Tuesday, January 31, 2017

नवब्राह्मणवाद 9

Santosh Kumar Jha बात दिलीपवादी विमर्श का नहीं है. दिलीप मंडल 'इंटेलीजेंट' लेखक हैं फेसबुक पर उनके लाखों अनुयायी हैं जिनका भक्तिभाव मोदी के भक्तों से कम नहीं है. रोहित वेमुला की शहादत से निकले जयभीम-लालसलाम नारों की प्रतीकात्मक एकता से ब्राह्मणवाद और नवब्राह्मणवाद (दिलीप मंडल फेसबुक पर जिसके प्रतीक बन गए हैं) दोनों बौखला गए हैं. दिलीप मंडली इस एकता को तोड़ने पर तुली है. दिलीप मंडल जैसे लोग आज फासीवाद के विरुद्ध आंदोलन में वही भूमिका अदा कर रहे हैं जो उपनिवेश विरोधी आंदोलन में आरयसयस और जमाते इस्लामी कर रहे थे -- युवकों के एक तपके को स्वतंत्रता आंदोलन से दूर करके अतीत के किसी अमूर्त अन्याय के खिलाफ संघर्ष के लिए संगठित करके. दिलीप का कहना है ब्राह्मण ब्राह्मणों के ही मुद्दे उठाए यानि ब्राह्मणवाद को मजबूत करे. नंदिनी सुंदर, बेला भाटिया, महाश्वेता देवी, विनायक सेन आदि जिन पर संघी ब्रिगेड और राज्य का गाज गिर रहा है उनके हिसाब से बथानी टोला आदि के नरसंहारियों की कोटि में आते हैं. वे खुद (फेसबुक के अलावा) कभी कोई संघर्ष नहीं करेंगे और जन्मना सवर्ण क्रांतिकारियों के जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष को 'पापी' वामपंथियों की भर्त्सना के नाम पर तोड़ने की कोशिस करेंगे. शनिवार को प्रेसक्लब में कॉरपोरेटी मीडिया की लंबी-लंबी गाड़ियों में चलने वाले कुछ दिलीप भक्तों से बहस हो रही थी, जिन्होंने स्वीकार किया कि उन्होने नौकरी के संघर्ष के अलावा जीवन में कोई और संघर्ष नहीं किया लेकिन नंदिनी सुंदर जैसे लोग इस लिए संघर्ष कर रही हैं कि संघर्षों के अनुभव पर किताब लिखकर रॉयल्टी और पुरस्कार पा सकें. अजीब मूर्खतापूर्ण तर्क है, अंबेडकर की मूर्ति की पूजा करेंगे और अंबेडकर के पढ़ने-लिखने के सिद्धांत को ध्वस्त करेंगे. अंबेडकर मुक्ति के लिए पढ़ने-लिखने को प्राथमिक मानते थे. अरे भाई आपको किसने रोका है पढ़ने-लिखने और किताब से रॉयल्टी कमाने पर? लेकिन संघर्ष करेंगे नहीं तो उस पर लिखेंगे क्या? इन नवब्राह्मणवादियों की दुश्मनी ब्रह्मणवाद या भूमंडलीय साम्रज्यवाद से नहीं, वामपंथ से है. इसीलिए इनको एक्सपोज करना जरूरी है. महाश्वेता देवी के आदिवासी लेखन पर दिलीप की आपत्ति पर मुझे 1987 में सांप्रदायिका और नारी पर लिखे अपने एक शोधपत्र पर प्रतिक्रियोओं की याद आती है जिसमें ज्यादातर ने मुझे 'मिस मिश्रा' संबोधित किया था. भोगा हुआ यथार्थ निश्चित ज्यादा प्रमाणिक होता है लेकिन बिना भोगे भी पीड़ा को आत्मसात किया जा सकता है.

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