Wednesday, May 14, 2014

शिक्षा और ज्ञान 6

चुनाव के साथ न तो इतिहास रुकेगा न जीवन और न ही अन्याय के खिलाफ संघर्ष. सभ्यता की शुरुआत असमानता और उसकी रक्षा के लिए अन्याय से शुरू हुई और तभी शुरू हुआ अन्याय के विरुद्ध संघर्ष. अभी तक हर संघर्ष की सफलता के साथ एक अन्याय की जगह दूसरे ्न्याय ने ले लिया, दास प्रथा का अंत हुआ लेकिन उसकी जगह सामंती व्यवस्था ने ले ली, जिसे खत्म करके पूंजीवादी अन्याय की सअथापना हुई. अगला संघर्ष निर्णायक होगा क्योंकि यह मेहनतकश के नेतृत्व में लड़ा जायेगा हर तरह के अन्याय के अंत से मानवता स्वतंत्र होगी..

ज़िंदगी काटने की बज़ाय जिया जाय तो गर्दिशें दूर भागती हैं. अब 1 घंटा स्टूडेंच्स के साथ बिताना है तो उसे काटने की बजाय उसका आनंद क्यों न लिया जाय, ढंग से ईमानदारी से जिया जाय. क्योंकि जीवन का कोई जीवनेतर उद्देश्य नहीं होता, ेक अच्छी ज़िंदगी जीना अपने आप में उद्देश्य है बाकी अनचाहो परिणामों की तरह साथ हो लेते हैं. गम-ए-दिल को गम-ए-जहां से मिलाने के सुख और साहस से अनंत ऊर्जा मिलती है.

तिवारी जी नौकरी तो आजीविका का साधन है. पूंजीवाद में हम सभी जिंदा रहने के लिए श्रम बेचने (एलीनेटेड लेबर करने) ो अभिशप्त हैं लेकिन नौकरी के अलावा व्यक्तित्व और प्रभाव के निर्धारण में कई अन्य तत्व भी होते हैं, सबसे ऊपर अंरात्मा और सभी के साथ समानुभूति.

मित्र, सभी के पास काफी तनाव रहते हैं. ये तनाव यथास्थिति नहीं यथास्थिति का लक्षण और उसकी संरचना की देन है. पूंजीवादी यथास्थिति इतने तनाव देती है कि इंसान अपनी समस्याओं में इतना परेशान रहे कि उसके खिलाफ सोचने का ही मौका न मिले, यदि हम अपना निजी संघर्ष सामाजिक संघर्ष सो जोड़ें तो तनाव के कारण पर हमला होगा.

Dinesh Kumar Verma मित्र, भक्तिभाव से नहीं आलोचक भाव से समझें तो बेहतर समझेंगे. एंतिम ज्ञान की तरह अंतिम भी सत्य नहीं होता और कोई भी उसका वाहक नहीं हो सकता. मैं तो कतई नहीं. एक शिक्षक और एक पिता होने के् नाते अफसोस और ग्लानि दोनों होती है कि हम अपने बच्चों को क्या बना रहे हैं. शिक्षा का काम होना चाहिए दिमाग के इस्तेमाल का प्रोत्साहन लेकिन संस्थागत परवरिस और शिक्षा मस्तिष्क के कपाट खोलने की बजाय और नट-बोल्ट कस देती हैं. आपको छात्र जीवन में कोई-न-कोई शिक्षक जरूर टकराया होगा जिसने कहा होगा कि ज्यादा अपना दिमाग नहीं लगाओ चुपचाप लिखो. अरे भाई हमारे बच्चे प्रतिभासंपन्न हैं कम से कम उतने होशियार हैं जितने आप क्योंकि दिमाग के विकास के लिहाज से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है. हमें उनके मष्तिष्क चक्षुओं को दुनिया द्रष्टव्य बनाना होता है. दिमाग के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करने की बजाय उसे कुंद करते हैं. तब भी जो बच्चे मौलिक चिंतन कर पाते हैं वे शिक्षा के चलते नहीं, इसके बावजूद. वैकल्पित और विद्रोह की धारायें भी मुख्यधारा से ही निकलती हैं. मनुष्य के चिंतन को निरंतर गुलाम बनाये रखना असंभव है. शिक्षक होने के नाते बंददिमाग की बीमारी फैलाने के सामाजिक अपराध का सहभागी हूं.

2 comments:

  1. अब सब का मुंह कैसे बंद कर लेंगे गुंडा राज है क्या ?

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  2. हम कहां किसी का मुंह बंद कर रहे हैं

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