की उपलब्धियों और राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों तथा साम्राज्यवादी शोषण को नियंत्रित करने में उसकी भूमिका भी अलग विमर्श के विषय हैं।  स्टालिन की मृत्यु के बाद पार्टी नेतृत्व ने 1961 में 22वीं पार्टी कांग्रेस में, मबम्मद साहब के अंतिम पैगंबर होने की तर्ज पर, नया सोवियत समाज: सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का अंतिम दस्तावेज पारित कर सोवियत संघ को सब लोगों का राज्य, यानि वर्गविहीन राज्य घोषित कर दिया तथा पूंदीवादी पुनर्स्थापना का पथ प्रशस्त किया[7] माओ ने सोवियत संघ को सामाजिक साम्राज्यवादी घोषित कर दिया[8] तथा सोवियत संघ के विघटन के बाद साम्राज्यवादी भोपुओं ने इतिहास का ही अंत कर दिया[9]



[1] https://www.marxists.org/archive/marx/works/1864/10/27.htm

[2] Letters: Marx-Engels Correspondence 1891 - Marxists Internet Archive

https://www.marxists.org/archive/marx/works/1891/letters/91_11_01.htm
[3] Lenin, https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1920/lwc/
[4] https://www.marxists.org/archive/lenin/works/1920/lwc/
[6] Randhir Singh, Crisis of Socialism
[7] Roger E Kanet, The Rise and Fall of ‘All ;people’s State: Recent Changes in Soviet Theory of State, Soviet Studies, Vol. 20, No.1, July, 1968, pp. 81-93

[8] I Wor Kuen, Soviet Social Imperialism and the International Situation Today, Getting Together, Vol. VII, No. 2, July 1976.

[9] Francis Fukuyama, The End of History? http://www.jstor.org/stable/24027184

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