Wednesday, May 28, 2014

क्षणिकाएं 22 (431-440)



431
आयेगा ही एक नये सहर का वह मंजर
मुक्त होगी मानवता होगा वह अद्भुत प्रहर
मुक्त होंगे मनुवादी जड़ता से नारी-ओ-नर
रचेगी ही यह कन्या एक इतिहास इतर
जब तोड़ेगी यह सारी मर्दवादी वर्जनाएं
और रचेगी एक नए वेद की नई ऋचाएं
खुद होगी रचइता और पात्र नये वृत्तांत का
करेगी उद्घाटन इस अंधेरे युग के अंत का
पूर्वकथ्य है इसका नारी प्रज्ञा-ओ-दावेदारी
बौखला रहे हैं जिससे मर्दवाद के पंसारी
आयेगा ही वह सुंदर-स्वतंत्र नया विहान
मिटायेगी मनुवाद का नाम-ओ-निशान
साथ होगे रहनुमा-ए मजदूर किसान
भोग्या-पूज्या नहीं होगी एक मुकम्मल इंसान
यह कन्या कॉफी नहीं बनाएगी
इंकिलाब करेगी
सलाम
432
कौन है यह कन्या मगन गहन चिंतन में
करती बेटोक विचरण ख़यालों के उपवन में?
बनाकर अकेलेपन को सुखद एकांत
सोच रही है लिखने को नया वृतांत
रचने को एक नये् युग की कहानी
होगा नायक आमजन नहीं राजा रानी
होगा अंत जिसमें मर्दवादी वर्चस्व का
और थैलीशाही शोषण के सर्वस्व का
आयेगा ही एक सुंदर नया जमाना
गायेगे मिल सभी आज़ादी का तराना
(ईमि:4.05.2005)
433
कई बार सोचा लिखने को एक कविता
इस मनमोहक तस्वीर पर
आंखों में संचित तक़लीफ के समंदर
और चेहरे पर लिखी जुझारू तकरीर पर
 ऊबड़-खाबड़ रास्तोंं को जीतने के बुलंद इरादों पर
हासिल-ए-मंजिलात के आत्मजयी जज़्बातों पर
गगनचुंबी अरमानों की अलमस्त मुस्कान पर
हर बार हो जाता हूं मायूस यह सोचते हुए
कि काश मैं भाषाविद होता या भाषा ही समृद्ध होती
मनोरम तस्वीर की संपूर्म काव्य-अभिव्यक्ति केलिए
खत्म हो जाएगा जिस दिन शब्दों का अकाल
बुनूंगा इस तस्वीर पर जरूर एक शब्द जाल
(ईमिः02.05.2014)
434
नहीं लगायी थी आग उसने प्यार की तैयार फसल में
फेंका था सिर्फ एक तीली,  मुजरिम हैं जेठ गर्म हवाएं
नहीं बोया था उसने  बीज नफरत के
अपने आप उग आई  नफरत की फसल जंगल की तरह
उसने सींचा भर था खाली जमीन नस्ल-ए-आदम के लहू से
गुनहगार है धरती
कोटता जा रहा है बिना बोए  फसल-दर-फसल तबसे
कछार में गन्ने की पेड़ी की तरह
बस सींचता रहता है इसे यदा कदा
(ईमिः05.05.2014)
435
फेकू को बनारस फेंक देगा कच्छ की खाड़ी में
अंबानी की लक्कड़बाड़ी मे अदानी की फुलवाडी में
खींच लाएगा वहां से आवाम उसे, देगा हर अपराध का अंज़ाम उसे
बना देगा आवाम उसकी रेल , जगह है उसकी केवल जेल
(ईमिः07.05.2014)
436
सुबह सुबह दिला दी उस कमबख्त की यादें
याद आने लगी  तल्ख-ओ-अज़ीज सभी बातें
पड़ती हैं जब भी कमी अफ्साने में अल्फाज की
पता चलती है कीमत तब उसकी इम्दाद की
चाहिए जब बात पर बेबाक़-ओ-तल्ख़ तंक़ीद
सुनाई देती है वाह वाह या शर्म शर्म संगीत
लोग अभिव्यक्ति के खतरे क्यों नहीं उठाते
यह सुन लोग करते हैं उसके हस्र की बातें
होती है जब किसी द़ानिश की दरकार
दिखती है यहां तोते-भेड़ों की कतार
साथियों को याद करना भी है शायद स्वार्थ
अभूतपूर्व सुख, जो देता है परमार्थ
(ईमिः 09.05.2014)
437

 झुकता नहीं ये सर
हम समझते हैं हवा का रुख, नहीं देते पीठ मगर
हैं हम सबके सचमुच की आजादी के पक्षधर
गुलामी नहीं हो सकती किसी इंसान का हक़
जबरन करेंगे आज़ाद मनसा गुलामों को भरसक
हम  देते हैं दिशा समय के सावन को बांधते नहीं
साध्य का हुनर सिखाते हैं किसी को साधते नहीं
कहते नहीं ज़ुल्मत को जिया और सरसर को सबा
 करते मेहनतकश की ग़मख़ारी देते नहीं धोखा
है दुश्मनी हमारी साम्राज्यवादी ज़र के निज़ाम से
न कि उसके किसी टुच्चे-मुच्चे ज़रखरीद गुलाम से
मानता नहीं ज़र के ग़ुलाम को मुल्क का खुदा
झुकता नहीं ये सर हो जाये भले ही धड़ से ज़ुदा
लगा देगें खाकनशीनों को जगाने में उम्र सारी
हो जायें हाथ कलम भले शायर न बनेगा दरबारी
(ईमिः13.05.2014)
438
करोगे जितनी कोशिस तोड़ने की कलम हमारा
उतना ही होगा बुलंद इंक़िलाब का युगकारी नारा
(ईमिः13.05.2014)
439
कसा मुल्क की गर्दन पर फासीवाद का फंदा अगर
कत्ल हो जायेंगे संघर्ष-ओ-निर्माण के सभी स्वर
हो गया दुनियां में मुल्क जो एक बार बौना
आसानी से बन जायेगा साम्राज्यवाद का खिलौना
इसीलिए पहले ही तोड़ देना है इस खूनी पंजे को
तोड़ देगा वरना यह हर दिल-ओ-जिस्म और मुल्क को
(ईमिः14.05.2014)
440
आगे आगे देखिए अच्छे दिन के करामात
बन जाएगा एक-न-एक दिन भारत गुजरात
किये हैं खर्च जिनने इस छवि में हजारो करोड़
वसूली में उसकी लेंगे सारा मुल्क निचोड़
इतिहास है गवाह मानवता की तबाही का
देश बन जाये जब पर्याय किसी की वाहवाही का
जर्मनी में ही नहीं आयी थी फासीवाद की आंधी
इस मुल्क में भी हुई थी एक इंदिरा गांधी
इतिहास खुद को कभी दुहराता नहीं
प्रतिध्वनियों से लेकिन बाज आता नहीं
लग रही है यह प्रतिध्वनि बहुत भयावह
टकराकर हिमालय से लौट जायेगी वह
(ईमिः 16.05.2014)

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