Saturday, March 24, 2018

बगावत की पाठशाला 18 (वर्ग चेतना 1)

बगावत की पाठशाला 
संघर्ष  और  निर्माण

विषय: मार्क्सवाद
पाठ 17
वर्ग और वर्ग चेतना
1
       क्रांति के दो कारक होते हैं, आंतरिक और वाह्य। आंतरिक कारण है व्यवस्था का संकट, यानि व्यवस्था के अंतर्विरोधों की परपक्वता। वाह्य कारण है, सत्ता संभालने की तैयारी के साथ वैकल्पिक क्रांतिकारी शक्ति की मौजूदगी। फ्रांस में वर्ग-संघर्ष में 1848 की क्रांति-प्रतिक्रांति के बीच बोनापार्टवाद के उदय के बारे में मार्क्स ने लिखा कि पूंजीपति वर्ग हार चुका था और सर्वहारा वर्ग की सत्ता पर काबिज होने की तैयारी नहीं कर पाया था।[1] यह तैयारी क्या है?  मार्क्स और एंगेल्स अपनी लगभग सब रचनाओं में इस बात को लगातार रेखांकित किया है कि सर्वहारा अपनी मुक्ति की लड़ाई खुद लड़ेगा। लेकिन कैसे? ‘अपने आप में वर्ग’ से ‘अपने लिए वर्ग’ बन कर यानि संख्या बल से जनबल बन कर, वर्ग हित के आधार पर अपने को संगठित करके। संख्याबल से जनबल में संक्रमण की कठिन कड़ी है वर्गचेतना। मार्क्स ने जर्मन विचारधारा में लिखा है, “हर ऐतिहासिक युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानि समाज की भौतिक शक्तियों पर जिस वर्ग का शासन होता है वही बौद्धिक शक्तियों पर भी शासन करता है. भौतिक उत्पादन के शाधन जिसके नियंत्रण में होते हैं, बौद्धिक उत्पादन के साधनों पर भी उसी का नियंत्रण रहता है, जिसके चलते सामान्यतः बौद्धिक उत्पादन के साधन से वंचितों के विचार इन्हीं विचारों के आधीन रहते  हैं”[2]। मार्क्स इसे युग का विचार या युग चेतना कहते हैं। यह युग चेतना सामाजिक चेतना का स्वरूप निर्धारित करती है। “हर युग का शासक वर्ग व्यवस्था के वैधीकरण के लिए वैचारिक वर्चस्व निर्मित करता है जो शोषण दमन पर आधारित व्यवस्था को न्यायपूर्ण बताता है जिसे शोषित भी आत्मसात कर लेता है। यही मिथ्या चेतना, युग चेतना  बन जाती है। शोषित युग चेतना के प्रभाव में शोषण को पनी कमियों का परिणाम और नियति मान लेता है”[3]। हर युग का शासक वर्ग अपने आंतरिक तथा गौड़ एवं प्रायः कृतिम अंतर्विरोधों को समाज का प्रमुख अंतर्विरोध प्रचारित कर मुख्य अंर्विरोध की धार कुंद करने की कोशिस करता है और काफी हद तक सफल भी होता है। साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी की दो सेवक पार्टियों, भाजपा तथा कांग्रेस के आपसी अंतर्विरोध को प्रमुख राष्ट्रीय, राजनैतिक अंर्विरोध प्रचारित किया जा रहा है। शासक वर्ग वर्गचेतना के अभियान की गति के विरुद्ध धर्म, जाति, उपजाति आदि पर आधारित विचारधाराओं को हवा देता है।   
      जैसा कि ऊपर मार्क्स के हवाले से कहा गया है कि भौतिक जीवन की उत्पादन प्रणाली सामाजिक, राजनैतिक और बौद्धिक प्रक्रियाओं का सामान्य निरूपण करती हैं। “अपने विकास के खास चरण में समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियों और मौजूदा उत्पादन संबंधों का टकराव होता है” जो उत्पादक शक्तियों के “विकास में बाधक बन जाते हैं। तब शुरू होता है सामाजिक क्रांति का एक युग” । इस तरह हम देखते हैं कि सामाजिक क्रांति की दो शर्ते हैं। पहली शर्त विकास का चरण और दूसरी वर्ग चेतना से लैश सर्वहारा संगठन।
