Friday, March 23, 2018

बगावत की पाठशाला 15 (रूसी क्रांति 4)

बगावत की पाठशाला
संघर्ष और निर्माण
विषय: मार्क्सवाद
पाठ 15
रूसी क्रांति
अध्याय 4
रूसी क्रांति (1917)
सर्वहारा की तानाशाही के सपने का स
ईश मिश्र


4
भारत के संदर्भ में औपनिवेशिक सवाल
बंगाल की भूमिगत क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन के युवा सदस्य मानवेंद्रनाथ रॉय जर्मनी से  आने वाले जहाज से हथियार प्राप्त करने के लिए निकले थे लेकिन हथियार तो उन्हें मिले नहीं और वे जावा, सुमात्रा, जापान होते हुए अमेरिका के सैनफ्रांसिस्को पहुंच गये। वहां उनकी मुलाकात एवलिन से हुई जिनके जरिए वे मार्क्सवाद से परिचित हुए और बाद में उनके साथ बैवाहिक संबंध बने। एवलिन रॉय के साथ रॉय मेक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना कॉंग्रेस में भाग लेने गए और जैसा उपर कहा गया है, मेक्सिकन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में कॉमिंटर्न की दूसरी कांग्रेस में शिरकत की। लेनिन के नेतृत्व में गठित औपनिवेशिक मुद्दों की समिति में, उन्हे भारतीय प्रतिनिधि कें रूप में शामिल किया गया।
औपनिवेशिक देशों में मुख्य अंतर्विरोध उपनिवेशवाद का था और कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन के के बारे  में रॉय ने लेनिन की थेसिस की वैकल्पिक थेसिस पेश की जिसे अनुपूरक थेसिस के रूप में स्वीकृत किया गया। यहां लेनिन-रॉय बहस पर विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेनिन की औपनिवेशिक समस्या की समझ ज्यादा तथ्य परक थी। उनका मानना था कि उपनिवेशों के राष्ट्रीय आंदोलन प्रगतिशील हैं और कम्युनिस्टों को अपनी अलग अस्मिता के बनाए रखते हुए उनमें शिरकत करके उसके जनवादीकरण की कोशिस करनी चाहिए। रॉय का मानना था कि जिस तरह यूरोप के जिन देशों में पूंजीवादी विकास देर से हुआ वहां के पूंजीपति वर्ग ने सामंतवाद को खत्म करने के बजाय उससे समझौता कर लिया था उसी तरह राष्ट्रीय आंदोलन के नेता भी अंततः साम्राज्यवाद से समझौता कर लेंगे। और यह कि भारत का सर्वहारा अपने दम पर उपनिवेशवाद और सामंतवाद से लड़ने में सक्षम है। गौरतलब है कि सर्वहारा की राजनैतिक और आर्थिक मौजूदगी नगण्य थी। 1928 में कॉमिंटर्न की छठी कांग्रेस में राष्ट्रीय आंदोलन से दूरी बनाने की रॉय की थेसिस को अपनाया लेकिन रॉय को कॉमिंटर्न से निकाल दिया गया। लेनिन की थेसिस के अनुरूप भारत में कम्युनिस्ट पार्टी ने वर्कर्स एंड पीजेंट्स पार्टी (डब्लूपीपी) बनाकर राष्ट्रीय आंदोलन में जी-जान से शिरकत की। साइमन कमीसन के विरुद्ध प्रदर्शन में पार्टी ने प्रशंसनीय भूमिका निभाई और औद्योगिक शहरों में ट्रेड यूनियनों और गांवों में किसान संगठनों का गठन शुरू किया। रॉय के कॉमिंटर्न से निष्कासन के साथ ही ट्रेड यूनियन आंदोलन भी दो फाड़ हो गया। 1921 में रॉय ने प्रवासी भारतीयों के साथ ताशकंद में भारत की कम्युनस्ट पार्टी का गठन किया था जिसका पहला अधिवेशन कानपुर में  1925 में हुआ जिससे औपनिवेशिक सरकार के कान खड़े हो गए और देश भर में कम्युनिस्टों की धर-पकड़ शुरू हो गयी। इस मुकदमें को कानपुर षड्यंत्र मामले के नाम से जाना जाता है। 1928 में कॉमिंटर्न का फैसला मानकर कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आंदोलन से अलग-थलग हो गई और डब्लूपीपी भंग। कांग्रेस के वामपंथी सदस्यों को सामाजिक फासीवादी करार दिया। 1929  में औपनिवेशिक सरकार को लगा कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी(सीपीआई) कॉमिंटर्न के विचारों का प्रसार करके हड़ताल और सशस्त्र विद्रोह के जरिए सरकार को उखाड़ फेंकने की कोशिस कर रही है। सरकार ने सीपीआई को अवैध घोशित करके ट्रेडयूनियन नेताओं की धरपकड़ शुरू कर दिया। 1929 से 1933 तक चले मुकदमें को मेरठ षड्यंत्र केस के नाम से जाता था। गिरफ्तार लोगों में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन(सीपीजीबी) के तीन अंग्रेज सदस्य भी थे। इन केसों की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है लेकिन मार्क्स की इस बात को दरकिनार कर कि हर देश के मजदूर अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार संगठन बनाएंगे, कॉमिंटर्न के निर्देश में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने राष्ट्रीय आंदोलन से अलग होकर लोगों में विश्वनीयता खोया और सरकार ने इसे अवैध घोषित कर दिया।
      कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में मार्क्स ने लिखा कि पूंजीवाद ने समाज को दो विरोधी खेमों—पूंजीपति और सर्वहारा खेमों में बांट कर वर्ग विभाजन को सरल बना दिया[1]। यह बात मार्क्स यूरोप, खासकर पश्चिमी यूरोप के पूंजीवादी देशों के संदर्भमें कहा था जहां नवजागरण और प्रबोधन काल(एज ऑफ एन्लाइटेनमेंट) ने जन्मजात योग्यता को खत्म कर दिया था। भारत में जाति आधारित सामाजिक विभाजन आज भी नहीं खत्म हुआ है। कबीर के साथ शुरू हुआ नवजागरण ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच पाया। सीपीआई ने मार्क्सवाद को समाज को समझने और बलदने के उपादान के रूप में न अपनाकर मॉडल के रूपमें अपनाया। यहां विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, जो भी अलग विमर्श का विषय है[2]। भारत में 1920 के दशक में 3 प्रमुख अंतर्विरोध थे :
1.    आवाम और औपनिवेशिक शासन का राजनैतिक अंतर्विरोध;
2.    जातिगत सामाजिक अंतर्विरोध;
3.    पूंजी और श्रम का आर्थिक अंतर्विरोध जिसमें दोनों ही पक्ष अविकसित थे। कम्युनिस्टों ने जाति के सवाल को अलग एजेंडा नहीं बनाया,  जो अंबेडकर ने किया। इस मुद्दे पर बहस की गुंजाइश यहां नहीं है, वह एक अलग चर्चा का विषय है। चूंकि औपनिवेशिक हस्तक्षेप के चलते पूंजीवाद का भारत में स्वाभाविक विकास नहीं हुआ और पलस्वरूप न ही कोई बुर्जुआ-जनतांत्रिक क्रांति, यह भी कम्युनिस्टों का ही उत्तरदायित्व था।
 1934 में “मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित आचार्य नरेंद्रदेव और जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी की स्थापना की जिसमें अवैध कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी शामिल थे। ईयमयस नंबूदरीपाद इसके संस्थापर  सह सचिव थे। किसान-मजदूरों की दृष्टिकोण से 1934-42 का दौर एक तरह से स्वर्णिम दौर था जिसमें सीयसपी के नेतृत्व में अखिल भारतीय किसान सभा और ट्रेड यूनियन एक सशक्त ताकत बन गए। सीयसपी के युद्धविरोधी प्लेटफॉर्म को झटका देते हुए सोवियतसंघ पर नाजी हमले से सीयसपी के कम्युनिस्ट सदस्य युद्ध के समर्थक हो गए।
      आजादी के बाद सीपीआई और सोसलिस्ट पार्टियां नेहरू सरकार के साथ सहयोग और विरोध पर बहस करते रहे। कई कम्युनिस्ट और सोसलिस्ट कांग्रेस में चले गए। विचारों के प्रसार के लिए चुनाव में शिरकत करने की नीति ने सीपीआई को चुनावी पार्टी में तब्दील कर दिया। 1960 के दशक से शुरू कम्युनिस्ट आंदोलन में फूट और धीरे-धीरे हासिए पर चले जाने की कहानी इतिहास बन चुकी है। लगभग डेढ़ सौ साल पहले मार्क्स ने हेगेल को उल्टा खड़ा कर दिया था, भारत क् कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद को उलट दिया।
      मार्क्सवादी सिद्धांतो पर हुई चीन, क्यूबा, वियतनाम आदि क्रांतियों पर भी चर्चा की गुंजाइश यहां नहीं है। यह लेख इस उम्मीद के साथ खत्म करता हूं कि रूसी क्रांति के शताब्दी वर्ष में ऐसे हालात बनें कि कि चिर प्रतीक्षित एक नए इंटरनेसनल के हालात बनें और दुनिया के हर देश में ऐसे विप्लवी दस दिन आएं जिससे दुनिया एक बार फिर हिल उठे। आज भारत तथा कई अन्य देशों में 1917 में रूस जैसी परिस्थितियां बन रही हैं, लेकिन बोल्सेविक पार्टी सी किसी सुसंगठित क्रांतिकारी मंच की जरूरत है, जो लोगों के असंतोष को क्रांतिकारी जज्बात में बदल सके।
      अंत में अपनी शक्ति की सीमाओं के मूल्यांकन के बिना मार्क्सवाद के मूलभूत सिंद्धांतों की चर्चा के परिप्रेक्ष्य में रूसी क्रांति के विश्लेषण की गागर में सागर भरने की महात्वाकांक्षी योजना में कितनी कामयाबी मिली यह तो पाठक ही बताएंगे। हाल में त्रिपुरा में सीपीयम की हार, या संशोधनवाद के अंतिम द्वीप के पतन के बाद, संघी गिरोहों की उत्पात और लेनिन की मूर्ति-भंजन के संदर्भ में आजकल भारत में, खासकर टीवी चैनलों की ‘मृदंग’ मीडिया और सोसल मीडिया में लेनिन के बहाने मार्क्सवाद और आजादी पर बहस छिड़ गयी है। भाजपा के एक स्वनामधन्य सांसद सुब्रह्मण्यम् स्वामी ने लेनिन को आतंकवादी करार दिया। इस संदर्भ में इस लेख का समापन, परिशिष्ट के तौर पर  वर्ग और वर्ग-चेतना तथा मार्क्सवाद और आजादी पर छोटी-छोटी चर्चाओं से करना अप्रासंगिक नहीं होगा।     



[1] कम्यनिस्ट मेनीफेस्टो
[2] ईश मिश्र, कम्युनिस्ट और जाति का सवाल, समयांतर, मई, 2016; ईश मिश्र, समाजवाद की समस्याएं समकालीन तीसरी दुनिया, मई 2016

No comments:

Post a Comment