Saturday, January 21, 2017

क्षणिकाएं 61 (821-30)

821
अनंत विचार
काश खुद-ब-खुद लिखा जाते
मन में आते अनंत विचार
लग गया होता अब तक
ग्रंथों का विशालकाय अंबार
हा हा
(ईमि: 12.10.2016)
822

I am alive for my longing to live to create
I am alive for my dreams
Dreams to change the
ugly world into a beautiful planet
A planet without miseries, hunger and starvation
A planet that knows no bloodshed, only humane empathy
A planet without fear
A planet where
kaleidoscopic sky of ideas flow freely
A planet free from jingoism and 'national' hatred
A planet that knows no alienation only creation
A planet free from inhuman exploitation and subjugation
A planet that knows no wage slavery only praxis
A planet free from orthodoxy
and the burden of the corpses of the dead generations
A planet that knows no competition only human cooperation

I am alive because I dream
I am alive to fulfill the dream of emancipation
going on for the ages
I am alive because of my conviction in the theory change
I am alive to live meaningfully
As life has no extra-living end
Living a quality life is an end in itself
Rest follow as inadvertent consequences.
(ha ha, don't know its a prose or poetry -- the product of pen's vagabondage )
(Ish/13.10.2016)
823
वक़्त का गतिविज्ञान है एक सास्वत सत्य
काश न होते न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के कमबख़्त नियम
दुनिया कहां से कहां पहुंच जाती
अन्याय के रूप ही न बदलते
विलुप्त हो गया होता शब्दकोश से
अन्याय नाम का शब्द
अवरोधक न होतीं यदि
यथास्थिति की अधोगामी प्रतिक्रिया
विप्लवी अग्रगामी क्रिया की
नहीं बदलता गुलामी का महज आकार-प्रकार
हो गया होता अबतक
मानव मुक्ति का सपना साकार
मगर कुछ भी नहीं स्थाई परिवर्तन के सिवा
अबकी होगी जब क्रिया जंग-ए-आज़ादी के परचम की
नाकाम हो जाएगी प्रतिक्रियावाद की सब प्रतिक्रिया
तब पढ़ा जाएगा
आकार-प्रकार का ही गुलामी के सार का मर्शिया
और वक्त बढ़ता जाएगा.
(ईमि: 14.10.2014)
824
हमारा वक्त इतिहास में खास तवज्जो पाएगा
गोहत्या की अफवाह पर कत्ल होता है इंसान
कातिल को दिया जाता है तिरंगे का सम्मान
(ईमि:14.10.2016)
825
ऐसा ही रहा है दस्तूर निजाम-ए-मजहब का
खुदा पापी कह कर फेंकता है जिसे अपने निजाम से
करता है वह इंसान इबादत उसी खुदा का
इसीलिए नकारता हूं खुदाओं की हस्ती
क्योंकि ढाते हैं वे इंसानियत पर
भक्तिभाव का जुल्म
(ईमिः 01.11.2016)
826
बनावटी द्वंद्व जिस्म-ओ-जज़्बात का
है एक नमूना मर्दवादी खुराफात का
ताल्लुकात वही है जिस्म-ओ-जज्बात में
है जो विवेक और अंतरात्मा के संवाद में
(ईमि:01.11.2016)
827
जज्बातों की उड़ान पर जकड़न है वफादारी
उंमुक्त समानुभूति है मुहब्बत की समझदारी
छिपा है वफा शब्द में गुलामी का एहसास
जज्बातों को देता है सुनहरे पिंजड़े का आभास
828
एक शहंशाह बहुत समझदार था
वह जानता था कि जनता होती है भीड़
चलती है वह भेड़चाल
समझती नहीं वह
राज-काजी फरेब का जटिल जाल
वह जानता था कि कितना अच्छा होता
काश! वह परमार्थपूर्ण, सत्यवादी, संत, महात्मा होता
और बन जाता सद्-गुण की नई परिभाषा

लेकिन वह यह भी जानता था
कि नहीं है सियासत किसी ऋषि-मुनि का काम
देना पड़ता है सत्ता के लिए
कितने ही दुष्कर्मों को अंज़ाम
काश चलता होता
सत्य-अहिंसा से जम्हूरी सियासत का काम

करना पड़े सियासत में कितना भी छल फरेब
खुले न मगर किसी भी चाल का भेद
वह एक भी ऐसा शब्द नहीं बोलता
जो करुणा से हो न ओत-प्रोत
दिखता है वह ऐसे
हो जैसे मानवीय संवेदनाओं का श्रोत

करता वह शहंशाह रियाया से निरंतर संवाद
बताता है उन्हें गाहे-बगाहे अपने मन की बात
कभी मन-ही-मन शहीदों के साथ दिवाली मनाता
खेलता है होली सरहद पर सैनिकों के साथ
मलाल है उसे इस बात का
कर न सका सम्मान सैनिक बनने के ख़ाब का

मचा था जब सिक्कों की गफलत से मुल्क में कोलाहल
लगा उसे बह रहा है देशभक्ति का हलाहल

अधूरी
829
कलम की लंबी आवारागी, खुर्शीद होता तो पूछता, "अबे यह कविता है कि वक्तव्य?" मैं कहता मैं तो वक्तव्य देता हूं कभी गद्य में तो कभी पद्य में.
अक़्लमंद शहंशाह
ईश मिश्र
कलम की लंबी आवारागी, खुर्शीद होता तो पूछता, "अबे यह कविता है कि वक्तव्य?" मैं कहता मैं तो वक्तव्य देता हूं कभी गद्य में तो कभी पद्य में.

