Monday, June 16, 2014

क्षणिकाएं 25 (461-70)


461
उजाड़ दो यादों की दुनिया जो इतनी छोटी हो
छोटा सा टीला ही जिसमें पहाड़ की चोटी होे
दो इस दुनिया को हिमालय  सा विस्तार
ऊंचाई का जिसके हो न कोई आर-पार
उमड़ता है जब क्षितिज में मानवता का सैलाब
उगता है दुनियां में एक नया आफताब
जब तलक रहेगी दुनिया की जनसंख्या बस एक
रुकेगा नहीं मानवता के विरुद्ध जारी फरेब
आइए बनाते हैं एक-एक मिलाकर अनेक को
अंध आस्था की जगह लाते हैं विवेक को
चलेंगे सब हम जब मिलकर साथ साथ
फरेबों की सारी दुनिया हो जायेगी अनाथ
आइए लगाते हैं मिलकर नारा-ए-इंक़िलाब
निजी प्यार भी होगा उसी में आबाद
(बस ऐसे ही तफरी में)
(ईमिः03.06.2014)
462
लीक पर चलने को कहते हैं भेड़चाल
नये रास्ते तलाशना है तेरा कमाल
(ईमिः04.06.2014)
463
कुदरती आलम है चांद का अपने अक्ष पर घूमना
पागलपन की सनक है उसे धरती पर उतारना 
आभूषण है वह चांद का समझते हो जिसे दाग
मिटाने की करोगे कोशिस तो लग जायेगी आग
गुल-ओ-खार की द्वंद्वात्मक एकता जहां का उसूल
तोड़ना यह समग्रता है मानव की नादान भूल
जिंदा रहने की शर्त है ज़िंदगी की जीत में यकीन
मज़मून-ए-जन्नत को करेगी साकार जमीन
आयेगी इस चमन में अमन-ओ-चैन की बहार
होंगे जब गुलामी-ए-ज़र के सभी बंधन तार तार
आग से पेट की लगता है  भूखे दिलो में दाग
न बुझ सकी ये आग तो हो जायेगा इंक़िलाब
महकूम-ओ-मजलूम के चमन में आयेगी बहार
हो जायेगा ये जहां तब हर्षोल्लास से गुल्जार
(ईमिः04.06.2014)
464
चांद को न रोटी का टुकड़ा न हुस्न का पर्याय बताते
पृथ्वी का उपग्रह है, यह बात तथ्य-तर्क से हैं समझाते
बहलाते नहीं बच्चों को बताकर चाद को रोटी का टुकड़ा
फुसलाते नहीं महबूब को बताकर उसे उसका मुखड़ा
बहलाते नहीं बच्चों को सौर्यमंडल की हक़ीकत बताते हैं
समाज के ख़्वाबों के भविष्य का उन्हें पहरेदार बनाते हैं
फुसलाते नहीं माशूक को दिल की चाहत दिखाते हैं
बन हमजोली दोनों पारस्पारिकता का पेंग बढ़ाते हैं
(ईमिः04.06.2014)
465
जो देखता सुनता महसूसता हूं,
 शब्दों में उसे ही पिरोता हूं
करता नहीं अमूर्तीकरण अनुभवातीत इकाई का
सत्यापन को ही मानता हूं आधार सच्चाई का
मक्सद है तोड़ना मिथ्याचेतना का जटिल जाल
आध्यात्मिकता का आवरण है शासकों की चाल
है वैसे तो यह बहुत कठिन वैचारिक काम
आसानियों को दे सकता है कोई भी अंज़ाम
(ईमिः 05.04.2014)
466
वही शहर वही नहीं रहता और लोग भी बदलते हैं
कभी कभी इतना कि पहचान में नहीं आते
(ईमिः04.06.2014)
467
न करो भरोसा रटंत विद्या का
ठहर जाता है वह ज्ञान
हो जाता जो कंठस्थ
(ईमिः04.06.2014)
468
इस संकल्पशील तस्वीर पर
लिखनी ही पड़ेगी अब तो एक उड़ती हुई कविता
टिका नज़रें सुदूर मंजिल पर
निकली हो जैसे चीर कर घनी-अंधेरी सविता
लिखी है बुलंद इरादों की इबारत चेहरे पर
खत्म हो गयी हो मानो वर्जनाओं की दुविधा।
अभी फिलहाल शब्द-जाल इतना ही
तस्वीर को शब्दों में पिरोना है मुश्किल भी
(ईमिः16.06.2014)
469
धैर्य रखो धन्ये!
कोमल हो जाएगी उसके जाने की सख्त घड़ी
वापसी की मोहक उम्मीदों में
वियोग-संयोग के संगम से खिंचती है जीवन रेखा
(ईमिः16.06.2014)
470
तोलकर बोलते हैं बोलते हैं जब भी
समझते हैं बदले वक़्त की तासीर भी
नहीं है अपनी फितरत चुप रहने की
आदत है जो हक़ीक़त बयान करने की
जगह थी जिन कमीनों की जेल में
तख्तनशीं हैं वे सियासती खेल में
अपन तो साथ हैं मजलूमों-महकूमों के
ज़ंग-ए-हक़ हमसफर खाक़नशीनों के
होते हैं ग़र हाथ कलम तो हो लें
अपना कलम तो उगलेगी शोले
हिम्म्त बहुत है इस 46 किलो की शरीर में
देखेंगे जगह है कितनी ज़ालिम की जेल में
(ईमिः16.05.2014)










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