मित्र, सहमत हूं, लेफ्ट सिर्फ चुनावी कम्युनिस्ट पार्टियां नहीं हैं, बहुमत उसके बाहर है. मैंने कई लेखों में लिखा है कि यदि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, कॉमिंटर्न की निर्देशित पार्टी न होकर भारतीय वस्तुस्थिति के सही विश्लेषण के हिसाब से कार्यक्रम बनाती तो शायद अंबेडकर उसमें ही होते. मार्क्स जब यूरोपीय पूंजीवाद के बारे में लिख रहे थे तो वहां नवजागरण और प्रबोधन आंदोनों के चलते जन्म के आधार पर समाजविभाजन खत्म हो चुका था. भारत में कबीर से शुरू हुआ नवजागरण तमाम ऐतिहासिक कारणों से अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंच सका. चेतना के विकास के स्तर के अनुरूप हमने सोचा कि हम तो संपूर्ण समानता की बात कर रहे हैं जिसमें जातीय और जेंडर समता भी शामिल है. मैं कई जगह लिख चुका हूं कि यह हमारी (कम्युनिस्टों की) गलती थी. जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध हमीं लड़ रहे थे लेकिन इसे प्राथमिक मुद्दा नहीं बनाए. रोहित की शहादत ने हमें गलती सुधारने का मौका दिया और जयभीम-लाल सलाम नारों की एकता और जेयनयू के आंदोलन ने उम्मीद जगाई लेकिन इस एकता को तोड़ने वाली शक्तियां भी सक्रिय हो गयीं. मैं ब्रह्मा की बेहूदगी से यदि जन्मना ब्राह्मण पैदा हो गया तो क्या मुझे वैज्ञानिक सोच विकसित करने और ब्राह्मणवाद की विद्रूपताओं को समझने का अधिकार नहीं है? शुरुआती दौर में कम्युनिस्ट नेता ज्यादातर ब्राह्मण हुए क्योंकि वही तो इतिहास की वैज्ञानिक समझ हासिल कर सकते हैं जिनको बौद्धिक संसाधनों की सुलभता होगी. बौद्धिक संसाधनों की सुलभता की सार्वभौमिकता से हालात बदलने लगे लेकिन अस्मिता की राजनीति से उसमें बिखराव आने लगा. वाम और अस्मितावादी ताकतों को खुले दिमाग से साथ बैठकर विमर्श की जरूरत है एक दूसरे की आलोचना-प्रत्यालोचना के साथ. जयभीम-लालसलाम की एकता से फासीवाद बौखला गया और तोड़ने की जुगाड़ में लग गया, उसे कुछ हद तक सफलता भी मिल रही है. जेयनयू प्रतिरोध का पहला और सबसे मजबूत मोर्टा है, यह टूटा तो और मोर्चे तोड़ना आसान हो जाएगा. मैं पहले दशक का जेयनयूआइट होने के नाते इस एकता को बरकरार रखने का पक्षधर हूं. जेयनयू पर हिंदी अंग्रेजी के अपने कई लेखों में मैंने इसे रेखांकित किया है. फिर मैं जेयनयू के युवा मित्रों से अपील करता हूं कि इस गढ़ की रक्षा करें.
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