Friday, June 20, 2014

लल्ला पुराण 157 ( रेल किराया)

Sumant Bhattacharya  रेल किराया बढ़ने से आपको गिला हो न हो आवाम को है. पहली बात तो बजट सत्र  दूर नहीं था फिर रेल किराये में बढ़ोत्तरी की इतनी हड़बड़ी क्यों? रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के के फैसले के बाद अब रेल के निजीकरण का नंबर है, भावी रेल मालिकों के मुनाफे की बढ़ोत्तरी के लिए उन्हें खुद बदनाम न होना पड़े इस लिए तथाकथित प्रचंड बहुमत (55% का 31%=17%) से पहले ही किराया बढ़ा दिया उसी तरह जैसे बाजपेयी की 13 दिन की सरकार ने संसद में बहुमत की परवाह किए बिना कुख्यात एनरॉन को मुनाफे की काउंटर गारंटी दे दी थी. आम जनता रेल में चलती है और रेल से ढोये गये सामानों का इस्तेमाल करती है. लीकेज चहुं ओर व्याप्त भ्रष्टाचार का अभिन्न हिस्सा है, चुटकी में भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाले मोदी जी साफ दिखती लीकेज क्यों नहीं रोक सकते? मित्र, आप एक लपेट में सभी संगठनों को गिरोह बता कर बतौर एक स्वतंत्र (तभी तक जब तक उसका व्यवस्था पर फर्क नहीं पड़ता) नागरिक अाप सवाल करते रहना चाहते हैं, इससे नैतिक आत्मतुष्टि के अलावा और कुछ नहीं होगा, जवाब तो दूर कोई सवाल ही नहीं सुनेगा. हाकिम को सुनाने के लिए  संगठन की ताकत चाहिए और जनवादी जनसंगठन के लिए जनवादी जनचेतना, वह भी संगठित प्रयासों से ही संभव है. मौजूदा संगठनों में खामियां हैं तो नये बनाइए. गांधी जी भी अकेले कुछ नहीं कर सकते थे. उन्हें कांग्रेस जैसा एक बना बनाया राष्ट्रीय संगठन मिला था जिसे उन्होने सालों देश भ्रमण के दौरान ग्रासरूट संगठनों के निर्माण और स्वदेशी चेतना के प्रसार से समृद्ध किया. इन संगठनों के बल पर ही गांधीजी राष्ट्रीय आंदोलन को शहरी मध्यवर्ग के आंदोलन से जनांदोलन में तब्दील कर सके और औपनिवेशिक शासन की चूलें हिल गयीं. सवाल का जवाब तभी मिलेगा जब सवाल संगठित शक्ति की बुलंद आवाज़ में हो. संगठन और नियोजित रणनीति के अभाव में अमेरिका और य़ुरोप के ऑकुपाई आंदोलन में उमड़े स्वस्फूर्त जनसैलाब या दिल्ली के बलात्कार-विरोधी और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों के स्वस्फूर्त जन-उभार कितना असर छोड़ पाये? स्वस्फूर्त आंदोलनों की अपनी सीमित भूमिका होती है. स्वस्फूर्त बिहार छात्र आंदोलन में छात्र संगठनों की भागीदारी थी. जेपी के शामिल होने के बाद आंदोलन के दौरान बने युवासंघर्ष वाहिनी और छात्र संघर्ष वाहिनी संगठनों ने आंदोलन की कमान संभाला. आवाज सुनाने के लिए संगठन की जरूरत है. अकेले नहीं लड़ी जाती कोई जंग, ज़िंदगी काटी जाती है. और अंत में प्रचंड बहुमत आवाम के लिए खतरनाक होता है, इसी की बदौलत इंदिरा गांधी आपात काल लगा सकी थीं.

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