"दरअसल वैचारिक रूप से well organized और well drafted समाज न होने की वजह से हिंदुओं से communicate कर पाना कम्युनिस्टों के लिए संभव नही है।" असंभव महज एक सैद्धांतिक अवधारणा है। ऐसा इसलिए है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के नेताओं ने मार्क्स पढ़ना बंद कर दिया है। क्रांतिकारी परिस्थितियां आसमान से नहीं हैं, मौजूदा परिस्थिति को लही क्रांतिकारी बनाना पड़ता है। इस पर पाठशाला के अगले पाठ लिए लेक्चर तैयार कर रहा हूं। मैं बहुत ईमानदार मास्टर हूं, बिना तैयारी क्लास नहीं जाता। मैंने "समाजवाद की समस्याएं" शीर्षक से एक लेख लिखा था (समकालीन तीसरी दुनिया, मई, 2015), सीपीयम की केंद्रीय कमेटी की मीटिंग के बाद एक लेख , 'भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में एक और फूट" (समयांतर, फरवरी, 2018) । Constitutionalism in Indian Communist Movement शीर्षक से जेयनयू में यमफिल का टर्मपेपर लिखा था लेकिन तब तक लेखक होने के आत्मविश्वास का अन्वेषण नहीं कर पाया था। साल बाद 1987 में एक जर्नल थर्ड कॉन्सेप्ट में छपा। सब हमने शेयर किया है, लेकिन भक्त लेख नहीं पढ़ता है, मेरा नाम पढ़कर इनके पापों की गालियां हमें देने लगता है। सीपीआई-सीपीयम और अन्य संसदीय पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है। माऩिक सरकार या इंद्रजीत गुप्ता की निजी ईमानदारी से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्लास में विस्तार से बात होगी। इस समय जो कश्मीर-से कन्याकुमारी तक केशरिया फहराने पर जोश की उमंगों पर तैर रहे हैं, वे फासीवाद के उदय पर ऐंटोनियो ग्राम्सी पढ़ लें तो जान जाएंगे कि वे आत्मघाती लहरों पर सवारी कर रहे हैं।
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