Wednesday, June 25, 2014

क्षणिकाएं 26 (471-482)



471
रवायतें कर नहीं पायेंगी  नज़र-ए-ज़िंदां अब आज़ादी
कर्णकटु लगने लगी है पुरानपंथ की बेअसर मुनादी
सर पर बोझ हैं परंपराएं बाबा आदम के लाशों की
पांवों में जड़ती हैं बेड़ियां वर्जनाओं और निषेधों की
भड़काती हैं समाज में भेड़चाल दे दुहाई संस्कारों की
सलामत रहें जिससे गद्दियां सभी सरमायेदारों की
बनाती हैं तोते और उनके पिजड़े ज्ञान के सलाखों की
पंडित की पोथी जिससे गढ़ती रहे किस्मत लाखों की
चली है अब तो दुनियां में सवालों की एक नई बयार
साबित करो तभी ये बच्चे मानेंगे कोई विचार
टूटेंगी ही अंध-आस्था की रवायतों की रूढ़ियां
नई रीतियां गढ़ेंगी हमारी हर अगली पीढ़ियां.
(ईमिः17.06.2014)
472
नहीं बुझने देंगे आंखो के ये दिये
करेंगे इन्हें रोशन जनवाद के तेल से
फूंकेंगे जान बुतखाने की हसीं यादों में
जम्हूरी दिल-ओ-दिमाग के मेल से
लहराते हुए हाथ चलेगी जब हर लाश
दिये गुल करने वालों का होगा सत्यानाश
फिर इक दिन आयेगा जनवादी जनसैलाब
जम्हूरियत के दुश्मनों को कर देगा बेआब
नहीं बुझेंगे आंखों के दिये तब कभी
अमन-ओ-चैन से जियेंगे हम सभी
(ईमिः18.06.2014)
473
कायरतापूर्ण पलायन है चयन मरने का
और नहीं है जीवनेतर उद्देश्य जीने का
खुद एक उद्देश्य है जीना एक अच्छी ज़िंदगी
न करो किसी पर कृपा न किसी की बंदगी
भरना है सूखी आंखों में उम्मीदों का आब
देखना है इनको इक नई दुनिया का ख़्वाब
उतारना है धरती पर एक अनोखा आफ़ताब
उमड़ते दिखेंगे कितने जनवादी जनसैलाब
सीख लो मुश्किलों को बनाना आसान
मानना प्रतिकूल को बदले भेष में बरदान
झूम पड़ेंगे खुशी से ये वीरान बियाबान
बेजान में आ जायेगी एक नई जान
(ईमिः18.06.2014)
474
इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
इस विद्वतमंच पर भाषा का ऐसा भदेश?
लगता है हो जैसे कोई अादिम प्रदेश
यह प्रोफेसरों की जागीरदारी का नतीजा है
कोई बेटा-बेटी तो कोई गोद लिया भतीजा है
धर्मपिताओं की है यहां एक परंपरा महान
धर्मपुत्र-पुत्रियों में फूंकता जो अनूठा ज्ञान
डिग्री मिलते ही बन जाते हैं अद्भुत विद्वान
लेता है धर्मपिता इस दुर्घटना का संज्ञान
करता है अगली पीढ़ी के ज्ञान का निदान
धर्मपुत्र होत हैं बाहुबल में भी कम नहीं
कहते रहिए लंपट इन्हें कोई ग़म नहीं.
(ईमिः20.06.2014)
475
खूबसूरती के संज्ञान पर हुई जो तुम शुक्रगुजार
हुई तुम्हारी तस्वीर पर एक उड़ती कविता उधार
यह तो था अभी महज कविता का वायदा
अभी भरना है तस्वीर में विप्लव का इरादा
उन्मुक्त दुपट्टे की गगनचुंबी मस्ती भरी उड़ान
आंखों की बेपरवाही में झलकता मर्मज्ञ तूफान
विश्वस्त मुस्कान दर्शाती इसके ऊंचे अरमान
कि वर्जनाओं की मिटा देगी नाम-ओ-निशान
(ईमिः 21.06.2014)
476
भूल जायेंगे लोग कखग की कवितायें
क्योंकि वे एक लड़की से प्यार की कवितायें है
