मार्क्स ने भी कहा है कि सर्वहारा अपने को पार्टी में ही संगठित कर सकता है, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता मार्क्स पढ़ना बंद कर दिए हैं और अन्य संसदीय पार्टियों की तरह चुनावी पार्टियां बनकर रह गयी हैं. उन लोगों के बारे में क्या जो पार्टियां में खून-पसीना बहाने के बाद सैद्धांतिक मतभेद पर विमर्श के अभाव में बाहर निकले और मानवाधिकार संगठन तथा अन्य माध्यमों से क्रांतिकारी आंदोलनों की मदद करते हैं? दुनिया की सारी संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां अप्रासंगिक होकर हासिए पर खिसक गयी हैं, अब जरूरत एक नए अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन की है. पहली जरूरत अमार्क्सवादी अवधारणा 'पार्टी लाइन' पर गंभीर विमर्श की है जो सर्वहारा के 'अपने आप में वर्ग' से वर्गचेतना अख्तियार कर 'अपने लिए वर्ग' में संक्रमण में बाधक है और एक अलग तरह का भक्तिभाव पैदा करती है. दूसरी जरूरत 'जनतांत्रित केंदीयता' की जगह 'अधिनायकवादी केंद्रीयता' के ढांचे पर तथा अपने इतिहास पर खुली बहस है.
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