      मार्क्स सोचते थे कि विकास के अपने चरम पर पूंजीवाद के अंतर्विरोध परिपक्व हो जाएंगे तथा श्रम-समाजीकरण के जरिए मजदूरों में वर्गचेतना का प्रसार होगा तथा सर्वहारा अपने लिए वर्ग बनेगा। वह इन अंतर्विरोधों को समझेगा और संगठित जनबल से उसे समाप्त कर नए युग का प्रारंभ करेगा। यदि क्रांति की स्थिति ऐसे देश में बनी जहां पूंजीवाद का विकास न हुआ हो, जैसा रूस या चीन में हुआ, तो यह क्रांति की नेतृत्वकारी पार्टी का उत्तरदायित्व बनता है कि पूंजीवाद के विकास के वह शिक्षा, सभा तथा संघर्षों के जरिए युग चेतना के मिथ को बेनकाब करें और उनके अंदर पूंजीवाद की व्यक्तिवादी सामाजिक चेतना का जनवादीकरण करे। चीनी सास्कृतिक क्रांति का यही मकसद था। 1960 के दशक तक भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की उल्लेखनीय संसदीय उपस्थिति थी, लेकिन पार्टी इस कदर संसदीय समीकरणों में उलझ गयी कि क्रांति और वर्गसंघर्ष की बातें कर्मकांडी कथा बनकर रह गयीं। अन्य पार्टियों की ही तरह कम्युनिस्ट पार्टियां भी अपने संख्याबल को जनबल में तब्दील करने के प्रयास की बजाय उन्हें पार्टी लाइन से हांकते रहे। वर्ग चेतना के अभाव में उनके चुनावी जनाधार का संख्याबल, भाजपाई या सपाई संख्याबल बन गया। यह परिशिष्ट इस बात से खत्म करता हूं कि पूंजीवाद की ही तरह समाजवाद भी सिद्धांत के संकट से गुजर रहा है। दुनिया के हर देश में पूंजीवाद से जन-असंतोष है, उसे संख्याबल से जनबल में तब्दील करने के सिद्धांत और रणनीति असंतोष के इसी उहापोह से निकलेगा।
      उपसंहार
      क्रांति एक निरंतर प्रक्रिया है, रास्ते में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। समाजवाद पूंजीवाद का विकल्प है और सामूहिकता वर्ग चेतना पूंजीवादी व्यक्तिवादी चेतना का। पूंजीवाद के विभिन्न चरणों के अनुरूप समाजवादी सिद्धांत भी बदलते हैं। उदारवादी पूंजीवाद के विरुद्ध, फ्रासीसी क्रांतियों (1789, 1848, 1871); रूसी क्रांतियों (1905, 1917); चीन (1949), क्यबा (159), वियतनाम की क्रांतियों के प्रयोगों से क्रांति का एक दौर खत्म हुआ नवउदारवादी पूंजीवाद के विरुद्ध तमाम देशों में स्वस्फूर्त विरोध हो रहे हैं जिन्हें एक संगठित रूप देने से क्रांति के नए दौर की शुरुआत होगी। भूमंडलीय पूंजी का कहर भूमंडलीय है, प्रतिरोध भी भूमंडलीय होनी चाहिए। इस वक्त साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी से लड़ने के लिए एक नए इंटरनेसनल के गठन की जरूरत है।
22.03.2018  



[1] The Class Struggles in France, 1848 to 1850 - Marxists Internet Archive

https://www.marxists.org/archive/marx/works/1850/class-struggles-france/
[2] Karl Marx, German Ideology, Pregress, Moscow, 1968, p. 26
[3] ईश मिश्र, उपभोक्ता संस्कृति बनाम जनसंस्कृति: युगचेतना बनाम युग चेतना, डॉ. सुनीत सिंह एवं पीयूष त्रिपाठी (सं), स्वराज, लोकतंत्र एवं टिकाऊ विकास, पीयूसीयल, इलाहाबाद, 2014, पृ. 16-19

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