इस ग्रुप में मेरी एक पोस्ट पर कुछ कमेंट पर कमेंट्स विमर्श के लिए पोस्ट के रूप में डाल रहा हूं.
Dinesh Kumar Verma इसी लिए तो शासक वर्ग और उसके जम्मूरे विचारों से आतंकित होकर विचारक को ही खत्म कर देते हैं. इलाहाबाद के पूर्व छात्रों के एक मंच पर मेरी एक पोस्ट पर 80-85 लाइक थे और 4-5 लोग गाली गलौच कर रहे थे. अगले दिन देखा तो मुझे स्वघोषित जनता द्वारा कुछ ऐसा निकाला गया वहां से मुझे कि वह ग्रुप ही मेरी दृष्टिसीमा से परे हो गया. मुझे विचारों का असर देख अच्छा लगा. कुछ बहुत ही संभावनाओं वाले युवा मित्रों से संपर्क टूटने का कष्ट है. लेकिन वे टाहेंगे तो संपर्क बना रहेगा. Ajay Bharti Goswami क्यों फैला रहे हैं प्रदूषित हवा? दिमागबंद तोतों और भेंड़ों के लिए ही दुष्यंत कुमार ने लिखा है -- उतने टूटे चेहरे नहीं हैं, जितने टूटे ये आइने हैं, जिस तरह चाहो बजाओ इस शभा में हम नहीं हैं आदमी हम झुनझुने हैं,. दिमाग का इस्तेमाल ही मनुष्य को पसुकुल से अलग करता है, इस फ4क़ को बरकरार रखिए, हवा सिर्फ मोेदियाये तोते-भेड़ों के दिमाग में है अन्यथा वहां निर्वात होता. मोदी जी की इतनी हवा है तो अपनी पार्टी के धुरंधरों को दरकिनार कर हर दल के दागी नेताओं का जमावड़ा क्यों करते. बनारस से मोदी जी हार नहीं रहे होते तो बजरंगी लंपट केजरीवाल की सभाओं में हुड़दंग क्यों मचाते? Sanjay Pathak. मित्र बीच का रास्ता नहीं होता. मैं तो दाहिने अति --दृढ़ कर्मकांडी-अँध आस्था -- से बायें अति -- विशुद्ध वैज्ञानिक-प्रामाणिक लास्तिकता -- का सफर तय करते वर्णाश्रम के संयास आश्रम में हूं (प्लेटो के दार्शनिक शासन की अवस्था) और बुढ़ापे में आप लोग जंगल भगा देंगे. आगे इतिहास आपका है बनायें या बिगाड़ें. हा हा. कितनी अमानवीय व्यवस्था है जब तक सक्षम हैं, सम्माननीय हैं पिर भगा दिये जायेंगे जंगल एकांत में शांति से मरने के लिए. 36 साल पहले की अपनी एक कविता में लिखथा था, जंगल तो हमें वैसे भी जाना है, वह हमें चुने उससे बेहतर उसका हमसे चुना जाना है. खैर फुटनोट लंबा हो गया. जंगल जाने के पहले का समय का अधिकतम आनन्द लेना चाहता हूं. और शान-ओ-शौकत, गाड़ी-घोड़े, संपत्ति और शक्ति के भ्रम के सुख क्षणिक और वायवी है असली और दीर्घ जीवी सुख है आत्मानुभूति का सुख जो संभावनाओं के वास्तवीकरण के संजीदे प्रयास से प्राप्त होती है. मैं सभी मंचों का इस्तेमाल अधविश्वासों-अंध आस्थाओं और सरमायेदारी के विरुद्ध जनपक्षीय जनचेतना के निर्माण के उद्देश्य से वैज्ञानिक विश्वदृष्टि पचार प्रसार के लिए करता हूं, खतरों और अवरोधों की चिंता किए बिना. शब्द व्यर्थ नहीं जाता. बातों का असर होगा ही कभी न कभी. सार्थक ज़िंदगी जीना खुद अपने में एक संपूर्ण उद्देश्य है. किसी मेधावी अफ्सर या नेता को जो सुख कुछ हजार करोड़ के घपले से मुल्क लूटने में जो सुख मिलता होगा उससे कई गुना सुख मुझे मिथ्या चेतना के शिकार किसी बंद दिमाग युवा-युवती का दिमाग मुक्त करने और तर्कशीलता की दिशा में अग्रसर होने को प्रेरित कर सकूं. किसी फिरकापरस्त को जितना परसंतापी सुख "दूसरों" की औरतें "नापाक" करने में मिलता होगा उससे लाखों गुना सुख मुझे गलत समाजीकरण के शिकार किसी लंपट को उसके अंदर छिपे सद्गुणों से परिचित कराकर एक अच्छे विवेकशील इंसान में बनने में मदद करने से मिलता है. ये सुख स्थायी होते हैं, यादों के रूप में आजीवन अनुभूत होते रहते हैं. अंतरात्मा को मारकर, किसी को कष्ट देकर मिलने वाले परसंतापी सुख की तुलना में किसी का भला करके मिलने वाला सुख श्रेष्ठतर और अति-आनंददायी होता है. देखिए फूटनोट के विस्तार पर चिंता के बावजूद और विस्तृत हो गया. तो बात अति की हो रही थी. कई बार स्लो डोज़ की बजाय शॉक थेरेपी ज्यादा कामयाब होती है और कई बार बैकफायर कर जाती है. खतरे उठाने ही पड़ते हैं, जिनका अलग सुख है. Pushpa Tiwari आपके सवाल, मॉफ कीजियेगा, आपकी शोध-पद्धति के प्रतिगामी परप्रेक्ष्य का परिचायक है.(अरे यह कमेंट तो पूरा लेख होता जा रहा है). विमर्श की अग्रगामी पद्धति, क्यों से से शुरू होकर वांछनीयता और विकल्प तक पहुंचती है. आप ने सुन लिया और पूछ बैठीं कि विकल्प क्या है? किसका? मेरा काम समस्या समझाना है, विकल्प उसी समझ से निलेगा. हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है उसे इसका एहसास दिलाने की जरूरत है.व्यक्ति की पहचान विचारों और कार्यों से बनती है.
चलो फंस गया हीूं तो तुम्हारे दूसरे सवाल का भी जवाब दे दूं. मस्तिष्क (ब्रेन) के विकास के अर्थों में, हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है, तभी तो पाषाण युग से अंतरिक्ष युग की यात्रा संभव हुई है, पिछली पीढ़ी का कर्तव्य है कि ऐसा समाजीकरण प्रदान करें जो इन विभिन्न प्रतिभाओं से संपन्न बच्चों को बचपन से ही दिमाग की सर्जनात्मकतो प्रोत्साहित और प्रोन्नत तरे, लेकिन लेकिन अनुशासन औरआज्ञाकारिता जैसी बेहूदगियों के नाम पर हम बच्चों की सर्जकता और विवेकशीलता को हतोत्साहित और कुंद करके भेड़ और तोते बनातते हैं और उनमें कई अमूर्त भय, असुरक्षा, और बौद्धिक हीनता के भाव भरते हैं. चिंतनशील विद्रोह की धाराएं, समाजीकरण के चलते नहीं इनके बावजूद आगे बढ़ती हैं, क्योंकि हर अगली पीढ़ी अंततः तेजतर होती है. नैतिक व्यक्तित्व का निर्माण विवेक और अंतःकरण की द्वद्वात्मक युग्म का परिणाम है.

बहुत खूब पर दो बार पोस्ट हो गया है पैरा ।
ReplyDelete1 हटाता हूं
Delete