Saturday, January 28, 2017

बेतरतीब 14 (गुजरात)

कल जल्दी (10 बजे) सो गया और जबसे याद है 4-5 घंटे से अधिक नहीं सो पाता और एक तरह से यह वरदान रहा है कि सुबह जब सब सो रहे होते हैं तो मैं कुछ पढ़ाई-लिखाई कर लेता हूं. स्कूल में इस समय होमवर्क कर लेता था. लेकिन कभी-कभी वरदान अभिशाप बन जाता है यदि दिमाग की बजाय दिल सोचने लगता है और यदि कोई दुखद याद आ जाती है तो एकांत में मन रोने लगता है. आज 3 बजे उठ गया. 1987 का कम्युनिस्ट आंदोलन में संसदीय भटकाव पर अंग्रजी में एक लेख लिखा था जिसे मैंने कुछ महीने पहले कम्यूटर पर टाइप करवा लिया और सोचा आज उसका प्रूफ पढ़कर बीस साल बाद के हालात के संदर्भ में अपग्रेड करना शुरू करूंगा. पहली चाय के साथ फेसबुक खोल लिया और जेयनयू से "गायब" छात्र नजीब के बदायूं घर पर दिल्ली पुलिस के छापे की खबर दिख गयी. 2002 मार्च में गुजरात यात्रा की यादें कचोटने लगीं. 15 साल पहले गोधरा कैंप में मिली बिलकिस बानो की शकल आंखों के सामने घूमने लगी जिसे उसी के गांव के लोग सामूहिक बलात्कार के बाद मरा समझ छोड़ दिए थे. उसके बच्चे को उसी के सामने मार डाला था. उसके साथ की और औरतों के साथ भी बलात्कार कर मार डाला था जो वाकई मर गयीं और सबकी कहानी बताने के लिए केवल वही बची थी. हम किस युग में जी रहे हैं? किस गौरवशाली संस्कृति पर हमें गर्व होना चाहिए? उस यात्रा की बाकी बातें याद आने लगी और मन बेचैनी से छटपटा रहा है. क्या मनुष्य वाकई अन्य जीवों से श्रेष्ठतर है? वापसी में राजधानी य़क्सप्रेस की जिस कैबिन में हमारी टीम के 3 सदस्य (मैं, पत्रकार राजकुमार शर्मा, बचपन बचाओ आंदोलन के राजीव भारद्वाज) के अलावा 3 गुजराती थे, उनमें एक सीबीआई के छोटे अधिकारी और एक युवा शॉफ्टवेयर इंजीनियर था. वह युवा इंजीनियर बहुत गर्व से बताने लगा कि किस तरह आरयसयस के यनजीओज के जरिए भूकंप राहत के पैसों से बचत करके साल भर से तलवार-त्रिशूल बांटे जा रहे थे और गैस सिलिंडर तथा बारूद का इंतजाम किया जा रहा था. बाकी सहयात्रियों की उसे मौन सहमति प्राप्त थी. मेरा नाम ईश मिश्र की बजाय इर्शाद अहमद होता तो बहस में वे मुझे अगर लिंच न करते तो अधमरा जरूर कर देते, हमारे साथी हमें न बोलने की नेक सलाह दे रहे थे और अंततः बेबसी में ज्यादातर समय मैं दरवाजे के पास सिगरेट पीते हुए बिताया. क्योंकि गुंडे और कुत्ते झुंड में शेर हो जाते हैं. वह युवा इंजीनियर सर सर करते हुए मुझसे बहुत "सम्मान" से पेश आ रहा था. तीसरे गुजराती ने कहा "सर आप जानते नहीं शहर (गोधरा) के उस हिस्से (मुस्लिम बहुल इलाके) में रोज कितनी गायें कटती हैं?" मैंने कहा मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता लेकिन अमेरिका और यूरोप में तो गोमांस नियमित भोजन है, तुम्हारे आका उनकी अभ्यर्थना करते रहते हैं. मैंने युवा बजरंगी से जब यह पूछा कि 10-12-13 साल की लड़कियों के साथ सामहिक बलात्कार में कौन सी बहादुरी है तो उसका हंसते हुए जवाब आज भी मेरे कानों में गूंजता रहता है. "सर जब ऊपर भेजना ही है तो संतुष्ट करके भेजो". मैं छटपटाहट में उठकर बाहर चला गया. सीबीआई वाले महोदय ने यह जानने के बाद कि मैं आज़मगढ़ का हूं, आपके जिलें में कट्टे के अनेक कारखाने मुसलमान चलाते हैं. लौट के सोचा इस पर एक कहानी लिखूंगा, लेकिन जब भी लिखने बैठा दिमाग की बजाय दिल सोचने लगता और मन रोने लगता. एक बार 3-4 पेज लिखा भी, वह कागजों में कहीं खो गया. फिर कभी शायद लिखूं. आज की सुबह 15 साल पुरानी गुजरात यात्रा की यादों ने खा लिया.

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