और याद रखेंगे मेरी
क्योंकि वे जहां से प्यार की कवितायें है
शामिल है जिसमें माशूक का भी प्यार
सलाम तुम्हारे जज्बे और इश्क-ए-उसूल को
(ईमिः21.06.2014)
477
बेकरारी-ए-इंक़िलाब है इन झुकी झुकी नजरों में
ख़्वाब-ए-इंसाफ है रास्ते टोहती  इन नज़रो में
(ईमिः21.06.2014)
478
उलझी है भंगिमा घनाच्छादित बालों में
खोयी है य़े किन्ही संजीदा खयालों में
(ईमिः21.06.2014)
479
दिल हल्का हो जाता है निचुड़ जाने से आंखो का पानी
वाष्प बन जाता है वह तप कर यादों की धूप में
बादल बन बरस कर कर देता है हरा भरा उपवन
480
सोचता है वह खुद को इतिहास का सिकंदर
चाहता ऱखना दुनिया जो जूते की नोंक पर
की थी उसने यूनानी नगर-राज्यों से शुरुआत
किया बर्बर लूट-पाट और भीषण रक्तपात
रौंदा  घोड़ों की टापों से दर्शन की परंपराओं को
और जनतांत्रिक संविधानों की ऋचाओं को
पढ़ता नहीं तानाशाह ढंग से इतिहास
होता है हर सिकंदर का वीभत्स विनाश
बढ़ता रहा आगे करते अभूतपूर्व जनसंहार
सोचा उसने करने को जब रावी नदी पार
मालुम हुआ उसे मगध की सेना का आकार
हार गयी हिम्मत और टूट गया अहंकार
टूटता है जब किसी अहंकारी का अहंकार
हो जाता है वह मनोविकार का शिकार
खंडित हुई जब विश्वविजय की अभिलाषा
छा गई उस पर जिजीविषा की निराशा
लौटा वापस वह लश्कर-ए-मातम के साथ
पड़ गया हिंदुकुश के कबीलों के हाथ
बनना चाहता था वो दुनियां का लंबरदार
कर न पाया सिकंदर 25 साल भी पार
मिल गया हिंदुकश की पहाड़ियों की खाक में
था जो दुनिया पर राज करने की फिराक़ में
हो गया उसके साम्राज्य का सत्यानाश
करके यूनानी सभ्यता के गौरव का नाश
देता था जिसकी मिसाल इतिहास
शीघ्र ही बन गया रोम का दास
सीखना है हमको इतिहास से
बचाना है मुल्क संभावित विनाश से
(ईमिः22.06.2014)
481
नेता की भितरघात तो समझ आती है
खुली खुशामद करे, ये तो हद है
बदनामी छिपाना तो समझ आता है
उसका डंका कोई पीटे ये तो हद है
शिक्षक का न पढ़ाना समझ आता है
कुज्ञान की फसल उगाये ये तो हद है
मालिक की वफादारी तो समझ आती है
अपना ही गांव जला दे, ये तो हद है
मालिक की मुसीबत से मायूस होना समझ आता है
उसके लिए जान दे दे ये तो हद है
ख़ुदगर्जी में सर नवाना तो समझ आता है
कोई साष्टांग करे ये तो हद है
(ईमिः24.06.2014)
482
अगली मंजिल
मंजिलें और भी हैं इस मंजिल से आगे
जोड़ना है इन सभी मंजिलों के धागे
रहती अगली मंजिल की सदा हसरत
बढ़ते ही जाने की है मेरी फितरत
एथेंस में करता सुकरात सी चहल
कारों के बेदर्द शहर में गाता ग़ज़ल
हमसफर हाजी कहते मुझे बुतपरस्त
खैय्याम कहते हूं हाजी जबरदस्त
लड़ते बढ़ते बस चलता जाता हूं
पहुंच मंजिल पे थोड़ा सुस्ताता हूं
खत्म नहीं होता सफर पाकर मंजिल
अगली फिर अगली का करता है दिल
(ईमिः 26.06.2014)










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