मणी बाला यह मेरी बात की मशीनी व्याख्या है. जन्म एक जीववैज्ञानिक दुर्घटना का परिणाम है इसमें हमारा न तो योगदान है न अपराध. इस लिये जन्म की अस्मिता चिपके रहना विरासत में मिली, हमारी सचेत इच्छा या प्रयास से स्वतंत्र संस्कारगत नैतिकता है. उस पर सवाल करने अौर यदि अवांछनीय हो तो उसे त्याग विवेकसम्मत नैतिकता अर्जित करने की जरूरत होती है. यदि मैं विरासत में मिली नैतिकता से चिपका रहता तो मर्दवादी पोंगापंथी पंडत बना रहता. इसके लिये जरूरी है लगातार अपने अाप से सवाल अौर लगातार खुद को जवाब कि मनुष्य होने के नाते हम चिंतनशील प्राणी हैं अौर हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जिसके परिणाम स्वरूप हम पाषाणयुग से अंतरिक्ष युग तक पहुंचे हैं अौर यह कि चिंतनशीलता ही मनुष्य को पशुकुल से अलग करती है, यह भी कि अतीत में सारी महानताओं की तलाश अनैतिहासिक होने के साथ वर्तमान के संघर्षों से भटकाव अौर अनजाने में भविष्य के विरुद्ध साज़िश है. जैसे संस्कारगत नैतिकता के तहत मैं तुम्हें बेटा कहकर साबाशी दूंगा अौर संस्कारगत नैतिकता के तहत तुम भी इसे साबाशी लोगी, हम दोनों अनजाने में मर्दवादी विचारधारा को पोषित करते हैं. किसी बेटे को बेटी कह दो तो सारे लडके-लड़कियां हंसने लगेंगे. विवेकसम्मत नैतिकता यह होगी कि मुझे बेटी को बेटी कहकर साबाशी देना चाहिये अौर तुम्हें दावेदारी से कहना चाहिये, "Excuse me, I don't take it as complement.". Education should be not only about learning but also unlearning, unlearning the irrational acquired attributes independent of conscious will and replace them with rational ones.
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