Wednesday, January 7, 2015

लल्ला पुराण 180 (शिक्षा अौर ज्ञान 46)

Sumant Bhattacharya मित्र ऋगवैदिक कबीलों के बारे में मेरी सारी जानकारी ऋगवेद (हिंदी-अंग्रेजी अनुवाद) अौर अन्य किताबों के पाठ पर ही अाधारित है व्यक्तिगत अनुभव पर नहीं. संगीत शून्य व्यक्ति हूं इसलिये ध्वनि की शुद्धता क्या होती है नहीं जानता. हां कई खानाबदोश कबीलों को जानता हूं जिनकी अाजीविका नृत्य-गायन से ही चली थी. तुमने ऋग्वेद अगर पढ़ा होगा, (न पढा हो तो गोविंद मिश्र का अनुवाद काफी अच्छा है) तो सोमरस, हरे चारागाहों, अस्थाई पिंड(गांव)च पशुधन की महिमा (अौर चोरी), सोमरस, अश्व समान बल अौर नये चारागाहों की तरफ प्रयाण के प्रसंगों की बारंबारता है. जो लोग किसी कृति को पढ़े बिना उसे ज्ञान-विज्ञान का सार्वजनिक स्रोत या धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने वाला घोषित कर देते हैं वे ज्ञान की प्रक्रिया अौर समाज दोनों के लिय़े घातक होते हैं. जनश्रुति के अाधार पर फैसलाकुन वक्तव्य देने के पहले ग्रंथ के कतिपय हिस्ले पढ़ लेना चाहिये. Anshuman Pathak अापकी गलती नहीं है जनश्रुति पर अाधारित ज्ञान से ऐसी ही गैरजिम्मेदार टिप्पणी होती है. इंद्र ऋगवैदिक अार्यों के देवता थे अौर कबीले के मुखिय को भी इंद्र कहा जाता था, जिसके सम्मान में, अन्यथा अबध्य अश्वमेध होता था. ऋगवेद न पढ़ सकें तो राहुल सांकृत्यायन को ही पढ़ लें. सादर.

Sumant Bhattacharya मैंने कहा नहीं कि मैं सुर-संगीत के बारे में राय देने में अक्षम हूं, लेकिन खानाबदोश या अर्ध कानाबदोश कबीले क्यों नहीं बेहतर सुर संयोजन कर सकते? ऊपर मैंने लिखा है कि कई खनाबदोश कबीले अाज भी नृत्य-संगीत से जीवनयापन करते हैं. अमरीका के अरिजोना के अर्ध-खानाबदोश अादिवासी अस्थायी गांव बसाकर रहते थे अौर संगीत में निपुण माने जाते थे. सभी समाज कबीलाई समाजों से ही विकसित हुये हैं. मैं दुबारा दुहराता हूं कि अतीत में महानतायें खोजना वर्तमान संघर्षों से मुंह मोडकर, जाने-अनजाने भविष्य के विरद्ध साजिश का हिस्सा होने जैसा है.

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