Thursday, January 22, 2015

क्षणिकाए 40 (611-620)

611
ज़ुल्मत के इस दौर में 
प्रतिध्वनियों के कानफाड़ू शोर में
किसी प्राचीन गुफा की दीवारों टकराकर गूंजती
तुम्हारे पुकार की प्रतिध्वनि पहचान में नहीं अातीं
(ईमिः24.12.2014)
612
तुम क्या जानो कितने फसाने हैं तुम्हारी इक मासूम बात में
क्या कुछ मिल जाता है एक ही मुलाक़ात में
नित नया अन्वेषण खुद का करते हैं अाप
साहस से करें ग़र खुद से निरंतर संवाद.
हा हा एक और फसाना
(ईमिः24.12.2014)
613
कम ही सुनायी देती है कोई आवाज़ अब
सुनायी देता है शोर प्रतिध्वनियों का
निलती जो बात किसी सुमुख से
होता है भाव रट्टू तोते का
बंदानवाज ने कहा विकास
कास-कास की प्रतिध्वनियों से गूंज गया अाकाश
कहा वाशिंगटन में किसी ने अार्थिक सुधार
सुनायी पडा दिल्ली में धार-धार-धार
जानते नहीं क्या है धारा तीन सौ सत्तर
खात्मा मगर है इसका राष्ट्रवाद का उत्तर.
(ईमिः24.12.2014)
614
कविता के जंमदिन की कविता में बधाई कैसे न दूं
अमूर्त ज़ज़्बातों को मगर शब्दों में कैसे कसूं
दुवा करता हूं अाज के होने का नई उड़ान का दिन
सुंदर सपनों के नये विहान का दिन
लिखो तुम मुक्तिगान की कविता
खत्म हो जाये दुख-दर्द की अंधेरी सविता
 भरो ऐसी उड़ान कि खुद-ब-खुद रास्ता दे दे अासमान
 अोझल न हो अांखों मगर धरती का अनमोल जहान. जंमदिन मुबारक.
(ईमिः24.12.2014)
615
यह मान है नतीजा अधूरे ज्ञान का
निराधार वायवी अभिमान का
अारर होता है यह जामुन की डाल की तरह
अौर नाज़ुक मोम से मजहबी ज़ज़्बात की तरह
आँच से ही जल जाता है होता  इतना ज्वलनशील
परिहास पर गुर्राता है होता इतना सहनशील
कितना रोमांचकारी है रास्ते से भटकना रास्तों का
सुखद संयोग हो सकता है भटकाव नये वास्तों का
हो ग़र ग़म-ए- जहां से वास्ता
मिल ही जाता है ज़िंदगी को नया रास्ता
टूट जाता है लीक पर चलने की ऊब से नाता
साझे सरोकारों का हमसफर जो मिल जाता    
(ईमि/24.12.2014)
616
ख़ुदी की गफलत के शिकार एक शायर के हैं ये विचार
तख़ल्लुस है उनका ग़ाफ़िल
जानते नहीं मगर निज़ाम-ए-ज़र का आचार 
कहते हैं 
आसाँ है सोच रोटी की मगर मुश्किल है उसे बनाना
बताना पड़ेगा इनको वह बात
जानता है जिसे मुद्दत से सारा जमाना
खेलता-खाता जो रोटियों में और करता रोटी का धंधा
किया नहीं आँटे से उसने कभी भी हाथ गंदा
आता है जिसे बनाना और बनाता है जो रोटी
बिना नाश्ते के स्कूल जाती है उसकी बेटी
ईंट-गाढ़े की होती नहीं उन्हें तनिक पहचान
महलों-दुमहलों में रहते हैं जो धनपशु महान
बनाते हैं दिन-ओ-रात जो औरों की अट्टालिकायें
खुले आसमां के नीचे सोती हैं उनकी ललनायें
भूखा है मगर नहीं है कामचोर 
श्रम के साधनों पर क़ाबिज हैं हरामखोर
झेलेगा अब और नहीं पीड़ा इस त्रासद अवस्था की
समझेगा जब साज़िश सरमाये की व्यवस्था की
दुनियां के भूखे-नंगे मिल जायेंगे जब साथ
तोड़ देंगे ज़ालिमों के सारे खूनी हाथ
 भूखे न सोयेंगे तब रोटी बनाने वाले
बेघर न रहेंगे शहर बसाने वाले 
करना पड़ेगा धनपशुओं को भी काम
बिन मेहनत होगी रोटी हराम 
(ईमिः27.12.2014)
617
देखो तो जरा इस पतनशील पत्नी के रंग-ढंग
पहुंच गया मयखाने तक पतितपन का रंग
किया इसने पहले तो मनु महराज का निषेध
मिल शूद्रों के साथ पढ़ने लगी अनधिकृति वेद
इससे भी होता नहीं राष्ट्रवाद को इतना खेद
भूल गयी यह तो मगर औरत-मर्द का भेद
खिंचाती है जाम छलकाती खुद की तस्वीर