सुनाता हूं आज एक पुरानी कहानी
बचपन में सुना था दादी की जुबानी
वैसे तो है यह एक शहंशाह का फसाना
लगता है हो जैसे हर हुकूमत का तराना

एक शहंशाह बहुत अक़्लमंद था
हुक़ूमत की तासीर का पूरा पाबंद था
वह जानता था कि जनता भीड़ होती है
दिमाग से नहीं दिल से सोचती है
मुखौटे को असली चेहरा मान लेती है
और अभिनय को सच समझती है
नहीं दिखता उसे सियासत का मकड़जाल
सोचे-समझे बिना चलती है भेड़चाल
करती है मुल्तवी विवेक
होती उसमें आस्था का अतिरेक


कुछ लोग ऐसे भी होते हैं
दिल से नहीं दिमाग से सोचते हैं
शहंशाह का छल-फरेब भांप लेते हैं
मुखौटे के अंदर शैतनी शकल देख लेते हैं
लेकिन जम्हूरियत की बुनियाद है संख्याबल
बेचारगी को अभिशप्त है दानिशमंदों का दल


वह जानता था
चमत्कारों लोगों की अटल आस्था की बात
संस्कारों में मिली भक्तिभाव की सौगात
अवतारों में अटूट आस्था और बुतपरस्ती के जज़्बात
चमत्कार की चाहत और मजहबी अंधविश्वास
वह यह भी जानता था
भक्तिभाव है रोग असाध्य
बना देता है भक्त को मानसिक विकलांग
आसान है रोगियों को रखना भयाक्रांत
भय आजमाया तरीका है रखने का लोगों को वफादार
सत्ता की सफलता है सियासी सदाचार


वह जानता था कि कितना अच्छा होता
यदि वह सचमुच में वही होता
है जिसका वह सतत कुशल अभिनय करता
सचमुच का सत्यवादी, वायदा फरोश और धर्मात्मा
प्रजा के सुख से सुखी और दुःख से दुःखी होता
और बन जाता सद्-गुण की नई परिभाषा


लेकिन राजकाज नहीं है काम सरल
पीना पड़ता है निर्दयता का गरल
टिकता है सत्ता का भव्य महल
युद्धोंमाद और धर्मोंमाद के खंभो पर
वैसे भी भय के लिए जरूरी है कुछ कत्ल-ए-आम
खूबसूरती से देता था वह इसे अंजाम
वह जानता था सियासत का मूलमंत्र
चूकता नहीं था करने से भीषणतम षड़्यंत्र
नहीं है सियासत किसी ऋषि-मुनि का काम
हुकूमत नहीं है तपस्या या ध्यान-प्राणायाम
सदाचार के शौकीनों के सियासत न करनी चाहिए
हिमालय की किसी गुफा में धूमी रमानी चाहिए
देना पड़ता है सत्ता के लिए अंतरात्मा का बलिदान
अलग होता है आमजन से सियासतदान


नहीं चलता सत्य-अहिंसा से सियासत का काम
करने पड़ते हैं शहंशाहों को साज़िश-ओ-कत्लेआम
जानता था यह बात वह अक़्लमंद शहंशाह
बहुत ही बीहड़ होती सियासी कामयाबी की राह
है अगर लोगों पर एकछत्र हुकूमत की चाह
त्यागना पड़ता है धर्म और नैतिकता की राह
लगाता लगवाता था भक्तों की बस्ती में आग
अलापता था बीररस में धर्म पर खतरे का राग
वह अक़्लमंद शहंशाह जानता था यह बात
मोम से भी नाज़ुक होते मजहबी जज़्बात
मजहब के नाम पर लोगों को लड़ाता था
उनकी अदावत का फायदा उठाता था
उन्हें उल्लू बना अपना उल्लू सीधा करता था


