Saturday, March 24, 2018

बगावत की पाठशाला 17 (मार्क्सवादी आजादी)

बगावत की पाठशाला

संघर्ष और निर्माण

विषय: मार्क्सवाद

पाठ 17


मार्क्सवाद और आजादी
2
      मार्क्सवाद के बारे में पूंजीवादी (उदारवादी) और अराजकतावादी दोनों किस्म के बुद्धिजीवी अधिनायकवादी और निजी आजादी के दुश्मन के रूप में प्रोपगंडा करते रहे हैं। कार्ल पॉपर ने प्लेटो से वाया रूसो मार्क्स तक अधिनायक की एक कड़ी निर्मित करते हुए दो खंडो में खुला समाज और उसके दुश्मन[1] लिख मारा, यद्पि 1945 में प्लेटो के कम्युनिज्म का कतरा नहीं था, मार्क्स का कम्युनिज्म सोवियत संघ के रूप में समक्ष था, जिसकी विश्वयुद्ध में निर्णायक भूमिका फासीवादी मंसूबों को नेश्त-नाबूत कर दिया था। सबसे पहले तो संसदीय (बुर्जुआ) जनतंत्र में आजादी का क्या मतलब है। रूसो ने संसदीय जनतंत्र के शैशवकाल में ही कह दिया था कि यह एक झूठा जनतंत्र है और झूठी आजादी। “इंगलैंड में लोग मतदान करते समय स्वतंत्र होते हैं, फिर बेड़ियों में जकड़ दिए जाते हैं, यह आजादी नहीं है, यह कुछ भी नहीं है”[2]
समानता और सामूहिकता को जोड़कर आजादी की रूसो की नई परिभाषा की विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है, उनका लोकमत (जनरलविल) का सिधांत एक नए राजनैतिक दर्शन की बुनियाद है, जिसे इसइया बर्लिन सकारात्मक स्वतंत्रता का सिद्धांत कहते हैं[3]। रूसो, गुलाम समाज में व्यक्तिगत आजादी भ्रम तथा लोकमत के आदेशपालन को आजादी बताकर आजादी की मार्क्सवादी अवधारणा, पूंजी की गुलामी तथा सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत का पूर्वाभास देते हैं।
      मार्क्सवाद और स्वतंत्रता को विरोधाभाषी बताने वाले, यह नहीं बताते कि स्वतंत्रता है क्या? उसी तरह जैसे देशद्रोह की सनद बांटने वालों से देशभक्ति की परिभाषा पूछने पर बोलते हैं, बंदेमातरम्।बंदे मातरम् क्या हैवबंदे मातरम्। अपरिभाषित अवधारणाएं, शासक वर्गों के भोंपुओं के कुप्रचार के लिए अनुकूल होती है। मैं अपनी बात इतिहास के सुविदित तीन दृष्टांतों से शुरू करके बुर्जुआ जनतंत्र की औपचारिक स्वतंत्रता और मानव-मुक्ति की वास्तविक स्वतंत्रता की अतिसंक्षिप्त तुलनात्मक विश्लेषण की कोशिस करूंगा। क्रिस्टोफर कॉडवेल एक अंग्रेज युवक थे, कवि, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी। कम उम्र में ही कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ ग्रेट ब्रिटेन के सदस्य बने। भगत सिंह की ही तरह युवावस्था में अद्भुत बौद्धिक परिपक्वता और मौलिक चिंतन। दोनों 1907 में पैदा हुए थे। 1930 के दशक में आजादी के लिए शहीद होने वाले तीसरे मार्क्सवादी, क्रांतिकारी, छोटे कद के 20वीं शदी के महानतम् क्रांतिकारी विचारक, एंटोनियो ग्राम्सी इन दोनों से 16 साल पहले पैदा हुए थे। क्रिस्टोफर कॉडवेल एक खांटी मार्क्सवादी और प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट थे। वे जनतांत्रिक आजादी के लिए अपने देश में लिखते-लड़ते रहे और जब जनतांत्रिक आजादी पर किसी अन्य देश, स्पेन पर आजादी पर फासवादी खतरा आया तो कलम के साथ बंदूक भी उठा लिया और अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड की तरफ से लड़ते हुए, 1937 में शहीद हो गए, भगत सिंह की