Sunday, May 25, 2014

आत्म-मुग्ध तस्वीर पर

लिखना है एक कविता इस आत्म-मुग्ध तस्वीर पर
इसके अंदर छिपी अनंत संभावनाओं की तासीर पर
चाहा था इसने बचपन में करना वर्जनाओं से विद्रोह
तोड़ न पाई तब मगर समाजीकरण के संस्कारों का मोह
पड़ गयी थी पूर्वजों की परंपरा तब सोच पर भारी
बढ़ती रही स्वाभिमान से  आगे कभी हिम्मत न हारी
करती रही है योगदान नारी प्रज्ञा-दावेदारी के अभियान में
करके मानवता की सेवा जीते हुए ज़िंदगी सम्मान से
मानव चेतना का स्तर होता है विकास के चरण के अनुरूप
मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलता विकास का स्वरूप
अनंत को नापती ये आंखें और आत्माश्वस्त मुस्कान
देती हैं संकेत भरने की ऊंची एक नई इंक़िलाबी उड़ान
छिपी है इसकी भावप्रवण मुद्रा में एक नई अंतर्दरृष्टि
करेगी मानव समाज में जो समानुभूति की वृष्टि.
(ईमिः 25.05.2014)

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