Chandra Bhushan जी पढ़ाई या नौकरी की योजना बनाकर आते हैं या कंप्टीसन की तैयारी करने। कंप्टीसन तो इवि में पहली साल के बाद 1973 में ही एजेंडा से निकल गया था, उसी बात पर पिताजी से पैसा लेना बंदकर दिया था। जेएनयू के बारे में डीपीटी वहां के अध्यक्ष थे, इसके अलावा कुछ जानता नहीं था। एक तरह से आपातकाल blessing in disguise साबित हुआ। डीपीटी को खोजते जेएनयू पहुंचा, वे जेल में थे, इवि के एक अन्य सीनियर मिल गए रमाशंकर सिंह, रहने का जुगाड़ हो गया। वे कुछ दिन के लिए घर (सुल्तानपुर) गए और लौटे 6 महीने बाद तो मेरेपास। इवि के सामंती कैंपस से वहां पहुंच कर सुखद आश्चर्य हुआ तथा आपातकाल के बाद 1977 में राजनीति शास्त्र में प्रवेश ले लिया। खर्च के लिए गणित का ट्यूसन जिंदाबाद।
गोरख पांडेय भी भूमिगत रहने ही बनारस से दिल्ली आए और आपातकाल के बाद जेएनयू दर्शनशास्त्र में पीएचडी के पहले (तबतक एकमात्र) छात्र बने। लेकिन वे जेएनयू बाद मे पहुंचे पहले काफी दिन विभास दा (पेंटर) के साथ रहे। आपात काल के पहले बनारस की पार्टी बहुत लोग, लगभग पूरी जिला कमेटी ही भागकर दिल्ली आ गयी थी -- विभास दास, अनिल करंजई (दिवंगत), करुणा निधान (दिवंगत), (सभी कलाकार) कंचन कुमार ....।
Chandra Bhushan भाग कर आना कह लीजिए, लेकिन गिरफ्तारी से बचने के लिएभाग कर आना, भूमिगत रहने के लिए ही आना हुआ। वारंट जारी कर गिरफ्तार नहीं कर रहे थे, लेकिन गिरफ्तारी का डर तो था ही। बनारस से ये वरिष्ठ लोग भी मूलतः गिरफ्तारी से बचने ही आए और राजनैतिक लोग हैं तो राजनैतिक सक्रियता तो यहां भी रही ही।
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