संस्कृति के पहरुए कब तक धरेंगे धीर?
इसी लिये बनाया था मनु महराज ने कानून ऐसे
आज़ादी के ज़ुनून से बचाई जा सके औरत जिससे
बचपन में रहे वह अपने पूज्य पिता के अधीन
मालिक बने पति परमेश्वर होते ही औरत हसीन
खतरे भांप लिया था उनने औरत की आज़ादी के
कुलक्षण है जो पुरुखों की पावन परंपरा की बर्बादी के
हो जांय पतिदेव उसके जब ईश्वर को प्यारे
कटेगा कलंकित वैधव्य तब बेटों के सहारे
लगती है औरत को जब आज़ादी की आदत
ढाती है गौरवशाली मनुवादी संस्कृति पर आफ़त
किया गोलवल्कर ने जब अपना विचार-पुंज पेश
फैलाने को फिरकापरस्ती के पावन-पुनीत संदेश
बताया मनु महराज को इतिहास सर्वोच्च न्यायविद्
और कहा मनुस्मृति है कानून का सवोत्तम संविद
औरत की आज़ादी ही नहीं शिक्षा भी है खतरनाक
पढ़ी-लिखी औरतें करती ऐसी ही हरकतें शर्मनाक
सतयुग की महान नारी पति का माल होती थी
इंसानों की मंडी में बिकने पर भी नहीं रोती थी
त्रेता में होने लगा संदेह उसके सतीत्व पर
मिटाती थी जिसे वह चलकर अंगारों पर
रह जाता ग़र फिर भी संदेह किसी के मन में
स्वीकारती थी निर्वासन खुशी-खुशी किसी वन में
द्वापर में भी नारी नहीं हुयी थी इतना पतित
करती नहीं थी पति को उसे जुए के दांव से वंचित
कलयुग की नारी का देखो यह पतनशील हाल
करने लगी मनुस्मृति की पवित्र संहिता पर सवाल
करती है मर्दों की बराबरी करने का बवाल
करती नहीं सीता-सावित्री के इतिहास का खयाल
पढ-लिख कर जो चार पैसा कमाने लगी
पतिव्रता की पवित्रता से दूर भटकने लगी
इसीलिये मनु ने लगाया था नारी-शिक्षा पर रोक
पढ़-लिख कर ये बकती हैं कुछ भी बेरोकटोक
लेकिन है देश में अभी भी बची यही गनीमत
करती नहीं ज्यादातर मर्यादा तोड़ने की हिम्मत
पतनशील पत्नियों का है दुनियां में अल्पमत
फैलेगा ग़र पतनशीलता का रोग संक्रामक बनकर
कहर बरप जायेगा मर्दवाद के प्राचीन दुर्ग पर
वैसे तो पतनशीलता अंतर्निहित है हमारे इतिहासबोध में
चोटी से शुरू होकर गिरते जाते हैं काल की अंधेरी खोह में
कह गये हैं ऋषिमुनि पहले ही यह पवित्र बात
चरमोत्कर्ष से होती हमारी संस्कृति की शुरुआत
सतयुग था हमारी गौरशाली संस्कृति का उत्कर्ष
कलियुग की तरफ बढ़ता रहा पतनशील निष्कर्ष
सतयुग था ऐसा स्वर्णयुग महान
खुली बाजार में बिकते थे इंसान
होगा ही एक दिन पतनशील पत्नियों का बहुमत
आयेगी उस दिन गौरवशाली मर्दवाद की शामत.
(ईमिः2 जनवरी 2015)
618
मैं तो कर रहा था तोड़ने की बात संग-ए-चट्टान
कहां से अा गया फ़साने में ये संग-ए-दिल इंसान
हमने तो सुना था में पत्थरों में पनाह लेते हैं बेचारे देवता
इंसान भी अब पत्थरों में छिपने लगा?
(ईमिः18.01.2015)
619
मैं तो कर रहा था तोड़ने की बात संग-ए-चट्टान
कहां से अा गया फ़साने में ये संग-ए-दिल इंसान
हमने तो सुना था में पत्थरों में पनाह लेते हैं बेचारे देवता
इंसान भी अब पत्थरों में छिपने लगा?
(ईमिः18.01.2015)
620
क्यो बढ़ाना चाहती हो अाबादी-ए-दानिशमंद
रखकर दिमाग ताक पर लिखते हैं जो छंद
चिंतन-प्रवृत्ति से पशुकुल से अलग हुअा इंसान 
रखकर दिमाग ताक पर हो जाता वह पशु समान
यंत्रवत घूमते हैं उसके हाथ-पैर, अांख-कान
टेपरिकॉर्डर बन जाती है उसकी जुबान
होता नहीं भरोसा खुद पर जीता भरोसा-ए-भगवान
इसलिये ऐ शरीफ इंसानों दिमाग चलता रहे तो बेहतर है
इंसान दिमाग लगाये जानवर न बने तो बेहतर है
(ईमिः22.01.2015)







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