Gulshan Kumar Ajmani बिल्कुल सहमत हूं, मार्क्स ने भी पार्टी की आवश्यकता पर जोर दिया था और यह कि हर देश के मजदूर अपनी स्थानीय परिस्थियों और प्रमुख तथा गौड़ अंतरविरोधों के अनुसार, अपने शासक वर्गों के विरुद्ध संघर्ष की नीति-रणनीति तय करेंगे. मार्क्सवादी सिद्धांत के आधार पर पहली क्रांति अविकास और विश्युवयुद्ध की तबाही के हालात में हुई. उस खास परिस्थिति में लेनिन और उनके कॉमरेड, जैसा कि बहादुर क्रांतिकारी रोज़ा लक्ज़ंबर्ग ने बोलसेविकों की तारीफ करते हुए कहा था कि इन विषम परिस्थितियों में जो कुछ बॉलसेविकों ने किया वह प्रशंसनीय है और इन विकट परिस्थितियों में उनसे किसी चमत्कार की उम्मीद यानि एक वांछनीय समाजवादी जनतंत्र (सर्वहारा ताना शाही) की स्थापना करना चमत्कार होगा. लेकिन उन्होंने आगाह किया था कि इन विकट परिस्थियों में अपनाई गई नीति-रणनीति को अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा क्रांति के मॉडल के रूप में नहीं करना चाहिए. यह भी कहा था कि सर्वहारा की तानाशाही वर्ग की तनाशाही होनी चाहिए न कि उनके नाम पर किसी अल्पमत समूह की तानाशाही नहीं. कोई भी पार्टी पार्टीलाइन जैसी मार्क्सवादविरोधी अवधारणा और अपने इतिहास पर आलोचनात्मक विमर्श के लिए कोई पार्टी राजी नहीं है. मार्क्स ने यह भी लिखा है कि जनता के कार्यक्रम से अलग कम्युनिस्ट पार्टी का कोई कार्यक्रम नहीं होता. पिछले 5 दशक में विचारधारा के प्रसार से सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के नाम पर चुनाव में सिरकत के सिद्धांत के बाद अन्य संसदीय पार्टियों और कम्युनिस्ट पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है तथा पिछले तीन दशकों दशकों में याद नहीं आ रहा कि कम्युनिस्ट पार्टियों ने राष्ट्रीय स्तर पर कोई जनांदोलन किया हो. सभी संसदीय पार्टियों का केंद्रीय नेतृत्व जनाधारविहीन रहा है. तेलंगाना की चिंगारी की एक झलक नक्सलबाड़ी में दिखी लेकिन सीपीआई(यमयल) के गठन के 3 साल बाद से ही विघटन शुरू हो गया और आग बनने के पहले ही वह चिंगारी टुकड़े-टुकड़े हो बिखरना शुरू हो गई. यह कमेंट लंबा हो गया मैं समाजवादी विचारों के इतिहास पर लेखों की एक श्रृंखला पर विचार कर रहा हूं, शायद एक-एक कर लिखा जाए. कॉम. इसे किसी पार्टी की आलोचना न समझें, यह आत्मालोचना है. हमलोगों को झंडा-दुकान के झगड़े से ऊपर उठकर मिलकर विचार करने की जरूरत है कि नवउदारवादी फासीवाद की विकट स्थितियों में किस तरह सामाजिक चेतना का जनवादीकरण किया जाए और संघर्ष की क्या रणनीतियां अपनाई जाएं. पूंजीवाद आर्थिक संकट के साथ सिद्धांत के संकट से भी गुजर रहा है तो उसका एकमात्र विकल्प समाजवाद राजनैतिक संकट के साथ सिद्धांत के संकट से भी गुजर रहा है. अपने को मार्क्सवादी समझने वाले संगठनों और व्यक्तियों को साथ बैठकर वैचारिक मंथन की जरूरत है, जेयनयू आंदोलन ने मौका दिया था, लेकिन हमने खो दिया, अब हमें नए मौके बनाने हैं. आज के हालात में यह जनांदोलनों के माध्यम से ही किया जा सकता है.
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