Saturday, January 7, 2017

मार्क्सवाद 35 (एलीनेसन)

"कभी कभी काम से घर लौटता हूँ तो लगता है कि कांजी हाउस या बैल बाजार से न कटा न बिका बैल अपने खूंटे पर लौट आया हो...
जबकि दिन भर में कई बार कट भी चुका होता हूँ और बिक भी चुका होता हूँ..." अनुभूति की सुंदर अभिव्यक्ति, Bodhi Sattva जी. दोस्तोस्की की याद दिलाती है। दर-असल, इंसानों की खरीद-फरोख़्त सभ्यता (वर्ग समाज) के उद्भव के साथ हो गयी थी. सतयुग में तो खुली बाजार थी जहां कोई खुद और बीबी-बच्चों को भी माल के मालिक की तरह बेच सकता था। पूंजीवाद में हर कोई 'एलीनेटेड' श्रम को यानि बिकने को अभिशप्त है। लेकिन हमें निरंतर इस 'एलीनेशन' को कम करने और अंततः खत्म करने की दिशा में प्रयासरत रहना चाहिए। एलीनेसन पूंजीवाद (किसी भी वर्ग समाज) का नीतिगत दोष नहीं है जिसे ठीक किया जा सके, यह इसका अभिन्न अंग है। इससे मुक्ति वर्गहीन समाज में ही संभव है। फिलहाल तो दुनियां में वर्ग संघर्ष की ताकतें बहुत कमजोर दिख रही हैं, लेकिन मैं बार-बार कहता रहता हूं कि इतिहास की गाड़ी में रिवर्स गीयर नहीं होता, कभी कभी यू टर्न ले लेती है। हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है। सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के साथ साथ जल्दी ही इस यू टर्न की दिशा बदलेगी। यह खुशफहमी ही सही, बाकी जिंदगी इसी खुशफहमी में सामाजिक चेतना के जनवादीकरण में यथासामर्थ्य योगदान (या योगदान के भ्रम) के साथ जीते जाना है। बाकी अगले जीवन में, हा हा।

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