Saturday, May 10, 2014

शिक्षा और ज्ञान 3

 एक सज्जन ने एक पोस्ट पर दुखी होकर कहा कि विमर्श में तटस्थता की जगह अपने गिरोह का एजेंडा लेकर आ जाते हैं. उनसे मैंने कहाः

Yogesh Pratap Singhविमर्श तो पहले ही आपने विकृत कर दिया, जो भी विवेकशील व्यक्ति होता है उसका दुनिया को देखने-समझने-बदलने अपना एक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक तथा बौद्धिक सरोकारो के पर्ति वैचारिक प्रतिबद्धता होेती है. वैचारिक प्रतिबद्धता गहन अध्ययन-अनुभव-चिंतन-मनन का परणाम होता है गिरोहबाजी का नहीं. गिरोहबाजी वैचारिक रूप से दिवालिए, बिनपेदे के लोटे करते हैं जो तर्कशीलता के अभाव में निजी आक्षेप, फतवेबाजी, भेंड़गीरी और तोतागीरी करते हैं.जैसे कला के लिए कला एक कलात्मक अपराध है वैसे बहस के लिए बहस एक विमर्शगत अपराध है. कई पोंगापंथी मार्क्स के भूत से ऐसे आक्रांत रहते हैं कि न्याय और मानवाधिकार की कोई ङी बात चल रही हो वे मार्क्स-मार्क्स अभुआने लगते हैं. आइए स्वस्थ-सार्थक विमर्श की परंपरा डालें.

Yogesh Pratap Singh  इस विषय पर मैंने 1987 में एक लेख लिखा था और छिटपुट कभी टेक्स्ट की तो कभी संदर्भ या फुटनोट को तौर पर लिखता-बोलता रहता हूं. फिर कभी विस्तार से, अभी वास्तविक दुनियां में कई काम है, लेकिन आभासी दुनियां के मायाजाल के मोह से भी मोह है.

पूर्वाग्रह या दुराग्रह और विवेक या सद्बुद्धि परस्पर विरोधी हैं. कई बार हम संस्कारों के माध्यम से विरासत में मिली नैतिकता और जड़ता हमें स्वयंसिद्धि लगती हैं और बिना सवाल किये हम उन्हें अपनी जीवनपद्धति का अभिन्न अंग मान लेते हैं. संस्कारों की बात करते बी लोग आगबबूला हो जाते हैं. यह एक विंदु है जहां हम अनजाने पूर्वाग्रहित हो जाते हैं. ज्ञान की कुंजी है सवाल. किसी भी और हर बात पर सवाल, शुरआत अपनी सोच के दायरे से हो तो बौद्धिक विकास की सही दिशा तय करने में आसानी होती है. ज्ञान के लिए सवालों की अनवरत प्रक्रिया में नास्तिकता का खतरा भी है, जो एक तरह से बरदान है क्योंकि यह इंसान को भूत और भगवान से के भय से मुक्त करके उसे निर्भीक बना देती है. ज्ञानोंमुख शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ  learning नहीं unlearning भी होना चाहिए जो कि मुश्किल काम है. लेकिन आसान काम तो कोई भी कर सकता है. अगर आप किसी भी और हर बात पर सवाल करेंगे तो लजिमी है, पूर्वजों के सम्मान में कर्तव्य की तरह ढोये जा रहे संस्कारों यानि विरासती नैतिकता पर भी सवाल करेंगे और अगर आदिम से लगें तो उन्हें खारिज कर उनकी जगह  जगह स्वविवेक से अर्जित तर्कसम्मत नैतिकता से भरेंगे. अपने कुछ अनुभव कभी शेयर करूंगा. आपने शायद नोटिस किया होगा, जब भी मैं शोषित-वंचित या सांप्रदायिकता या कोई भी बात किसी प्रत्यक्ष अन्याय के विरुद्ध कहता हूं तो बातों को तर्क से खारिज करने की बजाय, कई संघी (निष्कच्छ और सकक्ष दोनों) प्रवृत्ति के लोग या तो निराधार निजी आक्षेप लगायेंगे या मार्क्सवाद का मर्शिया पढ़ने लगते है या अभुआने लगते हैं. यह दुराग्रह है.

Prathak Batohi  मार्क्सवादी सिद्धांत आस्था की तरह मोम की गुड़िया नहीं है जो हर बात पर आहत हो जाती हो. मार्क्सवाद तथ्यों-तर्कों के आधार पर दुनिया को समझझने-बदलने का विज्ञान और विचारधारा है.मित्र, बहस से कोई इंकार नहीं करता. मुझे तो चंद स्टूडेंट्स सिर्फ इसीलिए बहुत प्यार से याद हैं जिन्होंने कभी अरुचिकर सवाल किए. गाली-गलौच और निराधार फतवेबाजी बहस नहीं होती विमर्श को विकृत करने का मंसूबा होता है. .

2 comments: