पिछले 30-35 सालों में दलित प्रज्ञा और दावेदारी (और नारी प्रज्ञा एवं दावेदारी) के अभियान का रथ काफी दूरी तय कर चुका है, जिसमें निश्चित रूप से आरक्षण के प्रावधानों का महत्वपूर्ण योगदान है. बड़े-से-बड़े जातिवादियों की भी सार्वजनिक मंच से कहने की औकात है कि वे जातिवादी श्रेष्ठता में यक़ीन करते हैं (बड़ा-से-बड़ा मर्दवादी सार्वजनिक रूप से नहीं कह सकता कि वह बेटी-बेटा में फर्क करता है, यह अलग बात है कि एक बोटे के लिए 2-3-4-5 बेटियां पैदा कर ले). कोई ब्राह्मण (सवर्ण) सार्वजनिक रूप से कह नहीं सकता कि वह दलित के साथ खान-पान से परहेज रखता है, इसके लिए वह अन्य बहाने भले ढूंढ़ ले. दलित अस्मिता और आत्मविश्वास की चेतना के अभियान में निश्चित रूप से कांशीराम और मायावती के कॉरपोरेटी और कमनिगाही की राजनीति का महत्वपूर्ण योगदान है. अस्मिता की राजनीति की सीमा होती है. अंबेडकरवाद को संघर्षों से काटकर सत्ता की राजनीति तक सीमित करने का उनकी राजनीति ने दलित चेतना के जनवादीकरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है. वे भूल जाते हैं कि शासक जातियां ही शासक वर्ग भी रही हैं. भूतपूर्व कॉमरेड चंद्रभानु प्रसाद समेत तमाम मायावादी (अवसरवादी) बुद्धिजीवी (जिन्हें मैं नवब्राह्मणवादी कहता हूं) ब्राह्मणवाद और कॉरपोटी साम्राज्यवाद की बजाय अपनी सारी ऊर्जा वामपंथ को गाली देने में खर्चकर दलित (कामगर ) संघर्ष को पीछे ढकेलते हैं. जब मायावती ने संघ की गोद में बैठकर सत्ता संभाला तो चंद्रभान ने दलित-ब्राह्मण के 'स्वाभाविक गठजोड़' का सिद्धांत गढ़ डाला. जब भी सामाजिक न्याय के संघर्ष को आर्थिक न्याय के संघर्ष के साथ जोड़ा गया तो पर्याप्त सफलता मिली. गुजरात और पंजाब के जारी दलित आंदोलन इसके ज्वलंत उदाहरण हैं. रोहित बेमुला की शहादत से निकला 'जय भीम-लाल सलाम' का प्रतीकात्मक नारे से उम्मीद की जो किरण निकली उसके दावानल बनने की उम्मीद को कॉरपोरेटी सामाजिक न्यायवादी' सारा आक्रोश वामपंथियों की ऐसी-तैसी करने में खर्च कर, कुंद करने में लगे हैं. सत्ता के लिए अंबेडकर को गोलवल्कर की गोद में बैठाने वाले अंबेडकरी रामों (राम विलास, राम अठावले, राम(उदित) राज) अब भी दलितों के एक बड़े भाग में पूज्य बने हुए हैं. मायावती के पास नया इतिहास रचने का मौका था लेकिन अंतर्दृष्टि के अभाव में और पूंजीपति बनने के भ्रम तथा नवब्रह्मणवादी सामंती महत्वाकांक्षा में दलित चेतना को भ्रष्टाचार को समर्पित कर उसने जाया कर दिया. दलित मुक्ति का रास्ता दलित चेतना का जनवादीकरण ही है. दलित राजनीति की भूमिका पूरी हो चुकी है आगे का रास्ता दलित संघर्ष है. जय भीम-लाल सलाम.
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