जंग-ए-आज़ादी में शहीद ही नहीं ग़ाज़ी भी होते है. पैकेजिंग की पेटेंटिंग नहीं हुई है. और ग़ज़ल के विद्रोह का तेवर ग़ालिब और मीर में दिखता है जो मजाज़ , फैज़, इब्ने इंशां, दुष्यंत कुमार, गोरख पांडेय और अदम की गज़लों में रवानगी हासिल करता है. दूल्हन अब पालकी में नहीं, खुद चलाकर कार में जाती है.
यार हार-जीत की कोई बात नहीं है, बस तफरीः में तुकबंदी हो गयी. गजल पालकी नहीं है और न क्रांति लाश है. मासूक के ज़लवे में कब तक फंसी रहेगी ग़ज़ल, अब वह मुफलिस की जवानी और बेवा के सबाब से भी मुखातिब होने लगी. "सर सर को सबा जुल्मत को जिया बंदे का खुदा अब क्या लिखना/दीवार को दर, पत्थर को गुहर, करगज को हुमा अब क्या लिखना/की हमने इन्ही की ग़मखारी, लोगों पर हमने जां वारी, होते हैं तो हो लें हाथ कलम शायर न बनेगा दरबारी/........ " (हबीब जालिब) मैंने नहीं कहा गज़ल माशूक के जल्वे न लिखे, लेकिन मजलूम की भूख और बेवा के सबाब के हाल लेने या लोगों की ग़मखारी से क्यों रोकते हैं उसे?
Chandra Bhushan Mishra माना कि ग़ज़ल की शुरुआत दरबारी मनोरंजन के साधन के रूप में हुई और फनकार दरबारी कृपा के लिए शराब-ओ-सबाब पर फन वारते रहे, औरत की अवधारणा को माशूकियत के जल्वों में कैद कर शासकों का दिल बहलाते रहे, जनता को जगाने का चलन जो न था. कई बार अनचाहे परिणाम (इनऐडवर्टेंट कान्सीक्वेंसेज़) लक्ष्य से अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं. गज़ल जैसी समृद्ध और अनंत संभावनाओं की विधा को महबूब की जुल्फों कैद रखना असंभव था और वर्जनाओं तथा प्रतिबंधों को तोड़ते हुए निकल पड़ी "वतन के लोगों को जगाने" और "पहुंच गये शहर के सारे ज़रदार थाने" (हबीब जालिब). माशूक जल्वे वाले कितने शायर याद हैं इतिहास को? है कोई मीर, मज़ाज, फैज़, शाहिर,...., दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, इब्ने इंशां, हबीब जालिब, गोरख पांडेय, अदम गोंडवी.....?
“एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल,
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल.
दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम,
शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल” (अदम गोंडवी)
Arun Kumar Singh सही कह रहे हैं भक्तिकाल के कवियों ने रीतिकालीन काव्यविधा को जनसरोकारों के साथ जोड़ मतलब ही उलट दिया. अंतरात्मा एवं विवेक तथा भाव और विचारधारा (वैचारिक समझ) दोनों द्वंद्वात्मक एकता के बंधन में होते हैं और पारस्परिक सहायक की भूमिका निभाते हैं. कई खूबसूरत ग़जलों-शेरों का इस्तेमाल नारे के रूप में भी होता है. “..... कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो/सर भी बहुत बाजू भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पर ही डाले जायेंगे” (फैज).
यार हार-जीत की कोई बात नहीं है, बस तफरीः में तुकबंदी हो गयी. गजल पालकी नहीं है और न क्रांति लाश है. मासूक के ज़लवे में कब तक फंसी रहेगी ग़ज़ल, अब वह मुफलिस की जवानी और बेवा के सबाब से भी मुखातिब होने लगी. "सर सर को सबा जुल्मत को जिया बंदे का खुदा अब क्या लिखना/दीवार को दर, पत्थर को गुहर, करगज को हुमा अब क्या लिखना/की हमने इन्ही की ग़मखारी, लोगों पर हमने जां वारी, होते हैं तो हो लें हाथ कलम शायर न बनेगा दरबारी/........ " (हबीब जालिब) मैंने नहीं कहा गज़ल माशूक के जल्वे न लिखे, लेकिन मजलूम की भूख और बेवा के सबाब के हाल लेने या लोगों की ग़मखारी से क्यों रोकते हैं उसे?
Chandra Bhushan Mishra माना कि ग़ज़ल की शुरुआत दरबारी मनोरंजन के साधन के रूप में हुई और फनकार दरबारी कृपा के लिए शराब-ओ-सबाब पर फन वारते रहे, औरत की अवधारणा को माशूकियत के जल्वों में कैद कर शासकों का दिल बहलाते रहे, जनता को जगाने का चलन जो न था. कई बार अनचाहे परिणाम (इनऐडवर्टेंट कान्सीक्वेंसेज़) लक्ष्य से अधिक प्रासंगिक हो जाते हैं. गज़ल जैसी समृद्ध और अनंत संभावनाओं की विधा को महबूब की जुल्फों कैद रखना असंभव था और वर्जनाओं तथा प्रतिबंधों को तोड़ते हुए निकल पड़ी "वतन के लोगों को जगाने" और "पहुंच गये शहर के सारे ज़रदार थाने" (हबीब जालिब). माशूक जल्वे वाले कितने शायर याद हैं इतिहास को? है कोई मीर, मज़ाज, फैज़, शाहिर,...., दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, इब्ने इंशां, हबीब जालिब, गोरख पांडेय, अदम गोंडवी.....?
“एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल,
मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल.
दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम,
शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल” (अदम गोंडवी)
Arun Kumar Singh सही कह रहे हैं भक्तिकाल के कवियों ने रीतिकालीन काव्यविधा को जनसरोकारों के साथ जोड़ मतलब ही उलट दिया. अंतरात्मा एवं विवेक तथा भाव और विचारधारा (वैचारिक समझ) दोनों द्वंद्वात्मक एकता के बंधन में होते हैं और पारस्परिक सहायक की भूमिका निभाते हैं. कई खूबसूरत ग़जलों-शेरों का इस्तेमाल नारे के रूप में भी होता है. “..... कटते भी चलो, बढ़ते भी चलो/सर भी बहुत बाजू भी बहुत/चलते भी चलो कि अब डेरे मंजिल पर ही डाले जायेंगे” (फैज).
बहुत बढ़िया :)
ReplyDeleteकिसी न आरोप लगाया कि मार्क्सवादियों ने ग़ज़ल को नारा बना दिया
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