शहादत के 6 साल बाद। भगत सिंह की ही तरह अनमोल वैचारिक खजाना छोड़ गए, भविष्य की पीढ़ियों के लिए। उनकी रचनाएं कालजयी हैं। स्टडीज एंड फर्दर स्टडीज इन अ डाइंग कल्चर  में शामिल 35 पेज का निबंध, स्वतंत्रता[4], इस विषय पर मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य का अपने आप में एक समग्र पाठ है। युवा कॉडवेल अपने देश में कलम से आजादी का अलख जगाते रहे और एक अन्य देश में आजादी पर फासीवादी खतरा आया तो बंदूक भी उठा लिया और आजादी के लिए लड़ते हुए शहीद हो गए।
भगत सिंह और साथियों ने गुलामी की जिंदगी की बजाय आजादी के लिए इंकलाब जिंदाबाद के नारे के साथ हंसते हंसते फांसी का फंदा चूमा। स्पेन के क्रांतिकारी कवि गार्सिया लोर्का की वह तस्वीर आंखों से ओझल ही नहीं होती। सामने तनावग्रस्त भाव में बंदूकें ताने फासीवादी शूटर खड़े थे और यह बंदा मौत के खौफ से बेफिक्र, हंसते हुए फासीवाद मुर्दाबाद तथा आजादी जिंदाबाद के नारे लगा रहा था। समाज की आजादी के लिए अपनी भौतिक आजादी को दांव पर लगाने वाले क्रांतिकारियों की लंबी फेहरिस्त है। एक गुलाम समाज में निजी आजादी एक छलावा है, आजाद होने के लिए समाज आजाद करना पड़ेगा।
इटली की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया तथा सांसद, एंटोनियो ग्राम्सी से फासीवादी शासक इतने खौफजदा थे, कि 1926 में फासीवादी एटार्नी ने अदालत से “इस दिमाग को 20 साल के लिए काम करने से रोक देने की गुजारिश की थी”[5]। दिमाग की उड़ान पर रोक तो नामुमकिन था, 10 साल जेल के कष्ट और बिना उचित दवा-दारू के शरीर जर्जर हो गयी तथा दिमाग के काम करने या जीने अवधि कम हो गयी। 11 साल बाद जेल से  छूटने के कुछ ही दिनों में 27 अप्रैल 1937 में उनका निधन हो गया। धीरे-धीरे मरते हुए क्रांतिकारी का कलम कभी नहीं रुका और मरते वक्त क्लीनिक में घनी लिखावट में 2,848 हस्तलिखित पन्ने, अपनी मौत के बाद चोरी-छिपे देश से भेजने के छोड़ गए, जो भविष्य की क्रांतिकारी पीढ़ियों के लिए दुनिया को समझने का ज्ञान; इंकलाब की मिशाल तथा आचारसंहिता बन गयी, उस पर टनों शोध हो चुके हैं[6]। 1926 में जब उनकी गिरफ्तारी अवश्यंभावी लगी तो उन्होने देश से बाहर जाने की सलाह नहीं माना, “यह नियम है कि कप्तान डूबते जहाज से उतरने वाला आखिरी व्यक्ति होता है; .... ।[7]” क्यों ग्राम्सी ने फासीवाद के विरुद्ध समाज की आजादी के लिए निजी जिंदगी और आजादी खतरे में डाल दिया? क्योंकि गुलाम समाज में निजी आजादी एक भ्रम है जो एक अन्य मिथ्या संकल्पना पर आधारित है कि व्यक्ति का अस्तित्व एक स्वायत्त इकाई है जबकि वह जो है वह एक स्वायत्त व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि समाज में, समाज के जरिए होता है। समाज के भौतिक उत्पादन के दौरान वह कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ एक अनचाहे रिश्ते में बंध जाता है, जिसे समाज का उत्पादन संबंध कहते हैं[8]   
बड़े स्वतंत्र, लंबे लेख के विषय को परिशिष्ट के रूप में पेश करने का दुस्साहसी प्रयास को विराम देने के पहले एक और दृष्टांत। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ‘मेरठ षड्यंत्र मामले’ (1929-33) में भारतीय मजदूर तथा कम्युनिस्ट नेताओं के साथ, ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीजीबी) के 3 सदस्य भी बंद थे, हचिंसन, ब्रैडले और स्प्रैट। उन्होंने अपनी निजी भौतिक आजादी के लिए अंग्रेज शासकों की कोई शर्त नहीं मानी, उनके लिए, उस समय आजादी का मतलब था, औपनिवेशिक गुलामी से आजादी, जिसकी अगली कड़ी है पूंजी की गुलामी से आजादी[9]   
