Friday, March 30, 2018

शिक्षा और ज्ञान 147 (राम-परशुराम)

राम को मर्दवादी, वर्णाश्रमी संस्कृति के प्रतिनिधि नायक बताने वाली मेरी एक पोस्ट पर एक सज्जन कहा तब तो आप परशुराम और द्रोणाचार्य जैसे आदर्शों में भी कमी ढूंढ़ लेंगे। उस पर:

सही तो है परशुराम मातृहंता अपराधी था, द्रोण एक घटिया शिक्षक था जो अपने चेले की सर्वोच्चता बनाए रखने के लिए एक आदर्शवादी छात्र का अंगूठा काट लेता है। कोई भी शिक्षक, किसी भी कारण से, किसी भी छात्र का अहित करे या बदले की भावना रखे वह शिक्षक होने की पात्रता खो देता है। यह मैं एक बुजुर्ग शिक्षक की हैसियत से कह रहा हूं। जिस शिष्य के लिए उसने एक आदिवासी का अंगूठा काटा, उसी शिष्य ने धोखे से उसकी हत्या कर दी, वह इसी लायक था। बुद्ध और महाबीर से इन अपराधियों की तुलना मत कीजिए, वही भारत के ज्ञान का स्वर्णकाल था। बुद्ध ने आमजन की भाषा में ज्ञान का प्रसार किया। राज्य की उत्पत्ति बौद्ध सिद्धांत दुनिया में राज्य का पहला सिद्धांत था (अनुगत्तरा निकाय व दीघनिकाय)। बुद्ध का आंदोलन वर्णाश्रमी शोषण और ब्राह्मणीय बेहूदे कर्मकांडों के विरुद्ध खड़ा हुआ। अभिजन की भाषा संस्कृत में नहीं आमजन की भाषा पाली में महिलाओं समेतआमजन की शिक्षा के लिए विहार और संघ खोले। बुद्ध शिक्षा को ही मुक्ति का मार्ग मानते थे। आखिरी बौद्ध मौर्य सम्राट दशरथ की धोखे से हत्या कर उनके नराधम ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का नरसंहार किया, विहारों और पुस्कालयों को जलाया, रही सही कसर ब्राह्मण शंकर ने पूरी कर दी जिसने हिंसक बौद्ध विरोधी अभियान चलाया। शिक्षा पर एकाधिकार जमाकर पुराणों और मिथकों के छद्मावरण में इतिहास को छिपाया। गोलवल्कर और दीन दयाल जिस मनुस्मृति को इतिहास का सर्वश्रेष्ट विधि-समहिता मानते हैं, उसमें लिखा है कि औरत कभी आजाद नहीं होनी चाहिए उसकी आजादी खतरनाक है। शूद्र और औरत गलती से भी वेद मंत्र सुन लें तो उनके कानों में पिघलता लाख डाल दें और समाज के अपार बहुमत को शिक्षा से वंचित कर तथा पुराणों की गल्प कथाओं को ज्ञान के रूप में परिभाषित कर समाज को हजार साल की जड़ता के अंधे युग में डाल दिया। आप शायद जानते होंगे राहुल सांकृत्यायन चोरी-छुपे तिब्बत गए और वहां से बौद्ध संकलनों को खच्चरों पर लाद कर लाए, सारा साहित्य मूर्ख ब्राह्मणों ने नष्ट कर दिया था, वही आज संघी ब्राह्मणवादी कर रहे हैं। रजवाड़े ऐयाशी में डूबे रहे। हमारे शूरवीरों की यह औकात थी कि नादिरशाह जैसा चरवाहा 2000 घुड़सवारों के साथ पेशावर से बंगाल तक रौंद-लूट कर वापस चला जाता है और इस विशाल भारत भूमि के शूर-वीर बिलों में घुसे रहे, जिनके अधम वंशज कुत्तों की तरह झुंड में शेर बन उत्पात मचा रहे हैं। अरे कायर बजरंगियों, 4 छोटे-छोटे लड़के भी किसी पहलवान को पीट सकते हैं। मेरे बचपन में आर्थिक उत्पादन के वही साधन थे जो 1000 साल पहले थे। इस समाज का ऐतिहासिक दुशमन ब्रह्मणवाद है। जिस समाज में शस्त्र-शास्त्र का अधिकार मुट्ठी भर परजीवी अभिजनों के हाथ में हो, भारी जनसंख्या पशुवत जीवन जीती हो, उस समाज को कोई भी रौंद सकता है, बाकी जनता मंथरा रही, को होय नृपति हमें का हानी। जिसके जैसे आदर्श और प्रतीक होते हैं उस समाज का चरित्र वही होता है। छली-कपटी-मातृहंता-छात्रहंता-नारीविरोधी चरित्र जिसके आदर्श हों उस समाज की नैतिकता और चरित्र समझा जा सकता है। उनके वंशज और हमारे पूर्वज शूरवीर कंपनी की वर्दी पहनकर देशी राओं और नवाबों को हराकर देश को 200 साल की गुलामी में डाल दिया। 1857 की किसान क्रांति सफल होती यदि सिंधियाओं, पटियाला नरेशों, होल्करों और निजामों की सेनााएं किसानों की सेना के विरुद्ध अंग्रजों की मदद में न आतीं। यहां के कमीने शासक वर्गों को अपने किसानों की आजादी की बजाय अंग्रजों की गुलामी पसंद थी। जनता के इन गद्दारों के वंशज आज देशभक्ति की सनद बांट रहे हैं। जो समाज अपना इतिहास समीक्षात्मक दृष्टि से नहीं देखता वह अधोगामी बने रहने को अभिशप्त है। आज जरूरत रोजगार की है अपराधियों की यह सरकार नफरत के बीज बोने के लिए बंगाल-बिहार जला रही है, पीछे सार्जनिक उपक्रमों को अपने पालक धनपशुओं को बेच रही है, और सुशासन बांसुरी बजा रहे हैं।

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