जानता था वह सियासत का मूलमंत्र
धोखा-धड़ी से ही चलता है शासनतंत्र
करना पड़े सियासत में कितना भी छल फरेब
खुले न मगर किसी भी चाल का भेद
वह लोगों के मन की जासूसी करता
अपने मन की बात कभी न खोलता
वह एक भी ऐसा शब्द नहीं बोलता
सदासयता से जो लबरेज न होता
लगता था वह बुद्ध सा करुणा से ओत-प्रोत
दिखता वह मानवीय संवेदनाओं का श्रोत
जारी करता वह ऐसे अजूबे फरमान
अफरा-तफरी में फंस जाता इंसान
वह लखटकिया रूमाल से उनके आंसू पोंछता
दिखाने एकजुटता में घड़ा भर के आंसू बहाता
बताता उनकी बेबसी को देश के लिए त्याग
भक्तगण अलापते थे देशभक्ति का राग


करता था वह रियाया से निरंतर संवाद
बताता है उन्हें गाहे-बगाहे अपने मन की बात
कभी मन-ही-मन शहीदों के साथ दिवाली मनाता
तो कभी शहीद न हो पाने का पश्चाताप करता
खेलता है होली सरहद पर सैनिकों के साथ
गोरक्षकों से करवाता अमन-चैन में उत्पात


मचा था जब सिक्कों की गफलत से मुल्क में कोलाहल
लगा उसे बह रहा है देशभक्ति का हलाहल
वह जानता है लोग भीड़ होते हैं
उल्लू बनने को अधीर होते हैं
हो जाते हैं आसमान के वायदे पर मुरीद
लुटाकर धरती हो जाते शहंशाह के ज़रखरीद


वह जानता है कि लोग प्यार से झुकें तो अच्छा है
मगर प्यार का भरोसा बहुत कच्चा है
भय का तरीका है काबिल-ए-एतबार
कभी नहीं खाली जाता इसका वार
कैलीगुला था एक ऐसा ही पिचाशी शहंशाह
थी जिसकी लोगों को भयाक्रांत करने की चाह
चाहता था वह लोग उससे डरते रहें
बदले में भले ही नफरत करें


वह शहंशाह बहुत समझदार था
ज़ुल्मतों की तारीख़ में सुर्खियों का हक़दार था
किया उसने बस छल-कपट जीवन भर
मिलते रहे जिसके उसे सुअवसर
देता अपनी साज़िशों को खूबसूरत अंजाम
भक्तिभाव से देखता उसे आवाम


छोड़ता नए-नए शगूफे जनकल्याण के
धरती को स्वर्ग बनाने के प्रयाण के
लोग शगूफों को सच समझ लेते हैं
मगर कुछ लोग हकीकत जान लेते हैं
शहंशाह की नीयत पर शक जाहिर करते हैं
जनता में विद्रोह के बीज बोने लगते हैं
ऐसे देशद्रोही जीने का हक़ खो देते हैं
शहंशाह कम कर देता है धरती का भार
फर्जी मुढभेड़ में देता इन्हें मार
हो अगर उन्हे मारने में असुविधा
ईज़ाद हुई उनके गायब होने की विधा


वह शहंशाह बहुत समझदार था
आम जन के लिए चमत्कार था
मगर वह था बेखबर एक बात से
नफ़रत का घड़ा जब जाता है भर
ज़ुल्मत का भय हो जाता बेअसर
करती है जनता तब विद्रोह विकट
भय डर जाती है न आती निकट


हर तानाशाह की ही तरह हुआ इसका भी अंत
सत्ता के मद में करता रहा क्रूरता अनंत
दिख गया लोगों को छिपा चेहरा मुखौटे में
घेर लिया उसको उसके ही आहाते में
देखा जब कारिंदों ने ऐसा जनसैलाब
सबके सब गए दुम दबाकर भाग
पूछा जनता ने जब उसके मन की बात
चुप-चाप खाता रहा लोगों के घूसा-लात


दादी ने किस्सा यहीं खत्म कर दिया
शहंशाह के अंतिम अंजाम पर परदा डाल दिया
फूटता है पाप का घड़ा भर जाने पर
मिट जाता है ज़ुल्म बढ़ जाने पर
(ईमि: 29.11.2016)
830
2012 की एक पोस्ट पर इलाहाबाद के मेरे सीनियर वीपी संह जी ने कमेंट किया कि इश्क में भी इंक़िलाब, वह पोस्ट दिखा गई और कलम आवारा हो गया.
Virendra Pratap Singh
सही साबाशी दी है इश्क में इंकिलाब की
प्रेम ही है गाढ़ा-माटी इंक़िलाब के बुनियाद की
इंकिलाब नहीं है संसद का चुनाव
इंकिलाब है दुनिया बदलने का भाव
बदलाव नहीं महज मसला-ए-निज़ाम में
बल्कि ज़िंदगी के हर मुमकिन मुकाम में
आता है जब समाज में इंकिलाब
बदल जाता है आशिकी का मिज़ाज
होता नहीं कोई हुस्न के जलवे का पिजड़ा
न ही किसी धनुर्धर की तीरअंदाजी का जलवा
होती है बुनियाद विचारों की साझेधारी
हमराह-हममंजिल होती है आशिक जोड़ी
(ईमि:04.12.2016)

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