उपरोक्त दृष्टांतों का मकसद यह है कि मार्क्सवाद और स्वतंत्रता में कोई विहोधाभास नहीं है, मार्क्सवाद व्यक्तिवाद और निजी मुनाफे पर आधारित लूट-खसोट और श्रम बेचने की मजबूरी के अभिशाप की स्वतंत्रता को औपचारिक स्वतंत्रता मानता है। मार्क्सवाद व्यक्तिगत आज़ादी का विरोधी नहीं, सभी की वास्तविक व्यक्तिगत आज़ादी का हिमायती है। के ही चलते उदारवादी आज़ादी के भ्रम को तोड़ता है क्योंकि व्यक्ति के स्वायत्त अस्तित्व की अवधारणा एक भ्रम है, कोई भी व्यक्ति गुलाम या मालिक व्यक्ति के रूप मे नहीं बल्कि समाज में, समाज के द्वारा, समाज के स्थापित संबंधों के तहत,  समाज के अभिन्न रूप के रूप में वह गुलाम या आज़ाद होता है। व्यक्ति सदा स्वार्थपरक होकर निजी इच्छाओं की पूर्ति को ही जीवन का उद्देश्य मनाता है, यह भी एक पूंजीवादी विचारधारात्मक दुष्प्रचार है। उदारवादी (पूंजीवादी) आज़ादी औरों से मिलकर रहने की नहीं बल्कि अलगाव की आजादी है।  दूसरों की आज़ादी की बेपरवाही की, बेरोक-टोक लूट और संचय की अजादी है. सवाल उठाता है क्या किसी परतंत्र समाज में कोई निजी रूप स स्वंतत्र हो सकता है? निजी स्वंत्रता समाज की स्वतंत्रता से जुड़ी है. आज़ाद होना चाहते हैं तो समाज को आज़ाद करें. मेरे विचार से मार्क्सवाद का मूल मंत्र है कि आज़ाद होना चाहते हो तो आज़ाद समाज का निर्माण करो, व्यक्तिगत आज़ादी सामाजिक आजादी का अंग है।
यह परिशिष्ट अपरिभाषित आजादी का डंका पीटने वालों से क्रिस्टोफर कॉडवेल के सवाल-जवाब से, समाप्त करना चाहूंगा। क, ख और ग तीन अलग-अलग इंसान हैं। मान लीजिए क दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं, अंग्रेजों के जमाने की बाग-बगीचे वाली कोठी में रहते हैं, सुविधा-संपन्न जीवन लायक आमदनी है, समाज में सम्मान है। वैसे तो अपना छोटा हेलीकाफ्टर होता, हिमालय की वादियों में, छुट्टियों प्रकृति की छठा में बौद्धिक विलास के लिए एक सुंदर सा कॉटेज होता तो और अच्छा होता लेकिन जब चाहें जहाज से छुट्टी मनाने कोदईकनाल जा सकते हैं। वे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में , साम्यवाद पर; पूंजीवाद पर; सांप्रदायिकता पर; वामी इतिहासकारों द्वारा पूर्वजों के गौरवशाली इतिहास को नजरअंदाज करने पर; देशभक्ति और गोरक्षा पर जो चाहे लिख सकते हैं, लिखते हैं कि नहीं यह अलग बात है। क से पूछिए कि क्या वे स्वतंत्र हैं, उनका जवाब होगा, “और नहीं तो क्या?”
ख, मान लीजिए मां-बाप की मदद के लिए कमाने झारखंड से दिल्ली आया किसी ढाबेपर काम करने वाला कोई छोटू है। उसके मां-बाप ने कुछ और नाम रखा होगा लेकिन दिल्ली आकर उसका नाम व्यक्तिवाचक संज्ञा से जातिवाचक संज्ञा बन गया। उसकी सुबह शुरू होती है सुबह 5 बजे और खत्म होती है, अंतिम ग्राहक के जाने के बाद। उसके पास स्वतंत्रता-परतंत्रता (अस्वतंत्रता) के बारे में न कोई जानकारी है, न सोचने का समय। उसका ज्ञान गांव में सीखा पाप-पुण्य तक सीमित है और ग्राहक न होने पर मालिक के मनोरंजन के लिए ढाबे में रखे टीवी पर जी न्यूज या सास भी बहु थी किस्म के सीरियल ही उसके ज्ञानवर्धन के श्रोत हैं। उसकी एक ही चिंता है कि मालिक कहीं किसी बात पर नाराज होकर निकाल न दे, ढाबे की रोटी और छत से महरूम हो जाएगा।
