Thursday, May 1, 2014

नारी विमर्श 2

एक मित्र की लोहिया के बलात्कार और वायदा खिलाफी के अलावा सभी संबंधों के औचित्य पर, लोहिया के कथन पर, मित्र सुमंत की पोस्ट पर कमेंटः

इस विषय पर फंसना नहीं चाहता बस सुमंत की एक बात पर (लोहिया भी पुरुष ही थे) टिप्पणी  करना चाहता हूं, मर्दवाद (पैट्रिआर्की) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है न ही ईश्वर या प्रकृति निर्मित. मर्दवाद एक विचारधारा है जिसके वर्चस्व की परिधि में उत्पीड़क और पीड़ित दोनों होते हैं. विचारधारा एक मिथ्याचेतना है जो एक विशिष्ट अवधारणा को सार्वभौमिक, स्वाभाविक, अंतिम सत्य के रूप में प्रक्षेपित करती है, सवाल-जवाब से परे. मैंने 1987 में एक शोधपत्र पप्रस्तुत, प्रकाशित किया, "Women's Question in Communal Ideology: A study into the ideologies of RSS and Jamt-e-Islami". मेरे पास प्रतिक्रिया पत्र जितने आये "dear Ms Mishra.... "  का संबोधन था. जवाब में मैं लिख देता था कि जन्म के संयोग से मैं पुरुष हूं. कहने का मतलब पुरुष भी नारीवादी दो सकते हैं और नारियां भी मर्दवादी. इसी लिए नारी-मुक्ति और मानव मुक्ति के लिए आवश्यक है रोजमर्रा की ज़िंदगी में कृत्यों और शब्दों से विचारधारा के वर्चस्व पर लगातार प्रहार. सिमन द बुआ से पूरी तरह सहमत हूं की लिंगाधारित भेदभाव की समाप्ति कू पूर्वशर्त आर्थिक आत्म निर्भरता है क्योंकि स्वतंत्र चुनाव के वास्तविक स्वतंत्र अनुबंध दो समान रूप से स्वतंत्र व्यक्तियों के ही बीच हो सकता है. और मार्क्स ने कहा है अर्थ ही मूल है. असमान व्यक्तियों के बीच स्वतंत्र चुनाव का अनुबंध उसी तरह का भुलावा और छलावा है जैसे मजदूर और पूंजीपति के बीच समान और स्वतंत्र अनुबंध. मजदूर दो तरह से स्वतंत्र है पूजीपति को "बाजार भाव " पर श्रम बेचने को या गले में फंदा लगाने को जिसके लिए वह पूर्ण स्वतंत्र है और जिसमें असफल होने पर मुकदमा चल सकता है. इसीलिए महिलाओं के लिए सबे जरूरी है आर्थिक आत्म निर्भरता जोे वाकी स्वतंत्रताओं का संघर्षों की बुनियाद है.

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