ख की समस्या है कि उसके पास सोचने के समय का अभाव है, ग की वह समस्या नहीं है,उसके पास समय ही समय है। वह एक उच्चशिक्षित बेरोजगार है। वह कुछ भी लिखने-बोलने-करने को स्वतंत्र है। लेकिन हम जानते हैं कि वह यह सब कुछ नहीं करता वह अच्छो पदों पर प्रतिष्ठित अपने मित्रों के प्रति ईर्श्या और कटुता की भावना रखता है और परिवार के साथ चिडचिड़ापन महसूस करता है, जो उसे नाकारा समझते हैं। किसी शाम जब घर वाले कहीं गए हों तो कमरे से लटककर आत्महत्या कर लेता है, जिसके लिए वह बिल्कुल स्वतंत्र है।
कॉडवेल पूछते हैं कि यदि क स्वतंत्र है तो क्या ख औग ग भी स्वतंत्र हैं। “मुझे लगता है, क का जवाब होगा नहीं। ....... वेल्स, फोस्टर या रसेल हम से सहमत होंगे कि यह स्वतंत्रता नहीं बल्कि परिस्थितिजन्य अपमानजनक गुलामी है। ख और ग की परतंत्रता कैसे समाप्त की जा सकती है? उनका जवाब होगा उन्हे क के बराबरी पर लाने से”। यह पूंजीवाद में संभव नहीं है, क्रांति की जरूरत होगी। फिर सर्वहारा की आजादी का क्या? “उसकी वैतनिक गुलामी के लिए जिम्मेदार पूंजीवादी संस्थानों और सामाजिक संबंधों के उन्मूलन में उसकी आजादी है। ....... स्वतंत्रता की दोनों अवधारणाओं का अंतर्विरोध असाध्य है। सर्वहारा के सत्ता में आने के बाद पूंजीवादी सामाजिक संबंधों की पुरस्थापना का प्रयास सर्वहारा की आजादी पर हमला है। उसका प्रतिकार उसी तरह किया जाता है जैसे कोई भी अपनी स्वतंत्रता पर हमले का करता है। यही है सर्वहारा की तानाशाही”[10]। अतः संसदीय जनतंत्र का जनवादी विकल्प है, सर्वहारा की तानाशाही तथा औपचारिक आजादी की जगह वास्तविक आजादी यानि वर्ग-शासन से आजादी, वर्गविहीन समाज यानि राज्यविहीन समाज की तरफ प्रस्थान तथा क्षमता के अनुसार काम तथा आवश्यकतानुसार आपूर्ति की वैतनिक गुलामी से मानव-मुक्ति का संक्रंण, सर्वहारा की तानाशाही संक्रमण काल है। ऐतिहासिक कम्युनिस्ट पार्टी शासित राज्यों में इसके प्रयोग के गुण-दोष की चर्चा अलग विमर्श का विषय है।  



[1] Karl Popper, Open Society and its Enemies, Vol 1: Spell of Plato; Volume 2. Spell of Marx.
[2] Jean Jacks Rousseau, Social Contract, p.
[3] Isaiah Berlin Two Concepts of Liberty, Four essays on Liberty, OUP, 1969.
[4] Christopher Caudwell, Studies and Further Studies in A Dying Culture, Monthly Review Press, London, 1972, pp.193-228
[5] Quoted in Carmel Borg; Joseph Buttigieg; Peter Mayo (Eds), Gramsci and Education, Roma and Littlefield, New York, 2002, p. 153
[6] Antonio Gramsci, Selections from Prison Notebooks (edited by Quintine Hore & Geoffery N Smith), Lawrence & Wishart, London, 1978, p. xviii
[7]उपरोक्त, p. lxxxvii
[8] The preface, op.cit.
[9] Sumit Sarkar, History of Modern India
[10] Christopher Caudwell,  उपरोक्त

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